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आप अत्यन्त मेधावी एवं विनयी थे। पहले होनहार विद्यार्थी के रूप में और फिर व्यवहार-पटु युवक के रूप में आपकी प्रशंसा सभी करने लगे। आप जब सतरह वर्ष के हुए तब आपकी प्रतिभा से प्रभावित सोजत के बड़े सेठ कुन्दनमल जी ने अपनी सुपुत्री रत्नकुंवर की सगाई आपके साथ कर दी।
एक दिन आपके एक अत्यन्त प्रिय मित्र का आकस्मिक निधन हो गया। आप अत्यन्त शोकाकुल हो विचार करने लगे-जीवन के इस आकस्मिक अंत को कैसे रोका जाए? आपकी चिन्तनधारा ही बदल गई। अब आप अमरत्व की प्राप्ति का उपाय पूछते हुए फिरने लगे। एक दिन किसी मित्र ने मजाक में कह दिया कि यदि तुम चामुण्डा के मंदिर में सिर काटकर चढ़ा दोगे तो अमर हो जाओगे।
बस आपके हृदय में यह बात बैठ गई। आप चामुण्डा माता के मंदिर में शीश चढ़ाने के लिए तैयार हुए। उनके पिता, माता, स्वजन, परिजन, बंधु-बांधव सभी ने सुना तो कई तरह से उन्हें समझाया, पर वे नहीं माने। कई लोग उनके साथ हो गए, तमाशा देखने के लिए।
यह एक संयोग ही था कि उसी समय पूज्य भूधर जी महाराज उस रास्ते से निकले। उन्हें देख संस्कारवश रघनाथमल वंदन करने के लिये आगे बढ़ा। पज्य भधर जी को जब घटना-चक्र का विवरण मिला तो आपने उन्हें अमरत्व-उपलब्धि का वास्तविक मार्ग समझाया। विस्तार से शरीर और आत्मा के भेद को समझाते हुए उन्हें धर्म के मर्म का ज्ञान दिया। आचार्य भूधर जी का आप पर गहरा प्रभाव पड़ा। देवी-मंदिर में बलिदान का भूत उतर गया। तीन दिन तक आप अपनी शंकाओं का समाधान आचार्य श्री से पाते रहे। आचार्य श्री भूधर जी ने उन्हें आत्मा, परमात्मा, जीव, अजीव, संवर, निर्जरा, कर्म, बंध तथा मोक्ष के विषय में विस्तृत ज्ञान दिया। अमरत्व अर्थात् मोक्ष-प्राप्ति के उपायों का भी सविस्तार वर्णन किया। अनेक अन्य दार्शनिक विषयों पर चर्चा हुई। अब रघुनाथ जी का मन आश्वस्त हुआ तो विरक्त भी हो गया। उन्होंने दीक्षा लेने का संकल्प कर लिया।
माता-पिता ने,श्वसुराल-पक्ष ने तथा उनकी वाग्दत्ता भावी पत्नी रत्नकुंवर ने भांति-भांति से उन्हें समझाया, उनके मन को संसार-आसक्ति की ओर मोड़ना चाहा पर वे दृढ़ रहे। चार वर्ष तक आपकी दीक्षा नहीं हो सकी। ये चार वर्ष उन्होंने धार्मिक ग्रंथों, शास्त्रों के पठन-पाठन में व्यतीत किए। अपने पिता के स्वर्गारोहण उपरांत संवत् १७८७ की ज्येष्ठ कृष्णा द्वितीया, बुधवार के दिन जोधपुर में आपकी समारोहपूर्वक दीक्षा हुई। १०
दीक्षा लेते समय आपने अपनी संसार-पक्ष की वाग्दत्ता रत्नकुंवर को कहलवा दिया था कि अब उनका संबंद्ध (सगाई) छूट चुका हैं अत: उसका विवाह किसी अन्य जगह किया जा सकता है पर रत्नकुंवर ने इस संबंध में अपने माता-पिता एवं अन्य स्वजनों को स्पष्ट कर दिया कि वह अब अन्य किसी पुरुष से विवाह नहीं करेगी। रघुनाथ जी की दीक्षा के एक वर्ष बाद पूज्य श्री का चातुर्मास सोजत हुआ। इसी चातुर्मास में मुनि श्री रघुनाथ जी से प्रतिबोध पाकर रत्नकुंवर ने भी संयम का पथ स्वीकार किया, उनके साथ ग्यारह अन्य सन्नारियों ने भी दीक्षा-व्रत अंगीकार किया।
१०. कुछ विद्वज्जन मानते है कि उनकी दीक्षा जोधपुर राज्य के तत्कालीन दीवान खींवसी जी भण्डारी के प्रयत्नों
से हुई थी और तब रघुनाथ जी के पिता विद्यामान थे।
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