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विनयशीलता- आपकी विनम्रता मझे अभी तक स्मरण है। जब वर्ष वि. सं. २०३४ का चातमा पूर्ण कर आप रतलाम पधारे, उस समय उपाध्याय श्री कस्तूरचंद जी म.सा. अपनी शिष्य मंडली सहित वहां विराजमान थे। गुरुवर्या प्रवचन और सेवा में प्रतिदिन जाते थे। गुरुवर्या वहां उपस्थित सभी मुनिवरों को एक ही समान वंदना करती थी। और सेवा कार्य के लिये पूछती थी। उस समय वहां और भी महासतियाँ जी पू. उपाध्याय श्री जी की सेवा में विराज रही थी। आपकी विनम्रता और सेवा भावना को देखकर पू. उपाध्याय श्री जी ने अपनी मधुरवाणी में कहा था कि जितनी विनम्रता, सेवाभावना, सरलता मारवाड़ की सतियों में देखी उतनी अन्य में नहीं।
सेवा भावना- आपकी सेवा भावना अद्वितीय थी। सेवा के क्षेत्र में आपका योगदान पारिवारिक साध्वी वृन्द के अतिरिक्त अन्य साध्वियों के लिए भी उसी अपनत्व की भावना के साथ रहता था। किसी भी प्रकार के रोग से ग्रसित साध्वी के प्रति आपके मुख मंडल पर कभी भी घृणा या उपेक्षा के भाव देखने को नहीं मिला। आप पूरे तन मन से रुग्ण साध्वियों की सेवा करते थे। आप अपनी जन्म और दीक्षा भूमि में स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी की माता महासती श्री तुलछा जी म. सा. की सेवा में चौदह वर्ष तक रही। महासती श्री तुलछा जी रोगग्रस्त थी और एक लम्बे समय तक उनकी सेवा में रहकर सेवाधर्म का निर्वाह किया। इस अवधि में आपने न तो महासती जी की उपेक्षा ही की और न आपने उकताहट का ही अनुभव किया। सदैव समभाव से सेवा करते रहे। मैंने स्वयं देखा है कि अपनी छोटी सतियां जी के अस्वस्थ होने पर आप तत्काल उनकी सेवा में जुट जाया करते थे। आपकी यह सेवा भावना अन्यों के लिये प्रेरणा स्त्रोत हैं।
करुणा भावना- करुणा का स्त्रोत तो आपके हृदय में सदा ही प्रवाहित होता रहता था। एक बार पाली से विहार कर काली घाटी आये। वहां रात्रि विश्राम कर प्रातः वहां से विहार कर रेलवे स्टेशन पहुँचे । वहां श्री भंवरलालजी जैन के मकान में रूक गये। रात्रि में एक असामाजिक व्यक्ति गुरुवर्या के पास आकर बैठ गया। गुरुवर्या ने उससे पूछा- “तुम कौन हो? यहां कैसे आना हुआ?" वह व्यक्ति कुछ बोला नहीं। चुपचाप वहीं बैठा रहा। उसका इरादा कुछ कुत्सित लग रहा था। वह वहीं बैठा रहा। गुरुवर्या ने अपनी मधुरवाणी में पुनः पूछा “भाई ! तू कौन है? कहां से आया है ?” इस पर भी उसने कोई उत्तर नहीं दिया
और वहीं बैठा रहा। उस समय मकान के बरामदे में मकान मालिक श्री भवरलाल जी बेठे हुए थे। वे सब वार्तालाप सुन रहे थे। वे वहां आये और उस व्यक्ति को पकड़ कर बाहर ले गये। उनका क्रोध भड़क उठा था। उन्होंने उस व्यक्ति को पीटना आरम्भ कर दिया और कुछ कहते भी जा रहे थे। ये आवाजें गुरुवर्या ने सुनी। गुरुवर्या ने द्वार पर आकर सब कुछ अपनी आंखों से देखा। कुछ अन्य श्रावक भी वहां आ गये। देवगढ़ के श्रावक को सूचना दी गई कि तुम पुलिस लेकर पहुंचो। श्रावक पुलिस लेकर भी आ गये। उस व्यक्ति के साथ काफी मारपीट की गई। फिर गुरुवर्या से चर्चा की गई। पुलिस उस व्यक्ति को पकड़ कर थाने में ले गई। दूसरे दिन गुरुवर्या देवगढ़ पहुंच गये। उन्होंने थानेदार को बुलवाकर कहा कि उस व्यक्ति के साथ मारपीट न करें और उसे छोड़ दिया जावे। थानेदार ने कहा कि एक बदमाश पर आप दया न करें। किन्तु गुरुवर्या तो पर-दुःख कातर थी। उन्होंने करुणा कर उस व्यक्ति को मुक्त करवा दिया। .
स्वाध्याय प्रेमी- मैं जब भी आपके दर्शन करने गई उन्हें स्वाध्याय करते पाया। आपके सम्मुख बैठ कर आपकी मधुर वाणी सुनने में अनुपम आनंद की प्राप्ति होती । जब कभी आपकी सेवा में रात्रि विश्राम करने का अवसर आया और रात्रि में जागती तो देखती कि गुरुवर्या स्वाध्याय, ध्यान, माला में तल्लीन हैं।
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