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लिये आदर्श उपस्थित करता हैं किंतु पद लोलुप व्यक्तियों के लिये विशेष शिक्षाप्रदान करता हैं। वे भी न महापुरुष का अनुसरण करे और पद के पीछे न भाग कर अपनी साधना में लीन बने रहे।.
आपके पद त्यागने से श्रमण संघ के संगठन को शक्ति मिली और श्रमण संघ की एकता और संगठन के प्रयास और तेज हो गये और अंततः वि.सं. २००९ ये प्रयत्न फलीभूत हुए ।
आघात:- वैसे अध्ययन / ज्ञानार्जन कभी समाप्त नहीं होता किंतु बहुधा यही कहा जाता है कि अध्ययन के पश्चात आपने यह किया... आदि आदि । तो मुनि श्री मिश्रीमल जी म.सा. ने भी अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् लेखन की ओर अपने कदम बढ़ाये। जैन आगमों के प्रति आरंभ से ही आपके मन में विशेष आकर्षण था । आप सरल भाषा और बौधगम्य शैली में आगय साहित्य जन जन तक पहुंचाने की भावना रखते थे। इस दिशा में आपने कुछ लेखन कर अपना प्रयास प्रारंभ भी किया। पाठकों से आपको भरपूर सराहना भी मिली।
आपकी साहित्यिक यात्रा का अभी प्रारंभ ही हुआ था कि आपके जीवन निर्माता गुरुभ्राता स्वामी श्री हजारीमल जी म.सा. का चैत्र कृष्णा १०, वि.सं. २०१८ में समाधिपूर्वक देहावसान हो गया । गुरुभ्राता के देहावसान से आपके अंतर्मन को गहरा आघात लया । गुरुभ्राता के न रहने से आप पर समाज के उत्तरदायित्व का भार आ गया, जिसे आपने कुशलता पूर्व निभाया।
स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन:- मुनि श्री मिश्रीमल जी म.सा. के साहित्यिक व्यक्तित्व निर्माण में स्वामी श्री हजारीमल जी म.सा. का योगदान विस्मृत नहीं किया जा सकता। जब स्वामी जी का निधन हो गया, तो आपश्री ने उनकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने की दिशा में प्रयास प्रारंभ किया। इस दिशा में आपने सर्वप्रथम मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन करवाया। इस स्मृति ग्रंथ में अनेक शोध निबंध उच्चकोटि की गवेषणात्मक सामग्री आदि संग्रहीत है। यह ग्रंथ बेजोड़ है एक ऐतिहासिक योगदान हैं।
वि.सं. २०२२, ईस्वी सन् १९६५ अप्रैल माह में आपकी प्रेरणा से अपने गुरुभ्राता की स्मृति में मुनिश्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन नामक संस्था की स्थापना हुई। इस संस्था के माध्यम से साहित्य प्रकाशित करवाकर जन जन तक पहुंचाने का कार्य आज भी अबाधगति से चल रहा हैं ।
आज इस संस्था के माध्यम से सैकड़ों पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है तथा आगे भी होता रहेगा ऐसा विश्वास हैं।
आगम प्रकाशन का संकल्प:- जैसा कि पूर्व में ही संकेत दिया जा चुका हैं कि अपने अध्ययन काल में ही मुनिश्री की आगम साहित्य के प्रति अत्यन्त श्रद्धा थी और जब कभी भी वे अपने प्रवचन में आगम-अंश का उद्वरण प्रस्तुत करते तो अपनी विशिष्ट विवेचनात्मक शैली अपनाते थे। उनके द्वारा दिया गया अर्थ बोधगम्य होता था । श्रोता उसे आत्मसात कर लेता था। इसी अनुक्रम में मुनिश्री के मानस पटल पर ये विचार उत्पन्न हुए कि आगम-साहित्य, विशेषकर आगम बत्तीसी का हिन्दी भाषा में सरल सुबोध विवेचन कर जनहित में प्रकाशन करवाया जावें ।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि मुनिश्री के गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी म.सा. आगमों के गंभीर ज्ञाता और व्याख्याता थे। उनके मन में भी ऐसी ही भावना थी कि आगमों का सुबोध भाषा शैली में प्रकाशन होना चाहिए। ऐसा होने से समाज आगम ज्ञान से वंचित नहीं
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