________________ 17 लवजी ऋषि ने उस सम्प्रदाय से अलग होकर फिर से. लोकाशाह की भक्ति के नाम पर मूर्तिपूजा के खिलाफ बगावत कर दी। उनका भी सम्प्रदाय चल पड़ा, लोग उनको ढूढकमत के नाम से पहिचानने लगे जो नहीं जंचा तो आखिर स्थानकवासी या साधुमार्गी ऐसा सुनहरा नाम बना लिया। मूर्तिपूजा के खिलाफ अनेक प्रश्न उपस्थित किये गये। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की ओर से उन सभी प्रश्नों का अकाट्य तर्कों से और उनके मान्य शास्त्र पाठों से समाधान किया गया, मूर्तिपूजा में चार चांद लग गये। मेघजी ऋषि, आत्मारामजी महाराज इत्यादि अनेक भवभीरु पापभीरु महापुरुषों ने उस बेबुनियाद सम्प्रदाय को छोड़ दिया और मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के पक्के उपासक बन गये / 16 वीं, 17 वी, 18 वीं शताब्दियों में हो गये अगणित प्राचार्य-मुनियों ने मर्तिपूजा में अगणित प्रमाण देते हुए अनेक निबन्धों की रचना की। मूर्तिपूजा के खिलाफ जितने भी प्रश्न हो सकते हैं उन सभी का शास्त्रानुसारी सर्कभित समाधान करने के लिए आज तो प्रचुर मात्रा में साहित्य, पुरातत्त्व, शास्त्रपाठ और प्राचीन साक्ष्य उपलब्ध हैं। तटस्थ बुद्धि से पर्यालोचन करने वालों को शुद्ध तत्त्व निर्णय करने के लिए प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। इतना होते हुए भी मूर्तिपूजा के विद्वेष से उसके खिलाफ लिखने वाले लेखकों की प्राज कमी नहीं है, यद्यपि ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मोड़ किये बिना यह सम्भव ही नहीं है। मुनि श्री भुवनसुन्दर विजयजी ने ऐसी तोड़-मोड़ करने वाले लेखकों की कुचेष्टा का पर्दा फाश करने का इस पुस्तक में एक सराहनीय कौशलपूर्ण विद्वद्गम्य प्रयास किया है इसमें सन्देह नहीं है / इससे तटस्थ इतिहास के जिज्ञासुत्रों को सत्य-तथ्य की उपलब्धि होगी, भवभीरुवर्ग