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अद्भुत देह और मन के सौन्दर्य की प्रतिमा
जैन आर्या डॉ. सुप्रभा कुमारी 'सुधा'
ज्योतिर्मय पथ की अमर साधिका परम पूज्या महासतीजी श्री सरदार कुंवरजी म.सा. अपनी स्थूल देह त्याग कर सूक्ष्म रूप में परिणत हो चुकी है। यद्यपि मुझे इस महान विभूति के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन मेरी पूज्या गुरुवर्या, अनन्त आस्था की केन्द्र, काश्मीर प्रचारिका, ध्यात्मयोगिनी, मालवज्योति महासतीजी श्री उमराव कुंवरजी म.सा. 'अर्चना', दिवगंत साध्वी के पथ की साथी थी। दोनों ने संयम के पथ पर साथ विहार किया। आज जब मैंने गुरुवर्या महासतीजी के विषय में लेख के संदर्भ में चर्चा की तो उनकी जिज्ञासु आंखें अत्यन्त - गहन - नीलाम्बर की ओर उठी और वह स्मृतियों में खो गयी। पूज्या गुरुवर्या ने अतीत की खिड़की से जिन स्मृतियों की धूप छाया का वर्णन किया उन्हें मैंने इस लेख में शब्द बद्ध करने का विनम्र प्रयास किया हैं ।
देव विहारिणी मरूधरा के अंचल में नराधना ग्राम, जहां अन्नादिक उपजाऊ चौधरी जाति के लोगों की अधिक बस्ती है, वहां के निवासी श्रीयुत् वृद्धिचन्द चौधरी की धर्मपत्नी श्री भूरी देवी की कुक्षि से बालिका गवरांदे का संवत् १९४७ माह वदि सप्तमी को जन्म हुआ। पिता वृद्धिचन्दजी का कारोबार बम्बई में था। उस समय बाल विवाह की प्रथा थी । नो वर्ष की अल्पायु में कुमारी गवरांदेवी का पाणिग्रहण खजवाना निवासी श्री डूंगरमलजी चौधरी के साथ कर दिया। डूंगरमलजी की मां का स्वभाव बहुत ही उग्र था। बालिका गवरांदे सहन नहीं कर सकी और एक दिन बिना किसी को कुछ कहे चुपचाप ग्रामीण महिलाओं के साथ कुचेरा पहुंच गयी। कुचेरा में किसी से भी परिचय नहीं था और न कोई आश्रयदाता ही
था।
रह-रहकर बिछुड़ गये सहयात्री की स्मृतियां आंखों में अश्रु बनकर छलकने लगी। ऐसा प्रतीत हुआ जैसे संसार में कोई भी अपना नही है। चारों तरफ एक अन्तहीन सन्नाटे में गूंजती हुई चीखें सुनाई दी। वह चारों तरफ भीड़ के बीच बिल्कुल एकाकी थी।
“भीड़ में भी हूं किसी विरान के सहारे । जैसे कोई मंदिर किसी गांव के किनारे ॥”
गवरांदे इधर-उधर गलियों में डोलती हुई स्थानक के द्वार पर पहुंच गई। अन्दर विराजित मरुधरा की महान् विदुषी एवं सिंहनी के समान साहसिका श्रद्धेया महासतीजी श्री चौथांजी महाराज की दृष्टि, बाहर खड़ी बालिका की तरफ पड़ी। उसका भव्य भाल, गौर वर्ण, उन्नत ललाट, निर्मल झील की तरह गहरी आंखें, तिखी नाक आदि दिव्य देहयष्टि को देखकर महासतीजी ने बालिका को अन्दर बुलाया और उससे प्रेमपूर्वक सारी जानकारी ली। बालिका किसी भी स्थिति में घर जाने को तैयार नहीं हुई। उसके लिये वह घर श्मशान से अधिक नहीं था, जहां न कोई साथी, न साया, न प्यार न सहानुभूति । उसका दृढ़ निश्चय देखकर सुश्रावक श्री बापनाजी के घर भिजवा दिया गया। अपनी प्रखर बुद्धि के द्वारा अत्यल्प समय में अच्छा ज्ञानाभ्यास कर लिया। चार वर्ष तक विरक्त भाव से अध्ययन करती रही। वैराग्य की परिपक्वता देखकर संवत् १९६१ माह सुदि सप्तमी को किशनगढ़ में भागवती दीक्षा प्रदान की गई।
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