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( २ ) वैद्यनाथ तत्सत् कृत टीका है, जो कई बार छप चुकी है।
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अलंकार चन्द्रिका :- यह कुवलयानन्द पर प्रसिद्ध उपलब्ध
(३) अलंकारदीपिका :- इसके रचयिता आशाधर हैं, जिनकी एक अन्य कृति 'त्रिवेणिका ' प्रो० ० बटुकनाथ शर्मा के संपादन में प्रकाशित हो चुकी है। आशाधर की दीपिका टीका कुवलयानन्द के केवल कारिका भाग पर है, आशाधर ने कुवलयानन्द के वृत्तिभाग तथा उदाहरणों की व्याख्या नहीं की है ।
(४,५ ) अलंकारसुधा तथा विषमपदव्याख्यानपट्पदानंद :- ये दोनों टीकायें प्रसिद्ध वैयाकरण नागोबी भट्ट की लिखी हैं, जिन्होंने काव्यप्रकाशप्रदीप, रसगंगाधर, रसमंजरी तथा रसतरंगिणी पर भी टीकायें लिखी हैं। पहली टीका है, दूसरी टीका में कुवलयानन्द के केवल विषम ( जटिल ) पदों का व्याख्यान है । दोनों के उद्धरण स्टेन कोनो के केटलोग में मिलते हैं । प्रायः इन दोनों टीकाओं को एक समझ लिया गया है ।
(६) काव्यमंजरी : - इसके रचयिता न्यायवागीश भट्टाचार्य थे ।
(७) मथुरानाथ कृत कुवलयानन्दटीका ।
(८) कुवलयानन्द टिप्पण :- इसक रचयिता कुरवीराम हैं, जिन्होंने विश्वगुणादर्श तथा दशरूपक की भी टोका की है।
(९) लध्वलंकारचन्द्रिका :- इसके रचयिता देवीदत्त हैं ।
(१०) बुधरंजनी : - इसके रचयिता वेंगलसूरि हैं। यह वस्तुतः चन्द्रालोक के अर्थालंकार बाले पंचम मयूख की टीका है, जिसके साथ अप्पय दीक्षित के कुवलयानन्द की टीका भी की गई है ।
चित्रमीमांसा पर तीन टीकार्य है :- धरानंद की प्रुधा, बालकृष्ण पायगुण्ड की गूढार्थप्रका शिका तथा अज्ञात लेखक की चित्रालोक नामक टीका । वृत्तिवार्तिक पर कोई टीका उपलब्ध नहीं है । कुवलयानन्द के केवल कारिकाभाग का जर्मन अनुवाद आर० श्मिदूत ने बर्लिन से १९०७ में प्रकाशित कराया था तथा इसी अंश का अंग्रेजी अनुवाद सुब्रह्मण्य शर्मा ने इससे भी पहले १९०३ में प्रकाशित किया था ।
( २ )
अप्पय दीक्षित ने अलंकारों के अतिरिक्त शब्दशक्ति तथा काव्य-भेद के विषय में भी विचार किया है । यद्यपि दीक्षित की इस मीमांसा में कोई नवीन कल्पना नहीं मिलती, तथापि साहित्यशास्त्र के जिश्शासु के लिए इनका इसलिए महत्त्व है कि अप्पय दीक्षित ने अपने पूर्व के आचार्यों के मत को लेकर उसका सुंदर पल्लवन किया है । जैसा कि हम बता चुके हैं बाद के प्रायः सभी आलंकारिकों ने ध्वनिसिद्धांत को मान्यता दे दी है। दीक्षित के उपजीव्य जयदेव स्वयं भी चन्द्रालोक में व्यञ्जना वृत्ति' तथा ध्वनि का विवेचन करते हैं । सप्तम तथा अष्टम मयूख में चन्द्रालोककार ने व्यशना, ध्वनि तथा गुणीभूतव्यंग्य का वर्णन ध्वनिवादियों के ही सिद्धान्तों का सहारा लेकर किया है। अप्पय दीक्षित ने चन्द्रालोककार की भाँति काव्य के समस्त
१. सांमुख्यं विदधानायाः स्फुटमर्थान्तरे गिरः ।
कटाक्ष इव लोलाक्ष्या व्यापारौ व्यञ्जनात्मकः । ( चन्द्रालोक ७-२ )