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आगम निष्णात महासती श्री चौथांजी महाराज द्वारा प्रतिबोधित स्वामीजी श्री जोरावरमल जी म.सा./ पूज्य श्री कानमलजी म.सा. श्री स्वामी जी श्री हजारीमल जी म.सा. जिन्होंने जिन शासन का प्रखर उद्योत किया । पूज्य महासतीजी आगमों के गूढ़ रहस्यों की इतनी मर्मज्ञा थी कि न केवल अनेकानेक साध्वियों को वरन् अनेक साधुओं को भी उन्होंने आगमों का अध्ययन कराया। आपके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता थी दोनों हाथों एवं दोनों पैरों से बराबर एक सी लिखाई करना। ऐसी महान गुरुवर्या के सान्निध्य में नवदीक्षिता आर्या श्री सरदारकुंवरजी म.सा. ने आगमों का गहन अध्ययन किया। एक दिन में ८०-९० आगम की गाथाएं कंठस्थ कर लेते थे। शास्त्रानुशीलन मानों उनका व्यसन था। जिसके बिना वह रह ही नहीं सकती थी। वे हलुकर्मा थी । उनकी वृत्ति पाप भीरूतामय थी । वास्तव में आपका जीवन धार्मिक जगत् के लिये आदर्श था। उनकी स्मरण शक्ति को फोटो ग्राफिक मेमोरी की संज्ञा दी जा सकती हैं।
दीक्षा के थोड़े समय पश्चात् ही जब उनकी आयु कुल १८ वर्ष की ही थी । कि अपने गुरुवर्या श्री एवं अग्रज दो गुरु बहिनों का वियोग सहना पड़ा। घटना इस प्रकार बनी- पूज्य महासतीजी श्री चौथांजी म.सा. आदि जब तिंवरी में विराजित थे, तब आहार करते समय श्री चुना जी म.सा. की आंखों से खून के अश्रु टपकने लगे। उन्होंने तत्काल संथारा कर लिया, कुछ समय बाद ही समाधि मरण के साथ देह त्याग दी। वहां से पूज्य महासतीजी श्री चौथां जी म.सा. ने अपनी शिष्याओं के साथ जोधपुर के लिये विहार किया। रास्ते में जब किसी गांव में ठहरे हुए थे, तब अचानक महासती श्री कस्तूराजी म.सा. ने पिछली रात्रि में बहुत ऊंचे स्वर में भगवान् सुपार्श्वनाथ का जाप करना प्रारंभ कर दिया और तब तक जाप करते रहे जब तक कि उनकी आत्मा ने शरीर नहीं छोड़ा। इस प्रकार महासतीजी श्री चौथांजी म.सा. को अपनी शिष्याओं का वियोग सहना पड़ा।
इससे पूर्व कि जब आप महासती मगनकुंवरजी म.सा. आदि अन्य साध्वियों के साथ विहार करते हुए दौराई पहुंची तो किसी अनाम व्याधि के कारण उनको चक्कर आ गए और वह स्वयं नियंत्रित न रह सके, परिणामतः वहां गिरते ही अचेत हो गई । अनन्य प्रयासों के बाद भी उनकी चेतना नहीं लौटी और उनकी मूर्च्छा चिर निद्रा में विलीन हो गई। इस प्रघटना से महासतीजी श्री चौथां जी म.सा. खिन्न हो गई तभी छ: पीढ़ी पूर्व में हुए पूज्य चम्पाजी म. आपके मानस पटल पर उभरे और कहा- “चौथां जी! अश्रु पोंछ लों, जिस मिट्टी में तुमने हीरा खोया है, वहां से रत्न प्राप्त होगा ( समय इस कथन का साक्षी है कि पूज्या गुरुवर्या श्री उमरावकुंवरजी म.सा. के रूप में जो रत्न जिन माला की शोभा बढ़ा रहा है। आपकी कान्ति किसी ज्योतिर्मय नक्षत्र से कम नहीं हैं )
इस प्रकार विहार करते हुए महासतीजी म.सा. एवं गुरु बहिन महासतीजी श्री सोनकुंवरजी म.सा. आदि ठाणा - ३ से महामन्दिर पधारे। वहां कुछ दिन विराजकर किशनगढ़ की तरफ विहार किया उस वक्त एक बहिन ने कहा आप कुछ दिन और रूक जाइये मेरी दीक्षा की भावना है।" वह भी देवाधिन थी, बहुत मना किया किं अभी विहार मत करिये, किन्तु महासतीजी भी अपने दृढ निश्चय के अनुसार रूके नहीं और विहार कर दिया, लेकिन उसी दिन से महासतीजी के पेट में दर्द शुरू हो गया और अंतिम सांस तक बना रहा। यह कष्ट उनको बराबर बारह महीनों तक रहा। किन्तु समभाव अंतिम सांस तक सहते हुए समाधि मरण को प्राप्त हुए। पूज्य सरदार कुंवरजी म.सा. को असह्य आघात लगा क्योंकि इससे पूर्व आपकी दो गुरु बहिनों श्री चुनाजी म. एवं श्री कस्तूरांजी म. का छः महीनें के अंतराल में निधन हो गया था ।
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