________________ [ 154 ] सिंह का चिन्ह भी चतुर्मुखी दृष्टिगोचर होने लगा था। सिंहचतुष्टय पर धर्मचक्र इस बात का प्रतीक है कि जिस समय तीर्थकर विहार करते हैं, उस समय धर्मचक्र नभमण्डल में उनके आगे आगे चलता है / इस प्रकार के अनेक गहन तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है / 8xx मीमांसा–प्राचार्य हस्तीमलजी ने उक्त बात बौद्धधर्मचक्र पौर चतुर्मुख सिंहाकृति वाले सारनाथ का स्तम्भ के विषय में कही है। किन्तुं समवसरण में भगवान का चतुर्मुखी दिखना और तीनों प्रोर देवों द्वारा भगवान के शरीर प्रमाण-प्रतिकृति यानी प्रतिमा की स्थापना करना आदि विषय में स्वमान्यता विरोध के कारण विशद स्पष्टीकरण वे नहीं करपाये हैं जो खेद का विषय है / "इस प्रकार के अनेक गहन तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है" प्राचार्य का ऐसा लिखना अनुचित है क्योंकि घोर परिश्रमी (!) और वस्तु के अन्तःस्तल तक पहुंचने की प्रज्ञाधारक (! ) प्राचार्य स्वयं इस प्रकार के तथ्यों पर गहन शोध क्यों नहीं करते हैं ? प्रागमसूत्रों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य में भी जिनमन्दिर, मूर्तिपूजा का वर्णन पाता है / पुरातन अवशेष विशेष भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं / आबू, राणकपुर, गिरनारजी. शत्रुजय, कदम्बगिरि, सम्मेतशिखरजी, पावापुरी, राजगिरि, केसरियाजी, तारंगाजी आदि तीर्थों पर पूर्वाचार्यों के प्रागमानुसारी कथन पर ही जिनेश्वर भगवान के भक्तों ने विशाल जिन मंदिर बनवाये हैं और मंदिर में जिन मूर्तियों की उन प्राचार्यों द्वारा प्रतिष्ठा करवा कर वे जैन श्रावकों जिन मूर्ति से मूर्तिमान अरिहंत का वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान कर कृतार्थ हो रहे हैं / एकान्तवादी दृष्टि के कारण ही खंड 1, पृ० 423 पर प्राचार्य विशाल जिन मन्दिरों को मात्र कलाकृति के ही प्रतीक कहते हैं, जो अन्यायपूर्ण है / यथा