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शुभ दिन स्वामी श्री हजारीमलजी म.सा. के द्वारा कानीबाई को पू. स्वामीजी श्री ब्रजलाल म.सा. बहुश्रुत युवाचार्य श्री मिश्रीमल म.सा. 'मधुकर' एवं वहां उपस्थित हज़ारों नर-नारियों की साक्षी में दीक्षा व्रत प्रदान कर आपको महासती श्री कानकुंवरजी म.सा. के नाम से परम विदुषी महासती श्री सरदार कुवंरजी म.सा. की शिष्या के रूप में घोषित किया। दीक्षाव्रत अंगीकार करने के पश्चात् महासती श्रीकान कुवरंजी म.सा. अपनी गुरुणीजी के साथ ग्राम-ग्राम, नगर-नगर विचरण कर जैनधर्म के प्रचार प्रसार में लग गए।
सेवाभावना :- आप में सेवा भावना के गुण कूट कूट कर भरे हुए थे। आपकी सेवाभावना in .... इस बात से चलता है कि महासती श्री तुलछाजी म.सा. कुचेरा में बारह वर्ष तक स्थिरवास में विराजमान रहीं। इस अवधि में आपने उनकी तन मन से सेवा की। महासती श्री पान कुवंरजी म.सा. को केंसर हो गया था। तब ब्यावर में दोचातुर्मास में आपने उनकी समर्पण भाव से सेवा की। आपकी यह सेवाभावना ब्यावर में श्रावकों को आज भी याद है। महासती श्रीजमनाजी म.सा. संग्रहणी नामक रोग से ग्रस्त हो गये थे। उस समय आपने हर्ष पूर्वक अम्लान मन से उनकी सेवा की। आपकी यह सेवाभावना अपनों से ज्येष्ठ साध्वियों तक ही सीमित नहीं थी, वरन् छोटी साध्वियों तक की निःसंकोच भाव से आप सेवा करने के लिये तत्पर रहते थे। वद्धावस्था में भी आप अपनी शिष्याओं की आवश्यकतानसार प्रसन्नतापर्वक सेवा करने के लिए तत्पर रहते थे। यदि कोई छोटी महासतीजी आपसे ऐसा न करने के लिये निवेदन भी करती तो आप स्नेह पूर्वक उन्हें समझा दिया करते थे। सेवा क्या है और कैसे की जाती हैं? यह आपसे सहज ही सीखा जा सकता था।
आपकी प्रथम शिष्या स्व. पंडिता परमविदुषी महासती श्री चम्पाकुवंरजी म.सा. विलक्षण बुद्धि की स्वामिनी थी। वे ज्ञान-ध्यान में रत रहती थी और मौन साधना भी करती थी। इसलिये आप उनकी सेवा करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। आपकी द्वितीय शिष्या महासती श्री बसंत कुवंरजी म.सा. वेदनीय कार्यों के उदय से बहुत दुःखी रही। यह बात ब्यावर की है। उस समय आपने इनकी सेवा अपनी पुत्री के समान की। इस प्रकार आपकी सेवा भावना उच्च कोटि की थी। स्वावलम्बी :
गुरुणीजी म.सा. स्वावलम्बी थी। आप अपना समस्त कार्य अपने हाथों से ही किया करती थीं। अस्सी. वर्ष की आयु में भी आप अपना कार्य स्वंय ही करती थी। यदि हम में से कोई आपका कार्य करने लगती तो आप स्पष्ट रूप से मना कर दिया करती थी। आपका कहना था कि जब तक हाथ पांव चल रहे हैं तब तक अपना कार्य स्वयं करना चाहिये। इस वय में भी आप अपना कार्य जैसे सिलाई, पातरा रंगना, पातरा धोना आदि स्वयं ही करती थी। आप अपना यह सब कार्य अपने रोगों को भूल कर किया करती थी।
- इसके अतिरिक्त आपकी सेवा भावना की एक और बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि आप बिना किसी भेदभाव के सेवा करती थी। सेवा करते समय आपके मन में यह भावना नहीं रहती थी कि यह साध्वी अपने समुदाय की है अथवा अन्य समुदाय या सम्प्रदाय की है। साध्वी चाहे स्थानकवासी हो चाहे मंदिरमार्गी हो या तेरापंथी हो। यदि वे आपसे केश लोच करने के लिये कहते तो. आप तत्काल दे देती और केश लोच कर दिया करती। वे कहा करती थी कि केश लोच का कार्य लाभ का कार्य है।
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