________________ [ 71 ] स्वीकार प्राचार्य द्वारा दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा की साम्यता दिखाने के अवसर पर अनायास ही हो गया है। खंड 2, पृ० 585 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx आर्य वज्र के गगन विहारी होने, जैनों के साथ बौद्धों द्वारा की गयी धार्मिक उत्सव विषयक प्रतिस्पर्धा में आर्यवन द्वारा जैनधर्माव. लम्बियों के मनोरथों की पूर्ति के साथ जिनशासन की महिमा बढ़ाने आदि आर्यवन के जीवन की घटनाओं एवं सम्पूर्ण कथावस्तु की मूल आत्मा में दोनों परम्पराओं को पर्याप्त साम्यता है / Xxx मीमांसा–प्रार्य श्री वज्रस्वामी गगन विहारी क्यों हुए ? जैन और बौद्धों में कौनसे धार्मिक विषय में प्रतिस्पर्धा हुई ? प्रार्य श्री वज्रस्वामी ने जैनधर्मावलम्बियों के कौन से मनोरथों की पूर्ति की थो? दोनों परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर आते हैं जो मूर्तिपूजा में विश्वास रखते हैं, फिर स्थानकपंथियों का स्थान कहां है ? प्रादि अनेक प्रश्नों को प्राचार्य ने अस्पष्ट ही रखा है, जो अनुचित ही है / __यहां प्राचार्य ने धार्मिक उत्सव विषयक प्रतिस्पर्धा का उल्लेख किया है, किन्तु हिम्मत और सत्यता पूर्वक यह नहीं लिखा कि बौद्धराजा ने जैनियों को पर्युषणा पर्व में जिनप्रतिमा की पूजा हेतु पुष्प देने की मना करदी थी। तब प्रार्य श्री वज्रस्वामी ने जैनधर्मावलम्बियों के मनोरथ की पूर्ति आकाशगामिनी विद्या द्वारा पुष्प लाकर की थी। इससे प्रभावित होकर बौद्धधर्मी राजा एवं प्रजा जैनधर्मी बने थे, इस सत्य तथ्य को प्राचार्य ने छिपाया है। एक बात और भी है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन परम्परा मूर्तिपूजा में विश्वास करती है, अतः श्री वज्रस्वामी के कथानक में दोनों परम्परामों की साम्यता होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इन दोनों परम्परा की श्रद्धा से विपरीत श्रद्धा स्थानकपंथी की हैं, अतः वे अपने आप ही जैनाभास