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स्थानकवासी जैन आचार्य - परम्परा (जय गच्छ के
परिप्रेक्ष्य में)
धर्मवीर लोंकाशाह
पन्द्रहवीं शताब्दी का समय जैन धर्म के इतिहास में अत्यन्त उथल-पुथल पूर्ण रहा। इस समय तक संयम में शिथिलाचार व्याप्त हो चुका था । धर्म-ग्रन्थ (शास्त्र) भण्डारों में बन्द कर दिए गए थे और गृहस्थ के लिए शास्त्र - पठन निषिद्ध था। अतः शास्त्र सम्मत साध्वाचार की जानकारी का अभाव - सा हो गया था। यतियों ने अपने आपको सुविधा भोगी बना लिया था और साधारण जैन-जन में यह बात प्रचारित कर दी गई थी कि भगवान महावीर के कथनानुसार इस समय (पंचम आरे में ) शुद्ध संयम न तो हैं और न होगा। यह संयोग ही था कि लोंकाशाह को आगम ग्रंथो की प्रतिलिपियां उतारने का का कार्य मिला, जिससे उन्हें मालूम हुआ कि साधुओं में कितना शिथिलाचार व्याप्त हैं ? वास्तविक साध्वाचार का उन्हें बोध हुआ और उन्होने शिथिलता के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजा दिया ।
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क्रांतिकारी वीर लोकाशाह के जीवन-वृत्त संबंधी साम्रगी पर इतिहासकार एकमत नहीं हैं। इनका जन्म सिरोही से आठ मिल दूर अणहट्टवाड़ा में वि.सं. १४७२ (कहीं-कहीं वि.सं. १४८२ का भी उल्लेख मिलता हैं ।) की कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ | आपके पिता हेमाशाह दफ्तरी मेहता थे तथा माता का नाम केसरबाई था। बचपन में अपनी स्मरण शक्ति, विवेचन-शक्ति तथा मोती के समान सुन्दराक्षरों के लिए आप अपने अध्यापकों के अत्यन्त प्रिय रहे। युवा हुए तो अपने मधुर व्यवहार से व्यापार में भी आपने वृद्धि की तथा व्यापारियों में लोकप्रिय बने । सिरोही के श्री ओधवजी शाह की सुपुत्री सुदर्शना से आपका गठबंधन हुआ । पूर्णचंद नामक पुत्र रत्न हुआ। थोड़े समय पश्चात् ही पहले आपकी मातुश्री फिर पिताश्री काल कवलित हुए।
डॉ. तेजसिंह गौड़
सिरोही राज्य की राज्य-व्यवस्था बिगड़ने एवं वहां अकाल पड़ जाने पर आप अहमदाबाद चले आये । अहमदाबाद में जौहरी का व्यवसाय अपनाया एवं ख्याति प्राप्त की। एक ही समान रूप, रंग वर्ण के दो मोती अहमदाबाद के बादशाह मुहम्मदशाह के दरबार में आए। पहचान के लिए आप भी गए। सभी जौहरियों ने देख-परख कर दोनों को खरा बताया पर आपने उसमें से एक को खरा व एक को नकली (खोटा) बताया। परीक्षा करने पर आपकी बात सही निकली तब से आपकी विशेष प्रसिद्धि हुई एवं आप दरबारी जौहरी बन गए।
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कहीं "अरहटट्वाड़ा” का उल्लेख भी मिलता है।
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