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उन्हीं दिनों चांपानेर के रावलराजा ने मुहम्मदशाह पर आक्रमण किया। मुहम्मदशाह के पुत्र कुतुबशाह ने अवसर देखकर अपने पिता को जहर खिलाकर मरवा दिया। इसमें लोकाशाह के हृदय पर गहरा आघात लगा। संसार के प्रति उनमें उदासीनता आ गई और वे अहमदाबाद छोड़ पाटण चले आए। यहां वे अपना समय यतियों एवं साधुओं के साथ बिताने लगे। उन्हें जिज्ञासु देखकर पाटण के यति सुमति विजय जी ने धर्म के संबंध में बहुत-सी बातें बतानी प्रारंभ की। यति ज्ञानसुन्दर जी ने उनके अक्षरों की मन मुग्धकारी बनावट देखकर उन्हें दशवकालिक सूत्र की नकल करने का कार्य सुपुर्द किया। वे नकल करने लगे। जैसे-जैसे उन्होंने सूत्र को पढ़ा उन्हें लगा कि वीर प्रभु की आज्ञा कुछ और है जबकि इस समय प्रचलित यति व श्रमण-जीवन कुछ और ही हैं। आवश्यकता थी सूत्र-प्रमाण की; सूत्र-शास्त्र सब यतियों के भण्डारों में पड़े थे।
उन्होंने दशवकालिक सूत्र की दो प्रतियाँ नकल की। उसके बाद भी जो-जो सूत्र उन्हें प्रतिलिपि हेतु दिए गए, उनकी दो-दो प्रतियां तैयार कर, एक-एक प्रति अपने पास रखी। बहुत मनन-मंथन के बाद उन्होंने यह तय किया कि आज को कुछ जैनधर्म के नाम पर हो रहा है, उसमें पाखण्ड, ढ़ोंग एवं आडम्बर ने घर कर लिया हैं। धर्म के नाम पर अधर्म का सेवन किया जा रहा हैं। उन्होंने उसका विरोध प्रारंभ कर दिया और अपने प्रचार के आधार में आगम-वाक्यों का प्रमाण देने लगे-“अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रहचर्य एवं अपरिग्रह रूप पंच महाव्रतों का पालन ही मुनिधर्म है। जड़-साधना एवं शिथिलाचार का धर्म में कोई स्थान नहीं हैं। अज्ञानी जीवों का अन्ध श्रद्धा के साथ खिलवाड़ करना धर्म नहीं हैं। आज के जो मतिहीन-मूढ़ मुनिवेषधारी होकर लोकारुढ़ बन हिंसा में धर्म बताते हैं, उनसे हमें बचना हैं।"
__ लोकाशाह के शास्त्र-सम्मत जिनधर्म के प्रचार-प्रसार का लोगों पर यथोचित प्रभाव पड़ा। उनके समर्थक बढ़ते गए। यति-समुदाय में खलबली मची। उन्होंने लोंकाशाह के विरुद्ध अनर्गल प्रचार प्रारंभ कर दिया किन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। यति ज्ञानसुन्दर जी को ज्ञात हुआ तो उन्होंने आगम की प्रतियां बनवाना बंद कर दिया पर तब तक लोंकाशाह आगम रहस्य जान चुके थे। अहमदाबाद एवं पारण दोनों स्थानों पर लोंकाशाह ने सत्य-आगम-धर्मप्रसार का कार्य बढ़ाया। अनेक दिग्गज यतियों, विद्वान-श्रावकों एवं साधुओं से वाद-विवाद हुए। सभी लोकाशाह के शास्त्र-सम्मत प्रमाणों एवं तर्कों से अत्यन्त प्रभावित हुए। उनके समर्थक निरन्तर बढ़ते ही गए। संवत् १५२८ में अणहिलपुर (पाटण) संघ के बड़े नेता लखमशी भाई आपको समझाने आए। कई घंटों की जैनधर्म संबंधी अनेक विषयों-पक्षों पर बहस हुई और अन्त में लोकाशाह को समझाने के स्थान पर वे स्वयं लोकाशाह से सत्यधर्म समझ कर, ग्रहण कर चले गए। सम्पूर्ण जैन समाज में इससे खलबली मच गई। __इस घटना के पश्चात् लोंकाशाह ने साधु के समान जीवन बिताना प्रारंभ कर दिया। र उन्हीं दिनों
परहट्टवाड़ा, पाटणा व सूरत के चार संघ यात्रा को निकले। वर्षा की अधिकता से उन्हें अहमदाबाद रुकना पड़ा। यहां रहकर उन्होंने लोकाशाह से धर्म-चर्चा की एवं विचारों का आदान-प्रदान किया। चारों संघों के संघपतियों-नाग जी, दलीचंद जी, मोतीचंद जी और शंभुजी तथा उनके अन्य अनेक साथियों पर लोकाशाह के विचारों का ऐसा प्रभाव कायम हुआ कि इन चारों संघपतियों सहित कुल ४५
कुछेक विद्वानों के अनुसार साधु बन गए थे, ऐसा उल्लेख मिलता है पर यह किसी भी तरह से प्रमाणित नहीं हो पाता।
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