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[ २२ ] वह अमिधा व्यापार है, तो फिर वह व्यापार ज्ञात होने पर ही वाच्यार्थ की प्रतीति कराने में समर्थ होगा। इसीलिए पंडितराज अभिधा की परिभाषा में इस बात का संकेत कर देना आवश्यक समझते हैं कि वह अर्थ का शब्द के साथ, तथा शब्द का अर्थ के साथ स्थापित संबंधविशेष है। इस संबंध को शक्ति भी कहा जाता है। शक्त्याख्योऽर्थस्य शब्दगतः, शब्दस्यार्थगतो वा संबंधविशेषोऽभिधा । (रसगंगाधर पृ०१७६) ___ अभिधाशक्ति को तीन तरह का माना है :-रूढि, योग तथा योगरूढि । रूढि वहाँ होती है, जहाँ कोई शम्द अखण्ड शक्ति के द्वारा ही किसी अर्थ की प्रतीति कराये।' भाव यह है, जहाँ समस्त शब्द की अखण्ड शक्ति उस शब्द के अवयवों के अलग-अलग अर्थ का बोधन कराये बिना ही अखण्डार्थ प्रतीति कराती हो, वहां रूढि ( अभिधा) होती है। अभिधा का दूसरा प्रकार योग है । जहाँ कोई पद केवल अवयवशक्ति के ही द्वारा समस्त पद के एक अर्थ की प्रतीति कराये, वहाँ योग अभिधा होती है। तीसरा प्रकार योगरूढि है। यहाँ पद की अवयवशक्ति तथा समुदाय. शक्ति दोनों की अपेक्षा होती है तथा उनकी सम्मिलित शक्ति से पद के अर्थ की प्रतिपत्ति होती है।' अप्पय दीक्षित ने इन तीनों प्रकारों के अनेक उदाहरण देकर इन्हें स्पष्ट किया है। इसी संबंध में दीक्षित ने बताया है कि कभी-कभी किसी योगरूढ पद का प्रयोग होने पर भी उसकी शक्ति अवयवार्थ ही में नियन्त्रित हो जाती है, तब उक्त अर्थ की प्रतीति कराने के लिए पुनः समुदायार्थवाचक रूढ पद का प्रयोग करना पड़ता है। जैसे 'कयां हरस्यापि पिनाकपाणेर्यच्युति के मम धन्विनोऽन्ये' इस पद्य में 'पिनाकपाणि' योगरूढपद है, अवयवशक्ति से इसका अर्थ है 'पिनाक को हाथ में धारण करने वाला', समुदायशक्ति से रसका अर्थ है 'शिव'। इस प्रकार यहाँ योगरूढि होने पर भी 'पिनाकपाणि' पद केवल अवयवार्थ की प्रतीति में ही नियंत्रित हो गया है, क्योंकि यहाँ कवि का भाव यह है कि 'पिनाक धनुष बड़ा सामर्थ्यशाली है, ऐसे धनुष को जो व्यक्ति धारण करता है, वह कितना सामर्थ्यशाली होगा'। जब 'पिनाकपाणि' पद इस तरह नियंत्रित हो गया है तो वह 'विशेषण' भर हो गया है, 'विशेष्य' के रूप में 'शिव' की प्रतीति नहीं करा पाता । अतः कवि को पुनः समुदायशक्ति (रूढि) से 'शिव' की प्रतीति कराने वाले 'हरस्य' पद का प्रयोग करना पड़ा है। इस प्रसंग में दीक्षित ने योगरूढ पदों के प्रयोग के विविध उदाहरण देकर अपवाद स्थलों की मीमांसा की है। यहीं दीक्षित ने यह भी बताया है कि 'पङ्कज' पद का 'कमल' अर्थ लेने पर नैयायिक यहाँ लक्षणा शक्ति मानते हैं, क्योंकि 'पंकज' का वाच्यार्थ तो 'कीचड़ में उत्पन्न होने वाला' है,। जिसमें कुमुदिनी आदि भी आ जाते हैं। यह कारण है कि नैयायिक यहाँ रूढि या योग नहीं मानते । दीक्षित यहाँ 'अभिधा' शक्ति ही मानते हैं।
इसके बाद दीक्षित ने 'संयोगादि' अभिधानियामकों का संकेत किया है, जिनके द्वारा अनेकार्थ शब्दों की अभिधा किसी एक अर्थ में नियन्त्रित हो जाती है। इस संबंध में एक महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय प्रश्न उपस्थित होता है। द्वयर्थक पदों का प्रयोग होने पर कभी तो यह स्थिति होती है कि कवि केवल एक ही अर्थ की प्रतीति के लिए उनका प्रयोग करता है, संयोगादि के कारण अमिधा शक्ति केवल उसी अर्थ में नियंत्रित हो जाती है, अतः ऐसी स्थिति में तो दूसरे अर्थ की
१. रसगंगाधर पृ० १७७. २. अखण्डशक्तिमात्रेणैकार्थप्रतिपादकत्वं रूढिः । ( वृत्तिवार्तिक पृ० १, ३. अवयवशक्तिमात्रसापेक्षं पदस्यैकार्थप्रतिपादकत्वं योगः । ( वृत्तिवातिक पृ० २) ४. अवयवसमुदायोमयशक्तिसापेक्षमेकार्थप्रतिपादकत्वं योगरूढिः । ( वही पृ० ३)