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'बिखरे शूल हरो'
• ताराचंद लोढ़ा 'आनंद'
कानकुंवर जी महासती की महिमा बड़ी निराली हैं। चम्पा के सुमनों से सुरभित, फूली क्यारी-क्यारी हैं।
धीर वीर गंभीर ज्ञान गुण, जो आये मन मोह लिया।
जन मन में नवदीप जलाकर, प्रभु चरण से जोड़ दिया। स्वाध्याय से शोधन कर, नवनीत निकाला करते थे। विष का विष धो अमृत रस से, कुम्भ कलश को भरते थे।
घर से नाता तोड़ जगत से, अपना नाता जोड़ लिया।
स्व- पर की कल्याण कामना, सृष्टि से मन मोड़ दिया। गांव-गांव और नगर-नगर में जाकर अलख जगाते थे। उजड़े उपवन के माली बन, पौधे नये लगाते थे।
जहां गये जिस ओर गये तो सारा उपवन महक उठा।
मुरझाई कलियाँ मुस्काई, घर घर आंगन चहक उठा। राजस्थान ने जन्म दिया और दक्षिण की माटी सोये। शासन के अनमोल रत्न को, अपने ही घर में खोये॥
रे क्रूर काल क्या कभी किसी पर, रहम नहीं तुझको आता।
तीर्थंकर चक्री भी कोई तुझसे कभी ना बच पाता। तुझको क्या मिल गया बोल यों साध्वी द्वय हर जाने से। रोता बिलखता हमें छोड़कर, वरदहस्त ले जाने से॥
__ 'आनन्द' श्रद्धा भाव पुण्य उन चरणों में अर्पण करता।
चरण शरण की सेवा पाऊं, यही भाव मन में धरता॥ वसंत, कंचन, चेतन, चन्द्रा, अक्षय सुमन सुवास भरो। फूल फूल बरसाओ पथ पर, बिखरे सारे शूल हरो॥
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