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[ २४ ] यत्तु प्राचामप्रस्तुते शक्तिमूलव्यञ्जनवृत्यभिधानम्, तदप्रस्तुतार्थप्रतीतिमूलके यथा 'उदयमारूताः' इत्यादिविशेषणविशिष्टः पृथिवीपतिः स्वल्पर्धिनेर्लोकस्य हृदयं रक्षयति, एवं सथाभूतश्चन्द्रमा मृदुलैः किरणैः, इत्यादिरूपेण प्रतीयमाने उपमाद्यालङ्कारे तदवश्यंभावरूढीकरणाभिप्रायेण । न तु तत्रापि वस्तुतो व्यानन्यापारास्तित्वाभिप्रायेण ।'
(वृत्तिवातिक पृ० १६) ___ अभिया के वाद दीक्षित ने लक्षणाशक्ति पर विचार किया है। सर्वप्रथम दीक्षित ने गौणी लक्षणा से सर्वथा भिन्न शक्ति मानने वाले मीमांसकों का खंडन किया है तथा इस गत की स्थापना की है कि सादृश्य भी एक प्रकार का संबंध होने के कारण गौणी का समावेश लक्षणा में ही हो जाता है। सर्वप्रथम लक्षणा के दो भेद किए गये हैं :-गौणी तथा शुद्धा । इसके बाद रूढिमती तथा प्रयोजनवती ये दो भेद किये गये हैं, जिन्हें दीक्षित ने निरूढलक्षणा तथा फललक्षणा कहा है। कललक्षणा के दीक्षित ने सात भेद माने हैं:-(१) जहल्लक्षणा, (२) अजहल्लक्षणा (३) जहदजहल्लक्षणा, (४) सारोपा, (५) साध्यवसाना, (६) शुद्धा तथा (७) गौणी । जहल्लक्षणा तथा अजहल्लक्षणा को ही मम्मटादि लक्षणलक्षणा तथा उपादानलक्षणा कहते हैं। जहदजहल्लक्षणा का संकेत मम्मटादि में नहीं मिलता। वेदांतियों ने 'तत्त्वमसि' 'सोऽयं देवदत्तः' में इस लक्षणाभेद को माना है, जिसे वे भागलक्षणा भी कहते है। दीक्षित ने वृत्तिवार्तिक में इसके उदाहरण 'ग्रामो दग्धः,' 'पुष्पितं वनम्' दिये है। जब गाँव के किसी हिस्से में भाग लग जाने पर हम कहते हैं 'गाँव जल गया' तो यहाँ जहदजहरुलक्षणा ही है, क्योंकि 'ग्राम' पद के एक अंश का हम ग्रहण करते हैं, एक अंश का त्याग कर देते हैं। इसी तरह बन के कुछ भाग के पुष्पित होने पर 'वन पुष्पित हो गया' कहने में भी यही लक्षणा होगी।
दीक्षित ने बताया है कि गौणी में केवल सारोपा तथा साध्यवसाना ये दो ही भेद होते हैं, जबकि शुद्धा में जहल्लक्षणा, अजहरुलक्षणा, जहदजहल्लक्षणा, सारोपा तथा साध्यवसाना ये पाँच भेद होते हैं। इस तरह लक्षणा के सात भेद होंगे। कुछ लोग गौणी में भी जहल्लक्षणादि भेद मानते हैं। दीक्षित इस मत से सहमत नहीं तथा इस मत का खण्डन करते हैं। (दे० वृत्तिवार्तिक पृ० २२)।
अप्पय दीक्षित और काम्य का वर्गीकरण:-दीक्षित ने मम्मटादि के अनुसार ही काव्य तीन प्रकार का माना है, ध्वनि, गुणीभूतन्यंग तथा चित्रकाव्य । चित्रमीमांसा के प्रस्तावना भाग में दीक्षित ने तीनों प्रकार के काव्यों का अतिसंक्षिप्त उल्लेख किया है। अर्थचित्र का प्रपंच आरम्भ करने के लिए काव्य के इस त्रिविध वर्गीकरण का संकेत कर देना आवश्यक हो जाता है। इसीलिए प्रसंगवश दीक्षित ध्वनि तथा गुणीभूत व्यंग का भी कुछ संकेत कर देते हैं । इस संबंध में दीक्षित की निजी मान्यताएं कुछ नहीं जान पड़तों वे प्राचीन ध्वनिवादी आचार्यों का ही अनुसरण करते हैं। _दीक्षित ने ध्वनिकाव्य वहाँ माना है, जहाँ काव्यवाक्यं का व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ से उत्कृष्ट हो। (बत्र वाण्याविशायि म्यंग्यं स ध्वनि:-चित्र० पृ० १) इसके तीन उदाहरण दिये गये हैं, जिनमें दिमात्र उदाहरण यह है :
स्थितपणं पच्मसु ताडिताधराः पयोधरोसेपनिपातचूर्णिताः । बली तस्याः स्खलिता प्रपेदिरे चिरेण नामि प्रथमोदविंदवः ॥