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[ २५ ] 'क्षण भर के लिए पार्वती की सघन वरौनियों पर ठहरे हुए, उसके ओठ पर गिरकर बाद में उन्नत पयोधर पर गिरने से चूर्ण विचर्ण प्रथम वर्षाविंदु उसके त्रिवलि पर लुढक कर बहुत देर में नाकर नाभि में पहुँच गये।'
इस पद में कवि ने वर्षाविंदुओं की गति के द्वारा एक ओर पार्वती के तत्तदंगों की सुन्दरताबरौनियों की सघनता, अधर की कोमलता, पयोधर की कठिनता, त्रिवलि की तरंगमयता तथा नाभि की गम्भीरता-की व्यंजना कराई है, दूसरी ओर प्रथम वृष्टि के समय भी पार्वती की समाधि निश्चल बनी रहती है, इसकी भी व्यंजना कराई है। यहाँ व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ से उत्कृष्ट होने के कारण ध्वनि काव्य है। ध्वनि काव्य का एक अन्य उदाहरण 'निःशेषाच्युतचंदनं' आदि प्रसिद्ध पप दिया गया है, जिसकी व्याख्या करते समय दीक्षित ने इस तरह विवेचना की है कि अलंकार ग्रन्थों में एक विवाद खड़ा हो गया है। दीक्षित ने जिस ढंग से इस पच की व्याख्या की है उस ढंग से व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ का उपस्कारक बन बैठता है तथा उक्त पथ में ध्वनि काव्य न रहकर गुणीभूतव्यंग्य हो जाता है। पंडितराज ने दीक्षित की इस व्याख्या का खण्डन किया है तथा उक्त पद्य की यथोचित व्याख्या की है। ( इसके लिए दे० चित्र० पृ० ३. तथा रसगंगाधर पृ० १५-१९)।
गुणीभूत व्यंग्य काव्य वहाँ होता है, जहां व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ से उत्कृष्ट नहीं होता । (यत्र म्यंग्यं वाग्यानतिशायि तद्गुणीभूतम्यंग्यम् ।-चित्र० पृ० ४) इसके दो उदाहरण दिये गये हैं। एक उदाहरण यह है :
प्रहरविरतौ मध्ये वाहस्ततोऽपि परेऽथवा
किमुत सकले याते वाति प्रिय स्वमिहैष्यसि । इति दिनशतप्राप्यं देशं प्रियस्य यियासतो
हरति गमनं बालालापैः सबाष्पगलज्जलैः॥ 'हे प्रिय तुम एक पहर बाद लौट आवोगे ना ? मध्याह में तो आ जावोगे ना ? अपराह में तो अवश्य.आ ही जावोगे ना ? अथवा शाम तक सूर्य के छिपने तक लौट आवोगे ?-इस तरह के वचनों को कहती प्रिया बहुत दूर ( सैकड़ों दिन में प्राप्य ) देश जाने के लिए उद्यत प्रिय के गमन को आँखों से आंसू गिराती रोक रही है।'
दीक्षित के मतानुसार यहाँ गुणीभूत व्यंग्य काव्य है। इसका व्यंग्यार्थ है-'मैं दिन के बाद प्राणों को नहीं रोक सकूँगी' और वाच्यार्थ है प्रिय गमन का निवारण । उक्त व्यंग्यार्थ यहाँ वाच्यार्थ का उपस्कारक है, अतः यह गुणीभूतव्यंग्य काव्य है । पंडितराज ने दीक्षित की इस व्याख्या का भी खंडन किया है। वे यहाँ ध्वनिकाव्य मानते हैं, क्योंकि इस पत्र में विप्रलंभशृङ्गार रूप असंलक्ष्यक्रम व्यंग्य ध्वनि विद्यमान है, जो उक्त वाच्यार्थ से उत्कृष्ट है। अतः यहाँ मध्यम काव्य मानना दीक्षित की असहृदयता है । पंडितराज का मत विशेष समीचीन है।
तीसरा काव्य चित्रकाव्य है। 'जहाँ अव्यंग्य (किंचित् व्यंग्यार्थ) होते हुए भी वाच्यार्थ सुन्दर हो, वहाँ चित्रकाव्य होता है। (यदव्यंग्यमपि चारु तच्चित्रम् ।-चित्र० पृ०५) इसके तीन प्रकार होते हैं:-१. शब्दचित्र अर्थात् शब्दालंकार प्रधान काव्य, २. अर्थचित्र अर्थात् अर्थालंकार प्रधान काव्य, ३. उभयचित्र अर्थात् शब्दार्थोभयालंकार प्रधान काव्य । दीक्षित ने इन तीनों का एक एक उदाहरण दिया है। दिलमात्र के लिए उमयचित्र काव्य का उदाहरण निम्न है: