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________________ एं नमः यथार्थवादिने परमात्मने / श्री प्रात्मानंद-कमल-दान-प्रेम-रामचन्द्र-भुवनभानुसूरि-सद्गुरुभ्यो नमः ॐ कल्पित इतिहास सावधान मीमांसक : न्याय विशारद प्राचार्य श्रीमद् विजय भुवन भानु सूरीश्वरजी महाराज साहब के शिष्य मुनि श्री भुवनसुन्दर विजयजी संशोधक एवं मार्गदर्शक / नव्य न्याय के प्रखर विद्वान् मुनिराज श्री जयसुन्दर विजयजी महाराज सम्पादक: कपूरचन्द जैन भायलापुरा, अस्पताल के पीछे हिन्डौन सिटी, ( जि० सवाई माधोपुर ) राजस्थान
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________________ प्रकाशक : दिव्य दर्शन ट्रस्ट बम्बई-४ प्रथम संस्करण : 1000 1983 मूल्य : 10) रु. पुस्तक प्राप्ति स्थान : (1) कपूरचन्द जैन भायलापुरा, अस्पताल के पीछे हिन्डौन सिटी ( सवाई माधोपुर ) राज० (2) मंत्री श्री संभवनाथ श्वे. जैन मन्दिर प्रोसवाल मोहल्ला मदनगंज-किशनगढ़ (जि. अजमेर ) राज. मुद्रक : पांचूलालजी जैन कमल प्रिन्टर्स मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) फोन : 83
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________________ ::. . . . nxx ww . विषय सूची सम्पादकीय कपूरचन्द जैन [प्रथम ] मीमांसकीय मुनि भुवनसुन्दर विजयजी [ द्वितीय ] पुरोवचन मुनि जयसुन्दर विजयजी [ तृतीय ] दो शब्द मुनि गुणसुन्दर विजयजी [चतुर्थ ] प्राक्कथन तीर्थङ्करों का जन्म महोत्सव शासन रक्षक देव-देविया तीर्थङ्करों की माता के गर्भ में भी पूजनीयता तीर्थङ्कर के बारह गुण श्री ऋषभदेव का निर्वाण पोर पावन दाढ़ा श्री अष्टापद गिरि पर जिन मन्दिर पूर्वाचार्यों का महान उपकार आर्द्रकुमार और जिन प्रतिमा जरासंध और कृष्ण के बीच युद्ध वैशाली में श्री मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप प्रार्य श्री शय्यं भवसूरि और जिन प्रतिमा परमात्मा श्री नेमिनाथ व संहार श्री पार्श्वनाथजी को वैराग्य प्रतिमा से वैराग्य का उपदेश अरिहंत पर प्रभक्ति एवं पूर्वाचार्यों पर अबहुमान अंबड सन्यासी और सम्यग्दर्शन 18 दशपूर्वधर श्री वज्रस्वामी के विषय में पक्षपात जैन धर्म और आडम्बर नमो बंभीए लिवीए चैत्य यानी जिनमन्दिर या जिनप्रतिमा 20
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________________ 22 23 97 b4. 102 106 113 128 एक हास्यास्पद कल्पना लब्धिनिधान श्री गौतम स्वामी स्याद्वाद सिद्धान्त में हिंसी एवं अहिंसा श्री भद्रबाहु स्वामी और उवसग्गहरं स्तोत्र जैन धर्म में सम्यक् श्रद्धाकी व्यापकता अनुचित खुशामद राजा सम्प्रति के साथ अन्याय अवंति सुकुमाल और जिनमन्दिर पूज्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण मथुरा के कंकाली टोले की खुदाई भक्तामर और कल्याण मंदिर स्तोत्र जैन धर्म में मूर्तिपूजा और प्राचीन शिलालेख स्थानकपंथी समाज में इतिहास की कमी / परिशिष्ट-मूर्तिपूजा में शास्त्रों की सम्मति .... 135 138 0 142 0 147 33 152 157
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________________ 3888888888888888888888608 80030038 888560380868500 0 206800521005000000000000000 0200500033900000 86580003 युगादिदेव श्री आदीश्वर भगवान देलवाड़ा [ माउन्ट आबू ]
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________________ K00000000000000000000000000000000000000000000000000QQQQQQOQQQQQ SORRE 0000000000 205838003000000000000530 0000000000MMAWA000 0mintwwwwxwwwwww 8000000000000000000000000000000000000 800300333333 & 0000 &00000000000000 3888830888 388888888 ॐ ninto Anon 200880500058883 82833 &0000000 .... . 300000000000 88888888888888888000 10030 038888880 8 SENA 2285530582800103003888888888889336 2012 S33000 h wa0000000000000000000000 608600000000000000000000 8888888888888888888888888338 800000000000000000000000000 20000000000000000000000 13800000000000 0 63068000000000000000 330 203930008880030038888888888888822880 800000 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 &0000000000000000000000000000000000000000000000 8 1000000000000000 8800388856000003383 3600000588803853 8300000000000005888888836333333390030038866 3003009380030038 889390208 0060 88888888 8880330003 &00000000000000 Pc0523000000000222880500020558550508888888888888888860 33 330000000000000000000000000000000000000000000000000 386 & 000000 प्रवचन प्रभावक वर्धमान तपोनिधि पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय भुवन भानुसूरीश्वरजी महाराज
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________________ सम्पादकीय काच के घर में रहने वाला जब अन्य के फौलादी महल पर पत्थर उठाता है, तब वह स्वयं को सुरक्षित समझने की बड़ी भूल करता है / ठीक इसी प्रकार मूर्तिपूजा जैसे शाश्वत जैन प्राचार के सामने पत्थर फेंकने की अनुचित चेष्टा स्थानकवासी सम्प्रदाय के प्रबरणी आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने की है। . प्राचार्य श्री ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास खंड 1 और 2" लिखकर आगम शास्त्रों, पागमेतर प्राचीन जैन साहित्य, पुरातत्त्व सामग्री, विद्यमान हजारों जैन तीर्थों और लाखों जिन मूर्तियों को झूठा करने का दुस्साहस किया है / जिससे जैन समाज को बहुत पाशा और अपेक्षा है ऐसे विद्वान् डा० नरेन्द्र भानावत भी ऐसी निम्न कक्षा की पुस्तक छपवाने में साथ-सहकार देते हैं तब खेद होता है। 108 से भी अधिक शिष्यों के गुरु एवं 108 वर्धमान तप मायंबील की अोली के आराधक न्याय विशारद् पूज्य प्राचार्यश्री विजय भुवन भानुसूरिजी महाराज साहब के शिष्यरत्न मुनिराजश्री भुवन सुन्दर विजयजी महाराज साहब ने भाचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज द्वारा लिखित "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" जो सत्य तथ्य से रहित होने के कारण सर्वथा अमौलिक और कल्पित है, पर सुन्दर मोमांसाटीका रचकर प्रबुद्ध जैन समाज के सामने रेड लाईट दिखायी है, जो
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________________ अत्यन्त स्तुत्य है। "मूर्तिपूजा आगमिक है" ऐसा परिशिष्ट जोड़कर मुनिश्री ने मीमांसा को प्रामाणित भी किया है। प्राचीन साक्ष्य उपलब्ध होते हुए भी मूर्तिपूजा जैसे विषय को विवादास्पद बनाये रखना अशोभनीय कृत्य है / प्राचार्य श्री द्वारा रचित इतिहास पुरातत्त्व और शोध के विद्यार्थियों को मार्ग दर्शन देने में बिल्कुल असमर्थ है। इसको जैन धर्म का इतिहास कसे कहा जा सकता है ? ... जैन शास्त्रों में मूर्तिपूजा के विषय में हजारों-लाखों उल्लेख मौजूद हैं / "प्रश्न व्याकरण" नामक प्रागम सूत्र में चैत्य यानी जिन मन्दिर की वैयावच्च-भक्ति कर्म निर्जरा का कारण है ऐसा कहां है। वषा Xxx अत्यन्त बाल दुब्बल, गिलाण वुड्ढ सर्वक / ... . कुलगण संघ चेइय? च णिज्जरट्ठी // 408 भावार्थ-प्रति बाल, दुर्बल, ग्लान, वृद्ध, तपस्वी, कुल-गण (साधु समुदाय ). चतुर्विध संघ और चैत्य यानी जिन मन्दिर-जिन प्रतिमा की वैयावच्च ( सेवा-भक्ति ) निर्जरा ( कर्मक्षय ) कारक होती है। व्यवहार सूत्र में यावत् जिनप्रतिमा के समक्ष भी पाप की मालोचना करने को कहा है, यथा 80xजत्येव सम्ममचियाइ चेइयाई पाणिज्जा। कप्प सेसस्स संतिए आलोइत्तए वा॥80 भावार्थः-प्राचार्य प्रादि बहुश्रुत गीलार्थ का संयोग न मिले / तो "चेझ्या" यानी जिन प्रतिमा के समक्ष जाकर मालोचना ( पाप को प्रगट ) करनी चाहिए।
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________________ - 10 पूर्वधर महर्षि तत्त्वार्थ सूत्र रचयिता भगवान श्री उमास्वाति महाराज "तत्त्वार्थ सूत्र कारिका" में लिखते हैं किxxx अभ्यर्चनादर्हतां मनः प्रसादस्ततः समाधिश्च / / तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् // xx अर्थात्-श्री अरिहंत परमात्मा की अभ्यर्चना करने से मन की प्रसन्नता, मन के प्रसाद से समाधि और समाधि से निःश्रेयस मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये सभी मुमुक्षु आत्माओं को अरिहंत की पूजा अवश्य करनी चाहिए, यह न्याय संगत एवं उचित है। - शास्त्रों में इतनी स्पष्ट बात होते हुए भी प्राचार्य श्री ने स्वयं को अज्ञान ही रखना चाहा है। उनके द्वारा रचित इतिहास को सबसे निर्बल कड़ी यह रही है कि उन्होंने सारे इतिहास में कहीं भी " चैत्य" ( यानी जिनमन्दिर या जिन प्रतिमा ) शब्द का शास्त्र या कोष-व्याकरण से अर्थ ही नहीं किया है। फिर भी उन्होंने "चैत्यवास" प्रादि की चर्चा चलायी है, जो सर्वथा निरर्थक ही है। . मूर्तिपूजा में मानम्बर एवं हिंसा कहने वाले ये 'लोम स्वयं भारी प्राडम्बर रचते और अपने गुरुत्रों के पगलिया एवं स्मृति मन्दिर प्रादि बनवाने की हिंसा भी करते हैं। अपनी तस्वीर छपवाकर पौर बटवाकर ये गृहस्थों के घर में भी अपना स्थान सुरक्षित रखने लगे हैं। तीर्थङ्कर भगवान के जन्म कल्याणक प्रादि महोत्सवों को ठाठ से मनवाने में प्राडम्बर मानने वाले ये मुनिगण स्वयं की जन्म जयंति दिल और दिमाग पूर्वक बड़े आडम्बर के साथ मनवाते हैं, स्वयं की तस्वीर युक्त बड़ी बड़ी पत्रिकाएँ छपवाते हैं, गुरुके जन्म दिन पर हजारों लोग इकट्ठ होते हैं, सरस माल मिलता है और मौज मजा उड़ाते हैं। मूर्तिपूजा विरोधी ये लोग स्वयं के गुरु की तस्वीर वाले लोकेट और चांदी के सिषके प्रादि भी बांटते हैं, निज गुरु को निम्रन्थ परम्परा के विरुद्ध
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________________ हजारों रुपयों की थैली अर्पण की जाती है। गुरु के नाम पर हजारों भक्तों के लिये सरस भोजन प्रादि के प्रारम्भ-समारम्भ रूप महा हिंसा, वे भक्त नियम बद्ध न होने से रात्रि भोजन का पाप एवं ठाठ-प्राडम्बर सब कुछ होता है, सिर्फ भगवान महावीर का नाम, भगवान महावीर की प्राज्ञा और भगवान महावीर की प्रतिमा-तस्वीर ही कहीं नहीं दिखाई देती ! अन्य के प्रागम कथित शास्त्रीय धर्म अनुष्ठानों को आडम्बर और हिंसा कहने वालों के लिये यह सब अत्यंत लज्जास्पद है। प्राचार्य श्री से यही प्रार्थना है कि प्रागे शायद वे "जैनधर्म का मौलिक इतिहास-खंड-३” लिखेंगे, तब सत्य लिखें जिससे साम्प्रदायिक द्वेष मादि बढ़े नहीं और समय एवं सम्पत्ति का दुरुपयोग न होवे। "कल्पित इतिहास से सावधान" नामक इस मीमांसा के लिये नव्यन्याय के प्रखर विद्वान् मुनिराज श्री जयसुन्दरं विजयजी महाराज ने "पुरोवचन" एवं विद्वान् मुनिराज श्री गुणसुन्दर विजयजी महाराज ने " दो शब्द" लिख दिये हैं, जिनका योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। - पूज्य प्राचार्य श्रीमद् विजय विक्रमसूरिजी महाराज साहब और पूज्य प्राचार्य श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरिजी महाराज साहब का मेरे पर विशेष उपकार और कृपादृष्टि रही है, जिसके कारण ही मेरी तबियत ठीक न होते हुए भी प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन कार्य मैं कर सका हूं। / - श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघको विनती है कि पूज्य प्राचार्य श्री विजयानन्दसूरिजी (मात्मारामजी महाराज ) लिखित “सम्यक्त्व शल्योद्धार", पूज्य भाचार्य श्री लब्धिसूरीश्वरजी महाराज रचित
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________________ "मूर्तिमंडन", इतिहासज्ञ मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दर विजयजी महाराज रचित "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास", पूज्य पन्यास प्रवर श्री भद्रंकर : विजयजी गणि महाराज रचित "प्रतिमा पूजन" प्रादि पुस्तकों का प्रचार प्रसार करना-करवाना अत्यन्त प्रावश्यक है। मुनिराज श्री भुवनसुन्दर विजयजी महाराज द्वारा लिखित इस मीमांसा पुस्तक द्वारा भविकजन मूर्तिपूजा विषयक सत्य मार्गदर्शन पावेंगे यही प्राशा है। इस पुस्तक के मुद्रण में दिव्य दर्शन ट्रस्ट एवं श्वेताम्बर जैन मूर्तिपूजक संघ [ मदनगंज ] का सराहनीय द्रव्य-योगदान रहा है, जिसका मैं अत्यंत आभारी हूं। पुस्तक में रही त्रुटियों की सब जिम्मेदारी मेरी है। . पाठकगण इसको सादर स्वीकार करेंगे और सत्य के नजदीक पायेंगे यह प्राशा करता हूं / पाठकों से निवेदन है कि इस पुस्तक पर जो भी मापकी राय हो वह निम्नलिखित पते पर भेजने की कृपा करें। पता :भायलापुरा अस्पताल के पीछे हिन्डौन सिटी [जि० सवाईमाधोपुर] ( राज० ) कपूरचन्द जैन दि० 11-10-1983 . प्रासोज सुदी पंचमी
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________________ मीमांसकीय . लोहामंडी प्रागरा से छपी स्वाध्याय की किताब "मंगलवाणी" जिसका संकलन स्थानकमार्गी अखिलेश मुनि ने किया है, इस किताब के ग्यारह संस्करण द्वारा माज तक जिसकी 60 हजार से भी ज्यादा प्रतियां मुद्रित हो चुकी है / इस किताब में "बृहद् शांति" नामक स्तोत्र को संक्षिप्त करके छपवाया गया है। यानी मूर्तिपूजा समर्थक पाठों को मागे पीछे से हटाकर "बृहद् शांति" को संक्षिप्त कर दिया है। स्थानकमार्गी अमोलक ऋषि ने उनके माने हुए 32 आगमों का हिन्दी अनुवाद किया है / श्री राजप्रश्नीय सूत्र में देवता द्वारा जिन प्रतिमा पूजन का वर्णन पाया है, वहां धूप देने के विषय में मूलपाठ यह है कि.......... "धूवं दाउणं जिणवराणं" टीका-धूपं दत्वा जिनवरेभ्यः / पार्श्वचन्द्र सूरिकृत टब्बा-धूप दीधु जिनराज ने / लोकागच्छियों की मान्यता-धूप दिया जिन भगवान को। किन्तु स्थानकपंथी अमोलक ऋषि ने श्री राजप्रश्नीय सूत्र कथित पाठ को परिवर्तन करके लिख दिया है कि "धूवं दाउणं पडिमाणं" . पौर अर्थ किया-"धूप दिया प्रतिमा को।" फिर प्रतिमा का अर्थ जिनप्रतिमा न करके कामदेव की प्रतिमा कर दिया है। मूल
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________________ शास्त्रों में और उनके भाषान्तर में इन महाशय ने अनेक स्थलपर उनकी मान्यता के अनुकूल परिवर्तन किये हैं तथा जी चाहा मनमाना अर्थ किया है, फिर भी पूर्वाचार्यों को झूठा करते हुए वे "शास्त्रोद्धार मीमांसा" मामक पुस्तक में लिखते हैं कि xxxश्री जैन धर्म प्रचारार्थ श्री महावीर स्वामीजी के निर्वाण के 1242 वर्ष में शैलांगाचार्य ने आचारांग और सूयगडांग की टीका बनाई, 1590 वर्ष पीछे अभयदेवसूरि ने स्थानांग से विपाक पर्यन्त 9 अंग की टोका बनाई, इसके बाद मलयगिरि आचार्य ने राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, पनवणा, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, व्यवहार और नंदीजी इन 7 सूत्र को टीका बनाई, चन्द्रसूरिजी ने निरयावली का पंचक की टीका बनाई, ऐसे ही अभयवेवसूरि के शिष्य मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य ने अनुयोनद्वार की टीका बनाई, क्षेमकीर्तिजी ने बृहत्कल्प को टीका को, शांतिसूरिजी ने श्री उत्तराध्ययनजी की. वृत्ति-टीका-भाष्य-चूणिका-नियुक्ति वगैरह सहित सविस्तार बनाया। इन टीकाकारों ने अनेक स्थान मूल सूत्र की अपेक्षा रहित व वर्तमान में स्वतः की प्रवृत्ति को पुष्ट करने जैसे मनः कल्पित अर्थ भर दिये।xxx .. . स्थानकवासी महा पण्डित श्रीमान् रतनलाल जी डोशी ( शैलाना वाले ) ने “जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा-खंड-१" नामक पुस्तक में चारण मुनियों का नन्दीश्वर प्रादि द्वीप में तीर्थयात्रा हेतु जाने को सैर-सपाटा बताया है। यथा xxx हमारे विचार से [ चारणमुनिका ] वहां जाने का मुख्य कारण नंदन वन की सैर करने का ही हो सकता है, क्योंकि यह भी एक छमस्थता की पलटती हुई चम्बल विचार धारा का परिणाम है।xxx ....... प्राचीन प्राचार्यों के प्रति प्रश्रद्धा व्यक्त करते हुए स्थानकवासी समाज के कर्मधार प्राचार्य हस्तीमल जी "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" में लिखते हैं कि
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________________ xxx इस प्रकार बहुत-सी चमत्कारिक रूप से चित्रित घटनाओं को भी इस ग्रंथ में समाविष्ट नहीं किया गया है। मध्ययुगीन अनेक विद्वान ग्रन्थकारों ने सिद्धसेन प्रभृति कतिपय प्रभावक आचार्यों के जीवन चरित्र को आलेखन करते हुए उनके जीवन की कुछ ऐसी चमत्कार पूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिन पर आज के युग के अधिकांश चिन्तक किसी भी दशा में विश्वास करने को उद्यत नहीं होते। Xxx यही प्राचार्य अपनी "सिद्धान्त प्रश्नोत्तरी" किताब के पृ० 16 पर लिखते हैं कि xxx कुछ लोग कहते हैं कि-भरतजी ने मरीचि को होने वाला तीर्थकर जानकर वन्दन किया, ऐसा टीका में आता है। ठीक है, यह बात कथा में है पर शास्त्र में नहीं होने से प्रमाण कोटि में नहीं मानी जाती। स्थानकपंथी मत प्रवर्तक लोकाशाह के विषय में स्थानकवासी पण्डित श्रीमान् वाडीलाल मोतीलाल शाह-अपनी "ऐतिहासिक नोंध" में लिखते हैं कि मैं इस बात को अंगीकार करता हूं कि मुझे मिली हुई लोंकाशाह विषयक हकीकतों पर मुझे विश्वास नहीं है / तथा xxx [ लोकाशाह के चारित्र के विषय में हम अभी अंधेरे में ही हैं ] लोकाशाह कौन थे? कब हुए ? कहां कहां फिरे ? इत्यादि बातें आज हम पक्की तरह से नहीं कह सकते हैं। जो कुछ बातें उनके बारे में सुनने में आती हैं, उनमें से मेरे ध्यान में मानने योग्य ये जान पड़ती हैं। ऐतिहासिक नोंध पृ० 56 xxx मागे वे लोकाशाह के विषय में लिखते हैं कि xxx पर इस तरह का उल्लेख उनके निर्गुणे भक्तों ने कहीं नहीं किया कि लोकाशाह किस स्थान में जन्मे ? कब उनका देहान्त हुआ ? उनका घर संसार कैसे चलता था ? वे किस सूरत के थे ? उनके पास कौन-कौन
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________________ शास्त्र थे ? इत्यादि इत्यादि हम कुछ नहीं जानते हैं। . ऐतिहासिक नोंध पृ० 87] 888 स्थानक मत के प्राद्य प्रवर्तक लोकाशाह के विषय में इस प्रकार का अंधकार होते हुए भी यदि कोई व्यक्ति अपने मान्य पुरुष के प्रति प्रशंसाओं का पहाड़ खड़ा कर दे या उपमाओं का सागर सुखा दे तो हमें कुछ भी प्रापत्ति नहीं है, किन्तु जब वे हमारे प्राप्त, मान्य, महान उपकारी, महान ज्ञानी पूर्वाचार्यों को शिथिलाचारी कहें, पापधर्म के प्रवर्तक कहें तब ऐसे जघन्य कृत्य कारक के सामने शांत कैसे बैठा जा सकता है ? स्थानकवासी सम्प्रदाय के जाने माने प्राचार्य हस्तीमलजी ने 'पट्टावली प्रबन्ध संग्रह" में लिखा है कि xxx वीर निर्वाण (पश्चात् ) 628 में और विक्रम संवत् 412 के वैशाख शुक्ला 3 के दिन प्रतिमा की स्थापना हुई / 36 वर्ष तक अर्थात् 448 की साल तक कागज पर भगवान की तस्वीर बनाकर पूजन करते और उस पर केशर के छींटे डालते। इससे तस्वीर का आकार छिपने लगा। तब लिंगधारी रतन गुरु ने विचार कर काष्ट की प्रतिमा कराई। संवत् 448 के माघ शुक्ला 7 से काष्ठ को प्रतिमा पूजी जाने लगी। 49 वर्ष तक यह प्रथा चलती रही। फिर गुरुओं ने विचार किया कि काष्ठ की प्रतिमा नित्य पक्षाल करने से गीली रहती है, उसमें फूलन आ जाती है, इसलिए यह ठीक नहीं है।xxx [आचार्य हस्तीमलजी का झूठ देखो कि वे कागज पर भगवान की तस्वीर बनाकर पूजने की बात लिखते हैं जबकि भारतवर्ष में उस समय कागज का प्रचलन ही नहीं था। प्रागे वे कल्पित एवं हास्यास्पद बातें लिखते हैं कि-] xxx तब ( लिंगधारी गुरु ने) संवत 497 (चार सौ सतानवे ) की साल चैत्र शुक्ला 10 को मंदिर में पाषाण की प्रतिमा स्थापित की।
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________________ 10 धातु की मूर्तियां बनने लगी। लोगों को आकर्षण बढ़ाने को प्रभावना, नाटक और स्वामी वात्सल्य आदि चालू किए / इस प्रकार सं० 882 में हिंसा धर्म प्रकट हुआ, उसका जोर बढ़ा।xxx xxx शिथिलाचारी साधुओं ने शास्त्रों को भंडारों में रखकर नयी रचना चालू की / वे काव्य, श्लोक, स्तुति और भाषा की रचना मनपसन्द संस्कृत व प्राकृत भाषा में करने लगे। चौपाई, कवित्त, दोहा, गाथा, छन्द, गीत आदि अनेक प्रकार की जोड़े कर लोगों को सुनाते, जिनेन्द्र देव की आज्ञा का लोप कर हिंसा धर्म की पुष्टि करते और रात में जागरण करवाते तथा पुस्तकों की पूजा करवाते, बाजा बजवाते, गीत गवाते और पूज्य कहाते हुए पांव मंडवाकर सरस माल खाते थे।xxx . 444 जिनेन्द्र पूजा के निमित्त नहाना, धोना और छले ( दुल्हे की तरह ) बने रहना तथा पूजा के लिये फल, फूल, वनस्पति आदि तोड़ने की व्यवस्था देकर हृदय के दया-भाव को घटा दिया।xxx xxx वीर सं० 882 में बारह वर्षीय दुकाल पड़ा। उस समय श्री पालिताचार्य शुद्ध संयमी हुए। आप दूर देशों में संयम गुण सहित विचरने लगे। पीछे से कई महापुरुषों ने संथारा कर लिया। कोई एक भवतारी हुए। जो कायर थे वे शिथिलाचारी हुए। भिखारियों से पृथ्वी भर गई। खाने को पूरा अन्न नहीं मिलता। तब श्रावक लोग किवाड़ जुड़े हुए रखते थे। तब श्रावकों और शिथिलाचारियों ने यह नियम बांधा कि द्वार पर आकर धर्मलाभ कहना / इस संकेत से किवाड़ खोलकर आहार वहरा देंगे / अस्तु / ऐसा ही होने लगा। भिखारी लोग इन साधुओं से रास्ते में आहार पानी छीन लेते थे। साधुओं ने सोचा मुहपत्ती अपनी पहचान है सो इसे उतारकर हाथ में ले लो। बोलते समय मुह को लगाकर बोलेंगे। इस रीति से उन्हें कुछ दिन आराम मिला। भिखारी इनकी चाल को समझकर फिर, आहार लूटने लगे। तब इन्होंने भी
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________________ हाथ में डण्डा पकड़ा / उण्डे को देखकर भिखारी डरने लगे। इस भांति इन्होंने धर्म को कलंकित कर गला xxx श्री पालीताचार्य भी देश में पधारे / तब साधुओं का पतित आचार देखकर उन्हें समझाया। परन्तु मिथ्यात्व के उदय न समझे / Xxx xxx इन्होंने (शिथिलाचारियों ने ) अपनी पूजा के लिये चोंतरा, चैत्य, पगल्या, मंदिर, देहरा बंधवाये / अलग-अलग गच्छ बंधी करी। धर्म के डोंगी बने / xxx xxx आचार्य, ऋषि, मुनि, आदि शब्दों को तोड़कर विजय, सूरि, पन्यास, यति आदि शब्दों को जोड़ने लगे। 888 स्थानकपंथी प्राचार्य हस्तीमलजी ने उक्त दुःस्साहस पूर्ण माक्षेप श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनाचार्यों आदि पर किया है / इसके विषय में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज को जो भी उचित हो करना चाहिए एवं जैन समाज की एकता के प्रेमी ( ! ) "जैन इतिहास समिति" [लाल भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर-३ ] पर विरोध सूचक पत्र भी लिखमा चाहिए / इन्हीं प्राचार्य द्वारा रचित दूसरी पुस्तक "जैनधर्म का मौलिक इतिहास खंड-१ और 2" है, जिसमें भी ऐसी ही साम्प्रदायिक कटुता उभारने वाली और शास्त्र निरपेक्ष मनघडंत बातें भरी पड़ी हैं। इनके इतिहास की कल्पित और झूठ कुछ बातें प्रस्तुत हैं / . सगर चक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों की प्रष्टापदजी तीर्थरक्षा में मौत हुई थी, इस पर वे लिखते हैं कि xxx संभव है, पुराणों में शताश्वमेधी की कामना करने बाले सगर के यज्ञाश्व को इन्द्र द्वारा पाताल लोक में कपिलमुनि के पाश बांधने जोर
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________________ 12 सगर पुत्रों के वहां पहुंचकर कोलाहल करने से कपिलऋषि द्वारा भस्मसात् करने की घटना से प्रभावित हो जैनाचार्यों ने ऐसी कथा प्रस्तुत को हो।xxx जनशासनोन्नति कारक महान राजा श्री संप्रति के विषय में वे लिखते हैं कि 444 श्वेतपाषाण की कोहनी के समीप गांठ के आकार के चिन्हवाली प्रतिमाएं जैन समाज में प्रसिद्ध रही है और उन सभी का सम्बन्ध राजा संप्रति से स्थापित किया जाता है। ऐसी प्रतिमाओं के अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित होने का उल्लेख भी किया गया है। मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेतपाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्यकाल की तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकती।xxx xxxजहाँ तक जैन मूर्ति-विधान एवं उपलब्ध पुरातन अवशेषों का प्रश्न है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि राजा संप्रति द्वारा निर्मित मंदिर या मूर्तियाँ भारतवर्ष के किसी भी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। 8xx आर्द्रकुमार के विषय में वे लिखते हैं कि xxx अभयकुमार ने अनार्यदेशस्थ अपने पिता के मित्र अनार्य नरेश के राजकुमार (आर्द्र कुमार ) को धर्मप्रेमी बनाने के लिये धर्मोपगरण (?) की भेंट भेजी।xxx करीब 2 हजार पृष्ठ के "जैनधर्म का मौलिक इतिहास खंड१, खंड-२" में ऐसी अठपूर्ण एवं कल्पित अनेक बातें प्राचार्य हस्तीमलजी ने लिखी हैं / ऐसे मनघडंत इतिहास को "मौलिक" कैसे कहा जा सकता है ? एवं इसको "जैनधर्म का इतिहास" कहना भी असत्य और अन्याय पूर्ण ही है।
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________________ - 13 प्राचार्य द्वारा रचित कल्पित इतिहास के उत्तर में मैंने यह मीमांसा द्वारा यत्किंचित् प्रयत्न किया है। प्रबुद्ध और विज्ञजनों को इस विषय में विशेष प्रयत्न करने की अत्यन्त आवश्यकता है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन समाज में विद्यमान सैंकड़ों सुविहित महासंयमी पंचाचार पालक-प्रसारक प्राचार्य भगवंतों के पवित्र कर कमलों में मेरी यह तुच्छ रचना समर्पण करता हूं एवं उन पूज्य प्राचार्य भगवंतों से करबद्ध सविनय निवेदन करता हूं कि स्थानकपंथियों की कुप्रवृत्तियों के प्रति आप कुछ सोचें। सिद्धान्त महोदधि स्व० प्राचार्य देव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज साहब के विद्वान् शिष्यरत्न, 108 वर्धमान तपप्रायंबील की अोली के प्राराधक, 108 से भी अधिक शिष्य-प्रशिष्यों के संयममार्गदर्शक और प्रवर्तक, न्यायविशारद मेरे पूज्य गुरुदेव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहब की इस मीमांसा–पुस्तक की रचना में निःसीम कृपा रही है, जिनकी अमिदृष्टि से ही यह मीमांसा पुस्तक प्रस्तुत है। प्रागमज्ञ, गीतार्थ मूर्धन्य, पूज्य पन्यास श्री जयोघोष विजयजी गणि महाराज साहब के शिष्य रत्न नव्यन्याय के प्रखर विद्वान मुनिराज श्री जयसुन्दर महाराज साहब की ज्ञानदान द्वारा मुझ पर अपार कृपा रही है, जिन्होंने प्रस्तुत मीमांसा पुस्तक की पांडुलिपि को जाँचकर अनेक प्रत्यंतोपयोगी सूचन करके अपूर्व मार्गदर्शन दिया है, साथ ही साथ इन संयमी महापुरुष ने 'पुरोवचन' स्वरूप प्रस्तावना लिखकर प्रत्यन्त उपकार भी किया है। विद्वान् मुनिराज श्री गुणसुन्दर विजयजी महाराज साहब ने भी "दो शब्द" लिखने द्वारा मेरे प्रति अपार वात्सल्य प्रगट करके बहुत उपकार किया है।
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________________ - प्रस्तुत ग्रन्थ का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन करने वाले सुश्रावक श्री कपूरचन्दजी जैन (रिटायर्ड तहसीलदार) का सराहनीय सहयोग रहा थे धन्यवाद के पात्र हैं / श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ-मदनगंज एवं दिव्य दर्शन ट्रस्ट ने आर्थिक सहयोग देकर सुकृत लाभार्जन किया है, वह अनुमोदनीय है। मुद्रक सज्जन श्री पांचूलालजी जैन को सहृदयता भी धन्यवाद के पात्र हैं। प्रस्तुत पुस्तक के द्वारा मात्मार्थी साधक मूर्तिपूजा सम्बन्धित तथ्य सत्य को जाने-माने और प्रात्मश्रेय साधे ऐसी शुभाषा है / 2-10-13 प्रोसवाली मोहल्ला श्री श्वे.जैन मंदिर.मदनगंज (जि.-अजमेर) राजस्थान भुवन सुन्दर विजय
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________________ पुरोवचन कदाचित् कोई पूछ ले कि "गगन में सूर्य-चन्द्र चमकते हैं"इसमें क्या प्रमाण ? शास्त्र में कहां लिखा है ? अनादिकाल से तो वह नहीं था अब यकायक कहां से पा गया ? कौनसे प्राप्तपुरुषों ने सूर्यचन्द्र का प्रचार किया ? सूर्य-चन्द्र की मान्यता अधिकतर कितनी प्राचीन होगी? उन मान्यता में पीछे से क्या-क्या परिवर्तन हुमा ? मादि-प्रादि। . .. अहो! ये प्रश्न कितने गहरे हैं, कितने कठिन हैं ? कोई सामान्य पुरुष की गुंजाईश है क्या ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने की ? ऐसे तात्त्विक (!)प्रश्न करने वालों को तो हाथ जोड़कर यही कहना पड़ेगा, भाई ! तुम्हारे प्रश्न बहुत गहन हैं, कोई सर्वज्ञ ही उनका समाधान कर सकता है। ठीक इसी प्रकार १६वीं शताब्दी में जैन शासन में मूर्तिपूजा के गहन विषय में भी ऐसे ही प्रश्नों की परम्परा बन गयी। बहुत से धुरंधर पण्डितों ने उन प्रश्नों के उत्तर देने का साहस किया, लेकिन प्रश्नकर्ता वर्ग को संतोष हो ऐसा उन तात्त्विक (!) और प्रति गहन (!) प्रश्नों का समाधान कौन करे ? आखिर उन लोगों ने मान लिया-मतिपूजा गलत है, अशास्त्रीय है, आधुनिक है, उसमें किसी प्राप्तपुरुषों की सम्मति नहीं है। / बस ! एक नया सम्प्रदाय बन गया, कुछ नाम रख लिया, कुछ वेष बना लिया, झुकने वाले मिल गये जो झुकाने वालों की तरकीब
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________________ 16 या शरम से छूट न पाए। कुछ शास्त्र मान भी लिए, तो कुछ उनकी मनगढंत मान्यताओं के प्रतिकूल थे उनको छोड़ दिया, नये भी शास्त्र कुछ बना लिए। हो गया, भगवान महावीर की मूर्ति को ही छोड़ दिया, नाम लेने के अधिकार को तो बड़े चाव से सुरक्षित रखा। इतिहास के पन्ने मत उलटामो, उसमें तो जहां कहीं मूर्तिपूजा का ही समर्थन मिलेगा। इतिहास भी उन लोगों ने नया ही बना लिया, जिसमें से मूर्तिपूजा को निकाल दिया। अरे ! मूर्तिपूजा ! तूने क्या ऐसा अपराध किया था उन लोगों का, जिससे तेरे नाम से वे लोग कांप उठते हैं, एतराजी रखते हैं। हां ! विक्रम की सातवीं शताब्दी तक किसी अनार्य ने भी तेरे खिलाफ एक लफ्ज भी नहीं निकाला था। 1300-1400 वर्ष पूर्व सबसे पहिले अरब देश में मोहम्मद पैगम्बर ने तेरा बहिष्कार कर दिया, हां उसके पास समसेरों की बड़ी ताकत थी। वि० सं० 1544 के निकटवर्ती उपाध्याय श्री कमलसंयमजी लिखते हैं कि उस पैयगम्बर का अनुयायी फिरोजखान बादशाह दिल्ली के तख्त पर मारूढ़ होकर मन्दिर मूर्तियों को तोड़ने लगा। इधर उसी काल में लोकाशाह नामक एक जैन गृहस्थ प्रप. मानित होकर सैयद से जा मिला और उन म्लेच्छों के कुसंग से मूर्तिपूजा का जोर शोर से विरोध करने लगा। जैन शासन में मूर्तिपूजा के खिलाफ विद्रोह करने वाला यह प्रथम ही था। मुसलमानों की ओर से उसको मर्तिपूजा के खिलाफ प्रचार करने में बहत सहायता मिल गयी। एक सम्प्रदाय बन गया लोंकागच्छ के नाम से, किन्तु उनके अनुयायियों ने सत्य समझकर फिर से मूर्ति को अपना लिया और लोंकागच्छ में पुन: मूर्तिपूजा पूर्ववत् प्रारम्भ हो गयी। काल के प्रभाव से धर्मसिंह और
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________________ 17 लवजी ऋषि ने उस सम्प्रदाय से अलग होकर फिर से. लोकाशाह की भक्ति के नाम पर मूर्तिपूजा के खिलाफ बगावत कर दी। उनका भी सम्प्रदाय चल पड़ा, लोग उनको ढूढकमत के नाम से पहिचानने लगे जो नहीं जंचा तो आखिर स्थानकवासी या साधुमार्गी ऐसा सुनहरा नाम बना लिया। मूर्तिपूजा के खिलाफ अनेक प्रश्न उपस्थित किये गये। मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की ओर से उन सभी प्रश्नों का अकाट्य तर्कों से और उनके मान्य शास्त्र पाठों से समाधान किया गया, मूर्तिपूजा में चार चांद लग गये। मेघजी ऋषि, आत्मारामजी महाराज इत्यादि अनेक भवभीरु पापभीरु महापुरुषों ने उस बेबुनियाद सम्प्रदाय को छोड़ दिया और मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के पक्के उपासक बन गये / 16 वीं, 17 वी, 18 वीं शताब्दियों में हो गये अगणित प्राचार्य-मुनियों ने मर्तिपूजा में अगणित प्रमाण देते हुए अनेक निबन्धों की रचना की। मूर्तिपूजा के खिलाफ जितने भी प्रश्न हो सकते हैं उन सभी का शास्त्रानुसारी सर्कभित समाधान करने के लिए आज तो प्रचुर मात्रा में साहित्य, पुरातत्त्व, शास्त्रपाठ और प्राचीन साक्ष्य उपलब्ध हैं। तटस्थ बुद्धि से पर्यालोचन करने वालों को शुद्ध तत्त्व निर्णय करने के लिए प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। इतना होते हुए भी मूर्तिपूजा के विद्वेष से उसके खिलाफ लिखने वाले लेखकों की प्राज कमी नहीं है, यद्यपि ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मोड़ किये बिना यह सम्भव ही नहीं है। मुनि श्री भुवनसुन्दर विजयजी ने ऐसी तोड़-मोड़ करने वाले लेखकों की कुचेष्टा का पर्दा फाश करने का इस पुस्तक में एक सराहनीय कौशलपूर्ण विद्वद्गम्य प्रयास किया है इसमें सन्देह नहीं है / इससे तटस्थ इतिहास के जिज्ञासुत्रों को सत्य-तथ्य की उपलब्धि होगी, भवभीरुवर्ग
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________________ 18 को दिशा परिवर्तन की प्रेरणा भी मिलेगी, उत्पथगामियों को सत्यमार्ग का प्रकाश मिलेगा। मूर्तिपूजा शास्त्रोक्त और प्रात्मोन्नति के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य है. इस तथ्य की सिद्धि में हजारों प्रमाण मौजूद हैं। मूर्तिपूजा को प्रमाणित करने वाले प्राचार्यों में उपाध्याय श्री यशोविजयजी महाराज का नाम प्रातः स्मरणीय है। स्थानकवासी सम्प्रदाय में भी प्राज इनके जैन-तर्क भाषा आदि ग्रन्थों को बड़ी प्रतिष्ठा है। प्रतिमाशतक, प्रतिमा स्थापन न्याय, कूप दृष्टान्त विशदी करण, उपदेश रहस्य, षोडषक टीका इत्यादि ग्रन्थों में जिन अकाट्य प्रमाणों का निर्देश किया है, उनके सामने सभी स्थानकवासियों का मुंह आज तक बन्द ही रहा है। किसी ने भी उसके खिलाफ कुछ भी लिखने का प्राज तक साहस नहीं किया है। / मूर्तिपूजा के समर्थक और भी कई ग्रन्थ हैं जिनमें ये प्रमुख हैं-वाचक शेखर श्री उमास्वाति प्राचार्य महाराज कृत पूजा प्रकरण, 14 पूर्वी पूज्य भद्रबाहुस्वामी महाराज कृत आवश्यक नियुक्ति प्रादि, प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज कृत पूजा पंचाशक प्रकरण, षोड़शक प्रकरण और श्रावक प्रज्ञप्ति टीका एवं ललितविस्तरा ग्रन्थ, प्राचार्य श्री शांतिसूरिजी महाराज कृत चैत्यवंदन बृहद्भाष्य, अवधिज्ञानी श्री धर्मदासगणि महाराजकृत उपदेशमाला, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज कृत योग शास्त्र आदि ग्रन्थ निधि, नवांगी टीकाकार प्राचार्य श्री मभयदेवसूरि महाराज कृत पंचाशक वृत्ति / / तदुपरान्त श्री ज्ञाता सूत्र, ठाणांग सूत्र, रायपसेणी सूत्र, जीवाभीगम सूत्र, महा प्रत्याख्यान सूत्र, महाकल्पसूत्र, महानिशीथ सूत्र इत्यादि मूल अंग-उपांग सूत्रों में भी मूर्तिपूजा के अनेक उल्लेख भरे
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________________ 19. महा कल्पसूत्र में गौतम स्वामी के प्रश्नोत्तर में श्री महावीर भगवान ने कहा-"जो श्रमण जिन मंदिर को न जाय उसे बेला यो पांच उपवास का प्रायश्चित पाता है। उसी तरह श्रावक को भी।" तथा इसी सूत्र में कहा है-जो श्रावक जिन पूजा नहीं मानते वे मिथ्यादृष्टि हैं। तथा सम्यग्दृष्टि श्रावक को जिनमन्दिर में जाकर चन्दनपुष्पादि से पूजा करनी चाहिए / श्री भगवती सूत्र में तुगीया नगरी के श्रावकों ने स्नान करके देवपूजन किया यह उल्लेख है___"हाया कयबलिकम्मा" / श्री उवाई सूत्र में चम्पा नगरी के वर्णन में "बहुलाई अरिहंत चेइयाई" बहुत से अरिहन्त चैत्यों यानी जिन मंदिर का उल्लेख है। श्री भगवती सूत्र में चमरेन्द्र के अधिकार में तीन सरख दिखाये हैं-"अरिहंते वा अरिहंत चेइयारिण वा भाविमप्पणो अणगारस्स वा।" यहां अरिहन्त चेइयाणि का अर्थ अरिहंत की प्रतिमा ऐसा होता है। श्री उपासकदशांग आगम सूत्र में प्रानन्द श्रावक के अधिकार में जिन प्रतिमा वंदन का उल्लेख है ___"नो खलु मे भंते ! कप्पइ......"अन्नउत्थिय परिग्गहियाणि अरिहंत चेइयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा।" यहां अन्य तीथिकों से परिगृहीत जिमप्रतिमाओं को वंदम नं करने के नियम से अन्य तीथिकों से अपरिगृहीत जिन प्रतिमानों को वन्दन की सिद्धि होती है।
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________________ 20 श्री कल्पसूत्र में भी सिद्धार्थ राजा ने हजारों की संख्या में जिन प्रतिमा पूजन करवाने का "याग" शब्द से उल्लेख है। श्री व्यवहार सूत्र में जिन प्रतिमा के सन्मुख पालोचना ( प्रायश्चित ) करने का उल्लेख है। श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र में निर्जरार्थी को चैत्यहेतुक वैयावच्च करने का आदेश है-"चेइय? ....." इत्यादि" अर्थात् प्रतिमा की हिलना, अवर्णवाद और अन्य प्राशातनाओं का उपदेश के माध्यम से निवारण करने का साधु को कहा है। श्री द्वीप सागर पन्नति सूत्र में कहा है कि स्वयंभूरमण समुद्र में जिन प्रतिमा के प्राकार वाले मत्स्य होते हैं, जिनको देखकर जाति स्मरण होने से तिर्यंच जलचरों को सम्यक्त्व प्राप्ति होती है। __ श्री भगवती सूत्र के प्रारम्भ में ही ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार किया है। - इस प्रकार अनेक शास्त्र-पागम सूत्रों से मूर्तिपूजा सिद्ध होती है। मूर्तिपूजा से लाभ होता है या नहीं-यह तो करनेवाला ही जान सकता है, न करनेवाले को क्या पता? हां! कोई इक्षुरस की मधुरता का चाहे कितना भी अपलाप करे किन्तु उसका प्रास्वाद करने वाला तो उसके मधुर रस का साक्षात् ही अनुभव करता है। स्थानकवासी और तेरापंथी बन्धु और साधु-संतों से यह अनुरोध है कि वे सब समुदाय में या अकेले एक मास स्वयं जिनमूर्ति की उपासना करके अनुभव करलें कि उसमें लाभ होता है या नहीं ? हस्त कंकण को कभी दर्पण की जरूरत नहीं होती। ..
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________________ 21 मूर्तिपूजा के समर्थक लेख और निबन्धों से विगत कुछ वर्षों में यह लाभ अवश्य हुअा है कि कुछ कट्टर विरोधी साधुओं--महासतित्रों को छोड़कर अधिकांश वर्ग ने मूर्तिपूजा का विरोध करना छोड़ दिया है। अनेक स्थानकवासी सद्गृहस्थों ने मंदिर में दर्शन करना प्रारम्भ कर दिया है, हालांकि वे लोग गांव में पूजा-भक्ति करने में कुछ हिचकाते हैं जरूर किन्तु तीर्थों में जाकर पूजा-भक्ति कर लेते हैं / मूर्तिपूजा में सावध है-हिंसा है इत्यादि जो पहिले घोषणा की जाती थी, वह भी अब तो मन्द होती जा रही है, क्योंकि मूर्तिपूजा में कोई हिंसादि दोष नहीं बल्कि अगणित लाभ ही है, इस तथ्य को शास्त्र, तर्क और अनुभव का पुष्ट समर्थन है / ___ समय समय पर मूर्तिपूजा के समर्थन में ऐसे लेख और निबंध लिखे ही जा रहे हैं और उसी का यह सत्प्रभाव है कि हजारों लोग पुनः मूर्तिपूजा को आदर से देखने लगे हैं। इस पुस्तक से भी यही लाभ सम्पन्न होगा यह पाशा की जाती है / पुस्तक के लेखक मुनि श्री का यह शुभ प्रयत्न निःसन्देह अभिनन्दन के योग्य है / .. दि० 2-10-83 .: नवसारी (गुजरात) ... मुनि जयसुन्दर विजय
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________________ प्रतिमा पूजा की यथार्थता दो शब्द जगत के अधिकांश व्यवहारों में जड़पदार्थ में चैतन्य का आरोप कर उनसे प्रीति-अप्रीति होने की सार्वत्रिक स्वीकृति होने और जैनागम में जगह जगह पर परम उपादेय श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा (बिम्ब) से शुभ अध्यवसाय की बात प्रत्यक्ष लिखी होने पर भी "स्थापनाजिम" को स्वीकार न करने की अपनी विपरीत धुन में एकान्तवाद का प्राश्रय लेकर स्थानकपंथी स्थापना सत्य का सर्वथा निषेध करते हैं उनका यह दृष्टिकोण सर्वया 'अशोभनीय है और एकान्तवादी होने के कारण मिथ्यात्व स्वरूप भी है। आज से करीब 400 वर्ष पहिले श्वेताम्बर जैन समाज से मूर्तिपूना के विरोध के कारण अलग हुए इन लोगों ने सर्वप्रथम प्रतिमा एवं तस्वीर मात्र का ही विरोध किया था। किन्तु बाद में तस्वीर को उपयोगिता समझकर ये लोग अपनी तस्वीर छपवाने-बँटवाने लगे यावत् श्री महावीरस्वामी की मुंहपत्ती बंधी हुई तस्वीर छपवाकर कल्पित स्थानकपंथ का प्रचार करने लगे। इसीप्रकार धन्नाजी, शालिभद्रजी, मेघ कुमारजी प्रादि मुनियों की मुंहपसी बंधी हुई तस्वीर भी वे लोग छपवाने-बंटवाने लगे और अपनी प्रतिष्ठा रखने के लिये "नोचे पड़े की ऊंची टांग" वाली कहावत की तरह तस्वीर के नीचे लिखवाते हैं कि"तस्वीर सिर्फ परिचय के लिये" / परमोपकारी तीर्थंकर परमात्मा की
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________________ 23 तस्वीर-प्रतिमा-श्याकृति-चित्र से नफरत और नाराजगी करने वाले वे स्थानकपंथी आज तो अपनी जड़ी-जड़ायी तस्वीर एवं मले में लटकाने का तस्वीर युक्त लोकेट तैयार करवाकर अपने भक्तों को देते हैं। ___ किन्तु वर्तमान में तो ये लोग अपने गुरु के समाधिबंदिर तक बनवाते हैं / मेरठ में उनके गुरु का स्मारक स्वरूप कीर्तिस्तम्भ भी बना है, जिसके चारों ओर बाग, हरी दूब तथा बिजली प्रादि जगमगाते हैं, उन्हें देखकर ऐसा लगता है कि इन स्थानकपंथियों को वैमनस्य सिर्फ भमवान श्री तीर्थंकर परमात्मा की तस्वीर-प्राकृति-प्रतिमा से ही है, अन्य स्मृतिकारकों से नहीं। गुरु के समाधि मंदिर, माता-पिता की तस्वीर, सिनेमा के दृश्यों, जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा प्रादि को देखकर मनुष्य को खुशीनाखुशी का मानसिक अध्यवसाय होता है / इन सब बातों से यह प्रत्यक्ष सत्य है कि जड़ में भी चेतन पर उपकार या अपकार करने की बड़ी शक्ति है। ...... जड़ का चेतन पर महान प्रभाव पड़ता है। जैसे वीर पुरुषों की तस्बीर-चित्र-स्टेच्यू देखकर हमारे में वीरता का संचार होता है। क्या साधुवेष या शास्त्र ग्रन्थों को देखकर सिर श्रद्धा से नल-मस्तक नहीं होता है ? सिनेमा के परदे पर दिखाये जाने वाले दृश्य जड़ होने पर भी देखने वालों पर उसका गहरा असर पड़ता है / जड़ शराब प्रात्मा के चैतन्य गुण को नष्ट तक कर देती है / जड़ कर्म पुद्गल ने ही अनन्त शक्तिशाली हमारी प्रात्मा को बंधन में बांध रखा है / साधुवेष पहिनने मात्र से ही व्यक्ति वंदनीय बन जाता है / उतना ही नहीं छोटी मुहपत्ती की जगह लम्बी मुहपत्ती बांधने पर प्रतीक बदल जाने से साधु की पहिचान तक बदल जाती है, यह मूर्तिपूजा का ही एक प्रकार है / कोई स्थानकपंथी साधु अपने मुंह पर लगायी मुहपत्ती को तोड़ दें तो फिर
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________________ क्या उनके भक्तगण उनको वंदनीय मानेंगे ? क्या अन्य स्थानकपंथी मुनि उसको तिखुत्ता के पाठ से वंदन करेंगे? राजकीय पुरुषों की समाधि पर पुष्प चढ़ाना, राष्ट्रध्वज को वंदन करना-सलामी देना, देशनेताओं के बावले पर पुष्पमाला अर्पण करना, गुरु के जड़ भासन, पाट आदि को पैर न लगाना, गुरु की तस्वीर युक्त लोकेट बांटना यह सब मूर्तिपूजा के ही प्रकार हैं। समवसरण में चतुर्मुख तीर्थंकर का स्वीकार करने वाले शेष तीन प्रतिमा-मूर्तियों का अपलाप कैसे कर सकते हैं ? चारों तीर्थंकर भगवान के समक्ष लोग वन्दन, पूजन सत्कार, सम्मान करते हैं देवेन्द्र, चवर ढुलाते हैं, सब जीवों को स्व सम्मुख दर्शन-देशनादि मिलता है। इन सब तथ्यों से प्रतिमा-प्राकृति की महत्ता का सन्यायनिष्ट प्रामाणिक सज्जन कैसे अपलाप कर सकते हैं ? प्राचीन शिलालेखों एवं प्रतिमा पट्टों पर उट्टकित लेखों से प्रतिमा पूजा की ठोस सिद्धि होती है / जैनागम एवं प्राचीन जैन शास्त्र भी प्रतिमापूजा संबंधित इस सत्य तथ्य को जगह जगह पर पुष्टि करते ही हैं। दशवैकालिक शास्त्र तो दीवार पर चित्रित स्त्री-चित्र को ब्रह्मचारी के लिये खतरनाक बताते हुए उस स्थान में रहने का भी निषेध करता है। यथा 888 चित्तमित्तं न निज्माए, नारौं वा सु अलंकियं / ___ भक्खरं पिव बठ्ठणं, विट्ठि पडिसमाहुरे // [श्री दशवकालिकसूत्र-अध्ययन 8 (गाथा 55) Xxx . श्री कल्पसूत्र शास्त्र [सूत्र 103] बताता है कि
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________________ 4 तएणं से सिद्धत्थे राया दसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सइए अ साहस्सिए अ "जाए" अ दाए अ भाए अ दलमारणे म।xxx यहां प्राचीन टीकाकार महर्षि ने 'जाए' यानी याग का अर्थ जिनपूजा किया है। श्री आचारांग सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, तृतीय चूलिका पन्द्रहवें अध्ययन में भगवान श्री महावीर स्वामी के माता-पिता त्रिशलादेवी और सिद्धार्थ राजा को श्री पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा के ( संतानीय ) श्रावक बताये हैं। ऐसी दशा में श्री कल्पसूत्र शास्त्र कथित "जाए" यानी याग शब्द का अर्थ 'जिनपूजा' के सिवा अन्य क्या हो सकता है ? याग शब्द में यज् धातु है, जिसका अर्थ देवपूजा भी होता है। / प्रश्न होगा कि-"क्या पत्थर की गाय दूध देने में समर्थ है ? हां, पत्थर की गाय केवल पहिचान के लिए अवश्य काम आ सकती है।"-इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-"गाय-गाय" ऐसा नाम जाप करने से भी क्या गाय नाम का जाप दूध देने में समर्थ होगा? परमात्मा की मानी गई चैतन्य हीन मूर्ति अगर शुभ ध्यान एवं शुभ भाव में सहायक नहीं मानी जाए तो फिर परमात्मा का जड़ नाम शुभ अध्यवसाय में सहायक कैसे माना जा सकता है ? प्रस्तु / स्थापना निक्षेप का निषेध करने वाले कोई स्थानकपंथी अगर लोकोत्तर जैनधर्म का इतिहास लिखेगा तो जैसे कोई नादान वालक इधर-उधर टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें निकालकर उसको Map of India ( भारत का मानचित्र ) कहे और तुच्छ आनन्द मनाये ऐसी ही कुछ अजीब सी बाल चेष्टा प्राचार्य हस्तीमलजी ने जैनधर्म विषयक इतिहास को कल्पित एवं गलत लिखकर की है, जिससे जैन समाज को सावधान एवं सतर्क रहने की अत्यन्त आवश्यकता है।
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________________ 26 मुनिराज श्री भुवनसुन्दर विजयजी महाराज ने प्राचार्य हस्तीमलजी द्वारा लिखित "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" पुस्तक पर यह मीमांसा लिखी है। इस तर्कपूर्ण और शास्त्रीय मीमांसा के विषय में मैं क्या कह सकता हूं? पाठक स्वयं पठन करें, सोचें और सत्य समझने में सफलता प्राप्त करें यही शुभाभिलाषा है। न्यायविशारद, वर्धमान तपोनिधि चिन्तामरिण जैन उपाश्रय प्राचार्य देवेश मधुमति विजय भुवनमानुसूरिजी नवसारी (जि. सूरत) महाराज साहब * गुजरात दि० 15-6-83 शिष्य - मुनि गुणसुन्दर विजय का /
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________________ कल्पित इतिहास सावधान
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________________ * ॐ नमः स्याद्वादवादिने * श्री मृग नमो नमः [ प्रकरण-१ ] प्राक्कथन रागद्वेष विजेतारं, ज्ञातारं विश्व वस्तुनः / शक्र पूज्यं गिरामीशं, तीर्थेशं स्मृतिमानये / / जिसके वंदन, पूजन, सत्कार एवं सन्मान द्वारा राग-द्वेष प्रादि आन्तरिक शत्रु पर विजय पायी जाती है, ऐसे सुगृहीतनामधेय, सदैव स्मरणीय, इन्द्रपूज्य, स्याद्वादवादी तीर्थंकर परमात्मानों के नाम स्मरण पूर्वक द्रव्य-भाव मंगल करके, वर्धमानतपोनिधि, न्यायविशारद परमपूज्य गुरुदेव श्रीमद्, विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज साहब का शिष्य मैं [ मुनि भुवन सुन्दर विजय ] स्थानकमार्गी प्राचार्यश्री हस्तीमलजी महाराज द्वारा लिखित "जैन-धर्मका मौलिक इतिहास खंड-१ तथा खंड-२" पर मीमांसा करना चाहता हूं। श्वेताम्बर जैनमत में करीब 400 साल पहिले ऐसा मूर्तिभंजक हुआ जिसने मूर्तिपूजन के विषय में चैत्यवासी यतिओं की गलतो देखकर और मुसलमान सैयद के वचनों में आकर मूर्तिपूजा और मूतिमात्र का विरोध बोल दिया और ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि सिर दुःखता हो तो उसको काट डालना / इसी परम्परा के एक महाशय प्राचार्य हस्तीमलजी हैं अतः सज्जनों से प्रार्थना है कि जैनधर्म की रक्षा के सम्बन्ध में मेरी इस बात पर आप सावधान होकर ध्यान दीजिए / प्राचार्य हस्तीमलजी लिखित 'जैनधर्मका मौलिक इतिहास खंड-१, नया संस्करण जो 1982 में प्रकाशित हुआ है / खण्ड 1, नया संस्करण के मुख पृष्ठ और अन्तिम पृष्ठ पर चौबीस तीर्थंकरों के लांछन चिह्नों की तस्वीर छपी
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________________ [ 2 ] हुई है। तटस्थ इतिहास लिखने का दावा करने वाले प्राचार्य ने पुस्तक में तीर्थंकर परमात्मा की प्राकृति (तस्वीर) कहीं भी नहीं छपवायी है / तीर्थंकरों की भिन्न-भिन्न पहिचान कराने वाले लांछन चित्र देकर प्रौर तीर्थंकरों की तस्वीर न देकर प्राचार्य ने बहुत अनुचित कार्य किया है / किन्तु इस पुस्तक के अन्दर दानदाता गृहस्थ की तस्वीर अवश्य छपवायी है / इतिहास लेखक ने ज्ञानदाता तीर्थंकर परमात्मा की तस्वीर न छपवाकर और द्रव्यदाता गृहस्थ की तस्वीर छपवाकर पुस्तक के प्रारम्भ में ही उल्टी गंगा बहायी है। क्या उत्कृष्ट ज्ञानदाता तीर्थंकर परमात्मा से भी बढ़कर द्रव्यदाता गृहस्थ उपकारी है ? जो कि ज्ञानदाता की तस्वीर इतिहास में नहीं छपवायी और द्रव्यदाता गृहस्थ की तस्वीर छपवायी गयी। ____ यद्यपि इतिहास में नमस्कार महामंत्र और लोगस्स सूत्र का लिपिमय प्राकृति द्वारा प्राचार्य ने द्रव्य मंगल किया है। किन्तु तीर्थंकर की चित्रमय प्राकृति से द्रव्य मंगल नहीं माना ऐसा फर्क क्यों ? प्राचार्य को यह भूलना नहीं चाहिए कि तीर्थंकर भगवान के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव चारों ही निक्षेप मंगल रूप हैं एवं जगत के उपकारक भी हैं। "नामाकृतिद्रव्य भावः, पुनतस्त्रिजगज्जनम् / क्षेत्रे काले च सर्वस्मिन्नर्हतः, समुपास्महे / / " यह त्रिकाल अबाधित सत्य होते हुए भी प्राचार्य ने इसकी उपेक्षा की है। ये दो खंड करीब दो हजार पृष्ठों में प्रकाशित हैं। प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान से लेकर चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान तक [ एक कोड़ा कोड़ी सागरोपमकाल ] का इतिहास प्रथम खंड में तथा दूसरे खंड में श्री महावीर भगवान के प्रथम गणधर श्री
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________________ गौतमस्वामी तथा प्रथम पट्टधर श्री सुधर्मास्वामी से लेकर पूज्य देवद्धि गणि क्षमाश्रमण तक का एक हजार वर्ष का इतिहास दिया गया है / जिसमें प्राचार्य ने जैनधर्म के इतिहास को अप्रमाणिक एवं झूठा लिखकर अन्याय ही किया है / एक तटस्थ इतिहासकार के कथन में जो सत्यता, विचार में जो निष्पक्षता, सत्य कथन कहने में जो निडरता होनी चाहिए उनका प्राचार्य में सर्वथा अभाव ही पाया जाता है / जैन धर्म के प्राचार्य, जैनधर्म विषयक इतिहास में तोड़-मरोड़ करें, झूठ लिखें, अप्रामाणिक वचन प्रस्तुत करें, अन्याय पूर्ण वचन कहें, सत्य तथ्य को छिपाने का जघन्य प्रयास करें या सत्य को अर्धसत्य के रूप में बतायें इससे बड़ा खेद का विषय अन्य क्या हो सकता है ? यह बात कहते हुए हमको अपार दुःख है कि प्राचार्य हस्तीमलजी ने अपने "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" ग्रन्थ में कई ऐसी बातें लिखी हैं जो असंगत हैं। वे उनको कहाँ से लाये इनका कुछ आधार-प्रमाण भी उन्होंने नहीं दिया है / इसीलिये यह इतिहास नितांत कल्पित एवं अन्याय पूर्ण ही है और खोज-संशोधन करने वाले को कुछ भो प्रेरणा और मार्गदर्शन देने में असमर्थ है। जिनप्रतिमादि विषयक तथ्यों को छिपाकर प्राचार्य ने केवल सम्प्रदायवाद और एकान्तवाद का ही प्राश्रय लिया है, जो इतिहास-लेखक के नाते सर्वथा अनुचित है। प्राचार्य यह बात सर्वथा भूल गये हैं कि स्वोत्प्रेक्षित तर्क और अनुमान के प्राधार पर प्रामाणिक इतिहास कभी भी नहीं लिखा जाता है। और यदि कोई ऐसा इतिहास लिखे तो ऐसे इतिहास को कौन उचित मानेगा ? इतिहास सत्य पर आधारित होता है, जबकि प्राचार्य द्वारा लिखित इतिहास को समिति द्वारा स्वमान्यतानुसार निर्माण करवाया गया है / जो स्थानकपंथ को छोड़कर अन्य जैन समाज इससे सहमत नहीं हो सकता, और न इसको जैन धर्म का मौलिक इतिहास कहा जा सकता है।
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________________ [ 4 ] इस इतिहास में प्राचार्य हस्तीमलजी ने जगह-जगह असत्य लिखकर जैनधर्मके विषयमें भ्रम फैलाया है। कथानकों के तथ्योंको गलत लिखकर ऐतिहासिक वास्तविकता की ओर से प्रांखें बन्द करली हैं / इसको जैनधर्म का इतिहास कहना मजाक मात्र है। प्राचार्य द्वारा इतिहास में जिनमंदिर, जिनप्रतिमा तथा जिनप्रतिमा पूजा के विषय में सत्य तथ्य छिपाने और जैनधर्म की गरिमा को घटाने का निकृष्ट प्रयास किया गया है, जो सर्वथा प्रस्तुत्य है / स्थानक पंथ व्यामोह में फैसकर, स्वपंथ के तुच्छ स्वार्थवश प्रतिमा प्रादि अनेक विषयों में जानबूझकर परिवर्तन कर एवं सत्य बात से दूर रहकर प्राचार्य ने अपना उल्लू सीधा करना चाहा है। जैनागमों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य तथा प्राचीन मूर्तियाँ, शिलालेख आदि तथ्यों से जिनप्रतिमापूजा सत्य सिद्ध होते हुए भी अप्रामाणिक बातें लिखकर प्राचार्य ने सर्वथा झूठ का सहारा लिया है। स्थानकमार्गी सम्प्रदाय के जानेमाने विद्वान प्राचार्य हस्तीमलजी महाराज ने तटस्थता, निष्पक्षता एवं सत्य लिखने की प्रतिज्ञा करने के बावजूद भी सत्य पथ से विपरीत चलकर जैनधर्म को भारी क्षति पहुंचायी है। स्थानकमार्गी समर्थ आचार्य इतनी बड़ी अप्रामाणिकता कर सकते हैं यह भी एक सखेद पाश्चर्य है। एक प्रामाणिक इतिहासकार को चाहिए कि वह चाहे कोई भी पंथ या प्राम्नाय में विश्वास करते हों किन्तु वे जिस पंथ या प्राम्नाय के विषय में लिखें, वह सत्य होना चाहिए। किन्तु प्राचार्य ने जैनधर्म विषयक इतिहास को असत्य लिखकर जैन समाज में विषैला भ्रम फैलाया है। हमारा यह स्पष्ट मत है कि कोई भी स्थानकपंथी कभी भी जैनधर्म विषयक इतिहास को सत्य और प्रामाणिक लिख ही नहीं
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________________ [ 5 ] सकता क्योंकि जैनधर्म के मूल में प्रतिमा पूजा की मान्यता है, जिसमें स्थानकपंथी कदापि विश्वास नहीं करते हैं / अगर प्राचार्यको जैनधर्मविषयक इतिहास गलत एवं कल्पित हो लिखना था तो इतिहास लिखने की जरूरत ही क्या थी ? प्रामाणिक इतिहास लिखने की प्रतिज्ञा करना और सत्य छिपाना दोनों एक साथ नहीं हो सकता यह बात प्राचार्य को भूलनी नहीं चाहिए थी। सत्यप्रिय जैन समाज को सावधान एवं सतर्क होकर अप्रामाणिक एवं स्वोत्प्रेक्षित तर्क के आधार पर लिखे गये इस इतिहास का अनादर एवं बहिष्कार करना चाहिए। भविष्य में कोई भी लेखक ऐसे किंवदन्ती स्वरूप इतिहास प्रादि पुस्तक को मुद्रित कर जैनधर्म को प्राघात पहुचाने की एवं साम्प्रदायिक विष फैलाने की चेष्टा न करें, यही शुभ उद्देश्य लेकर पूज्य गुरुदेव श्री की अनुमति एवं कृपा पूर्वक इस इतिहास की मीमांसा करना हमने उचित समझा है। संभव है कि उक्त प्राचार्य हस्तीमलजी आगे भी जैनधर्म विषयक इतिहास के अन्य खंड प्रकाशित करवायेंगे, हम उनसे पाशा करते हैं कि वे भविष्य में सत्य का प्राश्रय अवश्य लेंगे। प्राचार्य ने एक अनुचित कार्य यह भी किया है कि उन्होंने स्थानकपंथी मान्यतायुक्त इस ग्रन्थ का नाम-"जैनधर्म का मौलिक इतिहास" रखा है / जो कि सर्वथा अमौलिक होने के साथ-साथ भोलेजनों को भ्रम में डालने वाला है। तत्त्वप्रिय एवं सत्यप्रिय समाज को ऐसे अमौलिक इतिहास को भर्त्सना करनी चाहिए। मैं पाठकों के समक्ष प्राचार्य द्वारा रचित इतिहास में से गलत एवं अप्रामाणिक अंशों का उद्धरण करूंगा।
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________________ प्राशा व्यक्त करता हूँ कि सभी सज्जन मेरी इस कृति को स्वीकार करेंगे तथा ऐसी कृतियों का अधिक से अधिक प्रचार प्रसार कर नामधारी प्राचार्यादि द्वारा होते विषैले प्रचार को रोकने का भरसक प्रयत्न करेंगे। रायपसेणी जीवाभिगमे, भगवती सूत्रे भाखी जी। जंबूद्वीप पन्नती ठाणांगे, विवरीने घणु दाखीजी // वली अशाश्वति ज्ञाता कल्पमां, व्यवहार प्रमुखे आखीजी। ते जिन प्रतिमा लोपै पापी, जिहां बहुसूत्र छ साखी जी॥ न्यायविशारद पू० यशोविजयजी महाराज के लघुभ्राता -श्री पद्मविजयजी महाराज
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________________ [प्रकरण-२] तीर्थंकरों का जन्म महोत्सव जब भी पुण्यात्मा तीर्थंकर परमात्मा का जन्म होता है, तब छप्पन दिक्कुमारिकाएं आती हैं, माता एवं पुत्र का सुचिकर्म करती हैं। इन्द्रों का सिंहासन कंपायमान होता है / सौधर्म इन्द्र भगवान को मेरुपर्वत पर ले जाता है, वहाँ 64 इन्द्र इकट्ठे होकर अपार भक्तिपूर्वक जन्माभिषेक महोत्सव सानन्द मनाते हैं / बाद में वे देव-देवेन्द्र नंदीश्वरद्वीप में जाकर, वहां स्थित शाश्वत जिनमंदिरों में पाठ दिन का भक्ति महोत्सव मनाते हैं। "जैनधर्म का मौलिक इतिहास", खंड-१, पृ० 15 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि Xxx महान पुण्यात्मा ( तीर्थकर परमात्मा ) जब जन्म ग्रहण करते हैं, उस समय 56 विककुमारियों और 64 देवेन्द्रों के आसन प्रकम्पित होते हैं / अवधिज्ञान के उपयोग के द्वारा जब उन्हें विदित होता है कि तीर्थकर का जन्म हो गया है, तो वे सब अनादिकालसे "परंपरागत" दिककुमारियों और देवेन्द्रों के "जीताचार" के अनुसार अपनी अद्भुत दिव्यदेव ऋद्धि के साथ अपनी अपनी मर्यादा के अनुसार तीर्थंकर के जन्मगृह तथा, मेरुपर्वत और नन्दीश्वर द्वीप में उपस्थित हो, बड़े ही हर्षोल्लास पूर्वक जन्माभिषेक आदि के रूप में तीर्थंकर का जन्म महोत्सव मनाते हैं / यह संसार का एक अनादि अनन्त शाश्वत नियम है।
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________________ - मीमांसा–प्राचार्य ने अपनी कल्पित कल्पना परम्परागत, जीताचार, अपनी अपनी मर्यादा और शाश्वत नियम इन चार शब्दों से की है। खंड-१ पृ 15 से 16 में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक महोत्सव मेरुपर्वत पर देव-देवेन्द्र कैसे मनाते हैं आदि का वर्णन किया है। किन्तु सत्य तथ्य को विपरीत करके यह तो 'जीताचार' है या 'परंपरागत' है ऐसा लिखना नितान्त असत्य एवं एकपक्षी होने के कारण सर्वथा गलत भी है / जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति शास्त्र के तीसरे अधिकार में लिखा है कि जन्माभिषेक महोत्सव में आनेवाले देव कोई स्वतः अपार भक्तिवश, कोई प्रियतमा देवी की प्रेरणा से, कोई मित्र के वचन से, कोई कौतुक से, कोई इन्द्र की प्राज्ञा से, तो कोई अपना प्राचार कर्तव्य समझकर प्रभुजन्म महोत्सव में शामिल होते हैं। 808 श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति कथित शास्त्रपाठ इस प्रकार है, यथाः-अप्पेगइया बंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कार सम्माण दंसण कोउहल्ल अप्पे सक्कस्स बयनुयसमाणा अप्पे अण्णमणु यत्तमाणा अप्पेजीयमेयं एवमादि / xxx अतः मात्र शाश्वत आचार से या परम्परागत रीति से देव-देवेन्द्र मेरुपर्वत पर जन्माभिषेक महोत्सव मनाते हैं, ऐसा लिखने में प्राचार्य का अनेकान्त दृष्टि एवं प्राचीन जैनागमों के प्रति कृतज्ञता तथा परमात्मा के प्रति भक्ति भाव का सर्वथा अभाव ही व्यक्त होता है। परम्परा से आने का अर्थ तो यही हुआ कि देव-देवेन्द्र बेचारे लाचारी से, मजबूरी से, अनिच्छा से या उदासीनता से पाते हैं। किन्तु प्राचार्य का ऐसा लिखना उन देवों की भक्ति की महिमा पर लांछन लगाना है। देव-देवेन्द्र नन्दीश्वर द्वीप में जाकर "बड़े हर्षोल्लास के साथ" लगातार आठ दिन तक प्रभुभक्ति महोत्सव मनाते हैं। इस विषय में खंड-१, पृ० 555 पर प्राचार्य लिखते हैं कि
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________________ [6] xxx इस प्रकार घोषणा करवाने के पश्चात् शक्र और सभी देवेन्द्रों ने नन्दीश्वर द्वीप में जाकर तीर्थकर भगवान का अष्टान्हिक जन्म-महोत्सव मनाया / "बड़े हर्षोल्लास" के साथ अष्टान्हिक महोत्सव मनाने के पश्चात् सभी देव और देवेन्द्र आदि अपने अपने स्थान लौट गये।४४४ ___ मीमांसा - "बडे हर्षोल्लास" शब्द से यह स्पष्ट होता है कि देवों द्वारा जन्माभिषेकादि महोत्सव मनाना परम्परागत या रूढि मात्र ही नहीं है। क्योंकि परम्परागत और रूढि की क्रिया में तो प्रायः हर्षोल्लास का अभाव ही पाया जाता है / अत: प्राचार्य हस्तीमलजी का परम्परागत, शाश्वत नियम, जिताचार प्रादि शब्दों का प्रयोग करना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण ही है / अगर देव फार्मोलिटी पूरी करते यानी रीतरश्म निभाने हेतु ही महोत्सव मनाते तो "बड़ा हर्षोल्लास" नहीं आता। सिर्फ खाना पति ही करनी होती तो नंदीश्वर द्वीप में जाकर लगातार पाठ दिन का महोत्सव मनाना और वह भी "बड़े हर्षोल्लास से" यह परम्परा से संभव नहीं हो सकता जैसा कि उनका कहना है / देव और देवेन्द्रों के दिल में अपने तारक देवाधिदेव परमात्मा के प्रति इतनी अपार भक्ति है कि भगवान का जन्म-महोत्सव मेरुपर्वत पर भगवान को ले जाकर करने पर भी संतुष्ट न हुए, तो बाद में भगवान को लाकर, माता को सौंपकर सब देवों ने नन्दोश्वर द्वीप में जाकर, वहाँ स्थित शाश्वत जिनमन्दिरों में लगातार आठ दिन का अपार भक्तिवश अष्टाह्निक महोत्सव मनाया। केवल जिताचार, परम्परागत ऐसे तुच्छ शब्दों का प्रयोग करके और नन्दीश्वर द्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिरों का उल्लेख न करके प्राचार्य ने इन देव-देवेन्द्रों की अपार भक्ति की महिमा को कम करने का एवं सत् वस्तु "नन्दीश्वरद्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिरों का" विरोध करने का निर्लज्ज प्रयास किया है, जो सर्वथा अनुचित है।
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________________ [ 10 ] प्रभुभक्ति की महिमा देवों के दिल में कैसी बसी है इस विषय में "श्री पंच प्रतिक्रमण सूत्र" में पूर्वाचार्य लिखते हैं कि येषामभिषेक कर्मकृत्वा, मत्ता हर्ष भरात् सुखं सुरेन्द्राः / तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः / / अर्थात-जिन तीर्थंकर परमात्मानों का अभिषेक कार्य करके हर्षवश मस्त सुरेन्द्र स्वर्ग सुख को तृणमात्र भी नहीं गिनते, वे जिनेन्द्र भगवान प्रातः काल में शिवसुख [निरुपद्रवता कल्याण ] के लिये हों। देव-देवेन्द्रों में भगवान के प्रति अपार भक्ति कैसी है कि वे देवलोक के सुखों को प्रभुभक्ति के आगे तृण बराबर भी नहीं गिनते हैं। देव-देवेन्द्रों की अपार भक्ति के दृष्टान्त से तो प्राचार्य को परमात्मा पर अपार भक्ति करना सीखना चाहिए, यह भक्ति तीर्थंकर मामकर्म का बंध कराती है। किन्तु प्राचार्य की हठधर्मिता देखो कि देव-देवेन्द्रों जैसी भगवद् भक्ति सीखना तो दूर रहा, किन्तु परम्परागत जैसे हल्के शब्दों को लिखकर उन देव-देवेन्द्रों की भक्ति की महिमा घटा रहे हैं और नन्दीश्वर द्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिर के तथ्य को छिपाने का अशोभनीय प्रयास कर रहे हैं। जिसके दिल में तीर्थंकर परमात्मा की भक्ति का अंश मात्र भी न हो, क्या वह देवों की अपार, भक्ति का मूल्य कर सकता है ? तथा जैनागमों पर सच्ची श्रद्धा का प्रभाव वाला व्यक्ति क्या नन्दीश्वर द्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिरों के सत्य को स्वीकार कर सकता है ? सच ही कहा है जाके दिल में झूठ बसत है, ताको सत्य न भावे / भक्त के मन में मुक्ति से भी प्रभुभक्ति का मूल्य अधिक होता है / -न्यायविशारद पू० यशोविजयजी उपाध्यायजी
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________________ [प्रकरण 3] शासन रक्षक देव-देवियां जैनधर्म में शासन रक्षक देव-देवियों की मान्यता मूर्तिपूजा जितनी ही प्राचीन है / चौबीस भगवान के शासनरक्षक देव यक्षयक्षिणी होते हैं, जो समय-समय पर पाकर जनशासन की रक्षा एवं जैनशासनोन्नति के कार्यों को करते हैं / उनकी ऐसी अनुमोदनीय प्रवृत्ति की अनुमोदना हेतु प्रतिक्रमण में भवनदेवी श्रुतदेवी आदि का प्रशंसा सूचक काउस्सग्ग भी किया जाता है। इन देव-देवियों के विषय में आचार्य हस्तीमलजी खंड-१, पृ० 18 'अपनी बात' में लिखते हैं कि xxx प्रत्येक तीर्थकर के शासन-रक्षक यक्ष-यक्षिणी होते हैं, जो समय समय पर शासन की संकट से रक्षा और तीर्थंकरों के भक्तों की इच्छा पूर्ण करते रहते हैं। 8xx मीमांसा-यद्यपि प्रागमिक तथ्य होते हुए भी स्थानकपंथी एवं प्राचार्य हस्तीमलजी इन देव-देवियों में विश्वास नहीं करते हैं। फिर भी उक्त तथ्य लिखना भोले जनों को धोखा देना मात्र ही है। खंड-१, पृ० 788 पर प्राचार्य द्वारा "तीर्थंकर परिचय पत्र" बहुत लम्बा-चौड़ा दिया गया है। इसकी प्रशंसा कुछ विद्वानों ने की है। इस परिचय-पत्र में तीर्थंकर भगवान के दीक्षा के साथी, प्रथम तप, प्रथम पारणा दाता, छद्मस्थ काल आदि अनेकविध माहिति संदृब्ध की गयी है / किन्तु इस विशाल परिचयपत्र में चौबीस तीर्थंकरों के यक्ष
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________________ [ 12 ] यक्षिणी का परिचय एवं चित्र द्वारा मार्गदर्शन तो दूर नाम तक नहीं दिया है / इसके कारण ही यह परिचय-पत्र प्राचार्य के पक्षपातित्व का परिचायक मात्र है। वरना प्रसंगोपात् वहां यक्ष-यक्षिणी का नाम एवं परिचय देना अत्यन्त आवश्यक था / इतिहासकार को सत्य हकीकत लिख देना चाहिए किन्तु अभिनिवेश वश आचार्य ने चौबीस तीर्थंकरों के शासन रक्षक देव-देवियों के साथ पक्षपात कर "तीर्थंकर परिचय पत्र" को भी अपूर्ण ही रखा है। देव-देवियों के विषय में प्राचार्य दुरंगी नीति रीति अपना रहे हैं / इस विषय में इनके इतिहास में स्वीकार और इन्कार दोनों साथ साथ चलते हैं, जो अनुचित तरीका है। एक अन्य पुस्तक "सिद्धान्त प्रश्नोत्तरी" जो सर्वथा शास्त्र निरपेक्ष होने के कारण कल्पित है, इसमें प्राचार्य लिखते हैं कि- "देव देवियां कुछ देते नहीं हैं।" किन्तु प्रागमिक तथ्य इससे बिलकुल विपरीत ही है। क्योंकि प्राचार्य ही लिखते हैं कि कृष्ण की माता देवकी को कृष्ण द्वारा तेले (अट्ठम) के तप पूर्वक हरिणगमेषी देव को प्राराधना करने से गजसुकुमाल नामक पुत्र मिला था। खंड-१, पृ० 364 पर यथा xxx देवकी के मनोरथ की पूर्ति हेतु कृष्ण ने तीन दिन का निराहार तप कर देव का स्मरण किया / एकानमन द्वारा किया गया चिन्तन इन्द्र-महेन्द्र का भी हृदय हर लेता है, फलस्वरूप हरिणेगमेषी का आसन डोलायमान हुआ। वह आया।xxx xxx ( हरिणेगमेषी ) देव ने कहा—देव लोक से निकलकर एक जीव तुम्हारे सहोदर भाई के रूप में उत्पन्न होगा।xxx मीमांसा-प्राचार्य द्वारा कथित उक्त तथ्य से यह सिद्ध होता है कि देव-देवियां कुछ देते हैं / अगर देव की सहायता से पुत्र प्राप्ति
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________________ [ 13 ] रूप कार्य नहीं होता तो तीन दिन का निराहार तप करके उनको बुलाना व्यर्थ ही था / ऐसी दशा में "सिद्धान्त प्रश्नोत्तरी" किताब में देव-देवियां कुछ देते नहीं हैं ऐसा प्राचार्य का लिखना सर्वथा झूठ ही रहा। अपरं च वैरोट्या देवी के विषय में खंड-२ पृ० 550 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx भगवान पार्श्वनाथ के चरणों में भक्ति रखने वाले भक्तों के कष्टों का निवारण करने में वह ( वैरोट्यादेवी धरणेन्द्र की महिषी ) समय समय पर उनकी सहायता करने लगी।xxx मीमांसा-इन तथ्यों से इस बात की सिद्धि होती है कि स्थानकपंथी लोग जो देव-देवियों के विषय में भ्रमपूर्ण बात लिखते मानते हैं, उनका यह भ्रम दूर हुआ होगा। खंड-१, पृ० 524 पर प्राचार्य लिखते हैं कि 800 श्रद्धालु भक्तों को यह निश्चित धारणा है कि इन ( पद्मावती, काली, महाकाली आदि ) देवियों (धरणेन्द्र आदि ) देवों और देवेन्द्रों ने समय समय पर शासन को प्रभावना की है। इसका प्रमाण यह है कि धरणेन्द्र और पद्मावती के स्तोत्र आज भी प्रचलित हैं।४४४ मीमांसा-"श्रद्धालु भक्तों की यह धारणा है" ऐसा लिखने का अर्थ तो यही हो सकता है कि प्रश्रद्धालु होने के कारण प्राचार्य की ऐसी धारणा नहीं है। यानी स्थानकपंथी प्राचार्य हस्तीमलजी शासन रक्षक देव-देवियों में अविश्वास करते हैं, किन्तु यह जैनागम और प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य का ही अविश्वास एवं अनादर करने के बराबर है / खंड-२, पृ० 550 पर आचार्य लिखते हैं कि
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________________ [ 14 ] xxxकहा जाता है कि आचार्य नन्दिल ने वैरोट्या के स्तुति परक “नमिऊण जिणं पासं" इस मंत्र गभित स्तोत्र की रचनाकर वैराट्या की स्मृति को चिरस्थायी बनाया।xxx मीमांसा-देव-देवियों की बात स्पष्ट रूप से प्रागम शास्त्रों में कथित है। फिर भी ' कहा जाता है" ऐसा प्राचार्य का लिखना अन्याय ही है। श्री भगवती सूत्र में सूत्रकार महर्षि ने भी यक्ष-यक्षिणियों का लिपिबद्ध मंगल किया है / द्वादशांगी के पांचवें अंग भगवती सूत्र के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी खण्ड-२ पृ० 170 पर लिखते हैं कि 88 द्वादशांगी के पांचवें अंग "व्याख्या प्रज्ञप्ति" [ अपरनाम श्री भगवती सूत्र ] की आदि में "पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र", "णमो बंभीए लिवीए" और णमो सुयस्स पद से मंगल किया है और अन्त में संघ स्तुति के पश्चात् गौतमादि गणधरों, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति, द्वादशांगी रूप गणिपिटक, श्रुतदेवता, प्रवचनदेवी, कुभधर यक्ष, ब्रह्मशांति, वैरोट्यादेवी, विद्यादेवी और अंतहुडी को नमस्कार किया गया है।xxx ___ मीमांसा–यहां स्वयं सूत्रकार महर्षि ने अन्तिम मंगल के रूप में कुम्भधर यक्ष, वैरोट्यादेवी प्रादि को नमस्कार किया है / इतना ठोस आगम वचन होते हुए भी प्राचार्य का पक्षपात देखो कि देव-देवियों के विषय में “ऐसा माना जाता है", "ऐसा कहा जाता है" ऐसे घटिया शब्दों का प्रयोग करके अप्रमाणिकता कर रहे हैं। महान जैनाचार्य श्री नन्दिल के विषय में प्रागमिक तथ्य सत्य होते हुए भी "कहा जाता है" ऐसा प्राचार्य लिखते हैं, जो प्राचार्य के अनिश्चित चित्त का परिचायक है। किन्तु ऐसी अनिश्चितता और अप्रमाणिक बातें तो इस कल्पित इतिहास में जगह जगह लिखी मिलती हैं / खंड-२, पृ० 646 पर प्राचार्य लिखते हैं कि
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________________ [ 15 ] xxx भयहर स्तोत्र भी आचार्य मानतुंग की रचना मानी जाती है। 000 मीमांसा—'मानी जाती है' ऐसा संदिग्ध लिखकर प्राचार्य अपने इतिहास को कौड़ी की कीमत का कर रहे हैं क्योंकि इतिहास के लेखन में सत्य कथनों को ऐसे संदिग्ध रूप में लिखना दोषपूर्ण होता है। शासन रक्षक देव-देवियां अवसर पर प्राकर तीर्थंकर के भक्तों के संकट निवारण करते हैं, इस विषय में श्री स्थूलिभद्र महामुनि की बहिन साध्वी यक्षा की बात आगम प्रसिद्ध है, जो शासन रक्षक देवी की सहायता से श्री सीमंधर भगवान के पास गयी थी। इस विषय में खंड-२, पृ० 776 पर प्राचार्य लिखते हैं कि x0X यदि कोई कहदे कि ( भाई साधु श्रीयक की मौत के विषय में ) यक्षा निर्दोष है, तभी मैं ( यक्षा ) अन्न-जल ग्रहण करूंगी अन्यथा नहीं / xxx 300 अन्ततोगत्वा शासनाधिष्ठात्री देवी की संघ ने आराधना की और देवी सहायता से आर्या यक्षा महाविदेह क्षेत्र में श्रीमंदरस्वामी के समवसरण में पहुँची।xxx xxx देवी सहायता से आर्या पुनः लौट आयो।xxx मीमांसा-उक्त बात से यह स्पष्ट है कि देव-देवियां जैनशासन की सहायता करते हैं / बड़े बड़े प्राचार्यों ने भी उनकी भक्ति की अनुमोदनार्थ स्तोत्र रचे हैं। उनके शासन सेवा की अनुमोदना निमित्त प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग भी किया जाता है। जिन प्रतिमा की तरह देव-देवियों की प्राचीन मूर्तियां भी जमीन में से निकलती हैं, इस ध्वंसावशेष प्रतिमा की चौकियों पर उट्ट कित लेख से यह भी निर्णय होता है कि पूर्वाचार्यों ने ही इन शासन रक्षक देव-देवियों की मूर्ति की
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________________ [ 16 ] प्रतिष्ठा करवायी थी। श्री भगवती सूत्र आदि पागम शास्त्रों में भी देव-देवियों की बात आती है / आदि अनेक तथ्य होते हुए भी आचार्य हस्तीमलजी यक्ष-यक्षिणी के विषय में प्रकाश में प्राना पसन्द नहीं करते हैं, यह उनका गहरा पक्षपात ही है। प्रागरा लोहामंडी से छपी 'मंगलवाणी' किताब, संकलनकर्ता स्थानकपंथी अखिलेशमुनि ने पृ० 354 ( ग्यारहवाँ संस्करण ) पर "घंटाकर्ण महावीर का मंत्र" दिया है, और इसको 21 बार गिनने पर भूत-प्रेतादि पीडा नाश होती है ऐसा लिखा है / जब स्थानकपंथियों को "घंटाकर्ण महावीर" के विषय में पूछते हैं तब वे इस विषय में कुछ नहीं बताते हैं / किन्तु इस "घंटाकर्ण महावीर मंत्र" से भी स्थानकमार्गी द्वारा देव-देवियों के तथ्य को पुष्टि तो अवश्य होती ही है / फिर सत्यतथ्य को स्वीकारने में इन्कार क्यों ? अनेकान्त का समुचित बोध रहित सम्यग्दर्शन द्रव्य सम्यग्दर्शन है / -पू० यशोविजयजी उपाध्याय महाराज
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________________ . ॐ686660888 on अत्यन्त प्राचीन भव्य जिन प्रतिमा जो जरमनी के संग्रहालय में है।
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________________ [प्रकरण-४] तीर्थंकरों की माता के गर्भ में भी पूजनीयता जब जगत्वंद्य तीर्थंकर परमात्मा माताकी कुक्षि में आते हैं तब भी पूजनीय होते हैं। वैसे माता की कुक्षि में आये हुए तीथंकर द्रव्य तीर्थंकर हैं, फिर भी वे देवेन्द्रों के भी पूजनीय बनते हैं। तो फिर "देवा वि तं नमसंति" इस आगमवचनानुसार जन सामान्य के भी पूजनीय बनें इसमें आश्चर्य ही क्या ? तीर्थकर परमात्मा माता की कुक्षि में पाते हैं तब देवेन्द्र सिंहासन पर से नीचे उतर जाता है, उत्तरासंग करके अपने सिंहासन से सात-पाठ कदम आगे चलकर भगवान जिस दिशा में हों उसी दिशा में प्रणाम करके भगवान की स्तुति स्वरूप "शक्रस्तव" [नमुत्थुणं] सूत्र बोलता है / उक्त बात श्री कल्पसूत्र शास्त्र में 14 पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामी ने भी कही है। प्राचार्य हस्तीमलजी खंड 1, पृ० 15 पर लिखते हैं कि xxx सर्व प्रथम उन्होंने ( चौसठ इन्द्रों ने ) सिंहासन से उठ प्रभु जिस दिशा में विराजमान थे उस दिशा में उत्तरासंग किये, सात-आठ कदम आगे जा प्रभु को प्रणाम किया।xxx मीमांसा-श्री कल्पसूत्र शास्त्र में कहा है कि शक्र 'नमुत्थरणं' सूत्र का पाठ बोलता है। फिर भी मनमानी करके प्राचार्य ने शक्रस्तव के कथन को छिपा ही लिया है, क्योंकि माता की कुक्षि में आये हए तीर्थंकर द्रव्य तीर्थंकर हैं, उनको भी प्रादिकर, तीर्थंकर प्रादि 33
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________________ [ 18 ] विशेषणों से श्री कल्पसूत्रशास्त्रकार द्वारा समादर किया गया है, यह बात प्राचार्य को स्वमान्यता विरोधक होने से कांटे की तरह चुभनेवाली है, अतः उन्होंने अप्रमाणिकता पूर्वक श्री कल्पसूत्र शास्त्र कथित 'नमुत्थुणं' का पाठ छिपाया है। किन्हीं जोवों को मिथ्यात्व का उदय ही इतना अभिनिवेश पूर्ण होता है कि वह सत्य को सत्य रूप में लिखने * तक नहीं देता। पूज्य तीर्थंकर प्रत्येक अवस्था में पूजनीय-वंदनीय हैं, इस विषय में भावि तीर्थंकर श्री महावीर भगवान के पूर्व भवधारी मरीचि को प्रथम चक्रवर्ती भरत द्वारा प्रणाम करना शास्त्र प्रसिद्ध दृष्टान्त है / भरत चक्रवर्ती के उत्तर में श्री ऋषभदेव भगवान ने कहा कि-"हे भरत ! तेरा पुत्र मरीचि भावि 24 वा तीर्थकर होगा / तब जाकर भरत ने त्रिदण्डी तापस वेश धारक मरीचि को प्रणाम किया। उक्त बात को खंड 1, पृ० 116 पर प्राचार्य भी व्यक्त करते हैं, यथा xxx मरीचि के पास जाकर उसका अभिवादन करते हुए (भरत) बोले-"मरीचि ! तुम तीर्थकर बनोगे इसलिये तुम्हारा अभिवादन करता हूं। मरीचि ! तेरी इस प्रवज्या को एवं वर्तमान जन्म को वंदन नहीं करता हूँ, किन्तु तुम जो भावी तीर्थंकर बनोगे इसलिये मैं वंदन करता हूँ।"Xxx मीमांसा-भावि तीर्थंकर को भी सम्यग्दृष्टि भरत वंदन करते हैं, इस तथ्य से यह सत्य सिद्ध होता है कि कोहिनूर हीरा भले चाहे खान में पड़ा हो, कोहिनूर ही है / वैसे ही तीर्थंकर परमात्मा भी सदैव वंदनीय एवं पूजनीय हैं / - शास्त्रीय कथन होते हुए भी द्रव्य तीर्थंकर को पूजनीयता में मविश्वास करने वाले प्राचार्य अपनी नाराजगी प्रगट करते हुए कहते हैं कि
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________________ [ 16 ] xxxभरत द्वारा भावि तीर्थकर मरीचि को प्रणाम करना मूल जैनागमों में दृष्टिगोचर नहीं होता है, किन्तु कथाग्रन्थों में ऐसी बात लिखी है।xxx किन्तु ऐसी अप्रमाणिक बात लिखने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी को यह बताना चाहिए कि श्री महावीर स्वामी के जीव ने किस जगह, किस समय कौन से कारण नीच गोत्र का बंध किया था, जिसके प्रभाव से श्री महावीर स्वामी के भव में उनको ब्राह्मणी की कुक्षि में पैदा होना पड़ा था। सुभूम चक्रवर्ती, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती, चन्द्रगुप्त चाणक्य का कथानक, सगर चक्रवर्ती को वैराग्य, श्री महावीर स्वामी के सत्ताईस भव, नंदवंश की स्थापना प्रादि अनेक बातें पागम ग्रन्थों में नहीं होते हुए भी प्राचार्य ने कथा ग्रन्थों के सहारे ही लिखी हैं / फिर इस बात में संदेह क्यों? प्रार्या चंदनबाला के विषय में खंड 1, (पुरानी प्रावृत्ति) पृ० 345 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx चन्दना ने जब कुछ समय बाद यौवन में पदार्पण किया तो उसका अनुपम सौंदर्य शतगुणित हो उठा। उसको कज्जल से भी अधिक काली केशराशि बढ़कर उसकी पिण्डलियों से अठखेलियां करने लगी।xxx मीमांसा-प्रार्या चंदनबाला के विषय में उक्त बात इतिहासकार ने. कौन से मूलागम के प्राधार पर लिखी है, यह प्रामाणिकता पूर्वक कहना चाहिए एवं नंदवंश की स्थापना के अवसर पर खंड 2, पृ० 268 पर प्राचार्य लिखते हैं कि
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________________ [ 20 ] 444 उदायी का राज छत्र भी स्वतः ही नन्द के मस्तक पर तन गया और नन्द के दोनों ओर मन्त्राधिष्ठित वे दोनों चामर स्वतः ही अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो, व्यजित होने लगे।xxx मीमांसा-उक्त बात भी इतिहासकार प्राचार्य ने कौन से मूलागम में से लिखी है ? इतना ही नहीं प्राचार्य के माने हुए 32 मूलागम या एकादश अंग के मूलपाठ में कहीं भी सामायिक की विधि, प्रतिक्रमण की विधि, पोसह की विधि का उल्लेख नहीं है। तो फिर सामायिक, प्रतिक्रमण और पौषध प्रादि की विधि वे कौन से प्राधार पर कर रहे हैं ? सच तो यह है कि आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य भी हमारे लिये उतना ही विश्वसनीय है जितना आगमशास्त्र / क्योंकि प्रागमेतर जैन साहित्य के रचयिता वे जैनपूर्वाचार्य हैं जो पंचमहाव्रत धारक एवं उत्सूत्रभाषण के वज्रपाप से डरने वाले भवभीरु थे। कलिकाल सर्वज्ञ पूज्यपाद् श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज रचित "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" में भरत ने भावि तीर्थंकर मरीचि को प्रणाम किया था ऐसी बात आती है और "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" विश्वसनीय है इस बात को प्राचार्य स्वयं ही खंड 2, पृ० 56 पर कहते हैं 888 यह है आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र का उल्लेख जो पिछली आठ शताब्दियों से भी अधिक समय से लोकप्रिय रहा है / Xxx मीमांसा- बहुत सी ऐसी बातें हैं जिसको प्रमाणित करने के लिये प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य का ही एकमात्र प्रमाणिक सहारा और सच्चा आधार है। फिर भी मरीचि को भरत द्वारा किये गये प्रणाम के विषय में प्राचार्य का लिखना कि-"ऐसी कोई बात आगमों
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________________ [ 21 ] में नहीं है" बिल्कुल अनुचित एवं कृतघ्नता का सूचक है। यह कैसा गूढाचार है कि इतिहास की पुष्टि में सहारा लेना त्रिषष्ठि शलाका पुरुष आदि चरित्रों का और स्थानकपंथी स्वमान्यता से विरोध प्राये वहाँ बोल उठना कि मूलागमों में ऐसी कोई बात पायी नहीं है ! कैसी हास्यास्पद बात प्राचार्य कर रहे हैं, गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज ! जैनागम एवं प्रागमेतर जैन ग्रन्थों में नाम एवं स्थापना की तरह द्रव्य तीर्थंकर भी वंदनीय माने गये हैं / यह सत्य तथ्य एक प्रामाणिक इतिहासकार को स्वीकार करना चाहिए। अभवि एवं दुर्भवि को जैनागम एवं आगमेतर जैन साहित्य कथित बात नहीं सुहाती है, जैसे उल्लू को प्रकाश /
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________________ [प्रकरण-५ ] तीर्थकर के बारह गुण राग-द्वेष विजेता तीर्थंकर श्री अरिहंत परमात्मा के बारह गुणों में कुछ कपट का सहारा लेकर भाचार्य हस्तीमलजी खंड 1, पृ०६१ पर इस प्रकार लिखते हैं कि Xxx (1) अनन्तज्ञान (2) अनंतदर्शन (3) अनंत चारित्र यानी वीतराग भाव (4) अनंतबल-वीर्य (5) अशोकवृक्ष (6) देवकृत पुष्पवृष्टि (7) दिव्यध्वनि (8) चामर (9) स्फटिक सिंहासन (10) छत्रत्रय (11) आकाश में देवदुन्दुभि और (12) भामन्डल / पांच से बारह तक के माठ गुणों को प्रातिहार्य कहा गया है / भक्तिबश देवों द्वारा यह महिमा की जाती है।xxx मीमांसा–पांच से बारह तक के आठ गुणों को देवकृत कहने पर भी छ8 गुण में "देवकृत पुष्पवृष्टि" ऐसा लिखना प्राचार्य की अप्रमाणिकता ही है / “देवकृत पुष्पवृष्टि" लिखने पर तो देवकृत अशोक वृक्ष, देवकृत दिव्य ध्वनि ऐसा भी लिखना चाहिए / फिर "पांच , से बारह तक के पाठ गुणों को प्रातिहार्य कहा गया है, भक्तिवश देवों द्वारा यह महिमा की जाती है / " ऐसा लिखने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी क्यों लिखा?
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________________ [ 23 ] उक्त बारह गुणों के विषय में "देवकृत अशोकवृक्ष" न लिखकर और "देवकृत पुष्पवृष्टि" ऐसा लिखने के पीछे प्राचार्य का अभिप्राय यह रहा होगा कि देवों द्वारा भगवान के समवसरण में प्रचित (निर्जीव ) पुष्पों की वृष्टि होती है। जबकि पूर्वाचार्यों ने सचित पुष्पवृष्टि का भी होना शास्त्रों में लिखा है। "तुष्यतु दुर्जन न्यायेन" यह मान भी लिया जाए कि अहिंसा धर्म के प्रवर्तक तीर्थंकर परमात्मा की उपस्थिति में सचित पुष्पों की वृष्टि (वर्षा) न करके देवगण प्रचित पुष्पों की वृष्टि करते थे, जो कि अहिंसक हैं, फिर भी पुष्पवर्षा से वायुकाय की हिंसा तो अवश्य होती ही होगी? इसका जबाब प्राचार्य क्या देंगे? ___ और चंवर ढुलाने आदि में वायुकाय के जीवों की हिंसा भी विचारणीय है। प्राचार्य ने बारह गुणों का वर्णन अपने इतिहास में नहीं किया है / रथ मुसल युद्ध चंद्रगुप्त चाणक्य का कथानक, ब्रह्मदत्त और सुभूम आदि के विषय में फालतू लम्बी चौड़ी बातें लिखने वाले प्राचार्य ने अत्यन्त उपादेय तीर्थंकर परमात्मा के गुणों का वर्णन नहीं किया है यह सखेद आश्चर्य की बात है / इसके साथ एक बात और भी है कि गुण-गुणी में रहते हैं, जैसे कि तीर्थकर परमात्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुण रहते हैं / किन्तु सिंहासन, छत्र, चंवर, अशोकवृक्ष जो गुणी में नहीं रहते हैं फिर भी इनको तीर्थंकर परमात्मा (गुणी) के गुण क्यों कहा है ? इस प्रकार के स्पष्टीकरण को अत्यन्त आवश्यकता थी। जिसको अपूर्णता ही अपने इतिहास में प्राचार्य ने रखी है जो उनकी अनभिज्ञता की भी सूचक मानी जाएगी। स्वत: सिद्ध तथ्यों जैसे कि महावीर भगवान का गर्भापहार, भरतचक्री की षट् खंड साधना, ऋषभदेव भगवान का 400 दिन का
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________________ [ 24 ] व्रत, पंचमी की चौथ प्रादि विषयों में अनावश्यक पिष्टपेषण करके "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" नामक ग्रंथ में थोथे का कद बढ़ाने वाले प्राचार्य ने तीर्थंकर के परम उपादेय बारह गुणों का वर्णन नहीं किया है, यह बात उनको तीर्थकर परमात्मा के प्रति न्यूनभक्ति का परिचय कराती है। अन्य बात यह भी है कि देवों की चैवर ढुलाने एवं पुष्पवृष्टि मादि प्रवृत्ति का प्राप्त भगवान ने काम-भोग की तरह निषेध भी नहीं किया है / और ऐसी आडम्बर युक्त प्रवृत्ति में लगने की बजाय देवता शांतचित्त से धर्मदेशना ही क्यों नहीं सुनते ? ऐसे प्रश्नों का स्पष्टीकरण भी आवश्यक था। इसकी भी अपूर्णता इस इतिहास में पायी गयी है। इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आचार्य को अन्य बातों में जितनी रुचि है इतनी रुचि अरिहंत परमात्मा के गुणगान में नहीं है / आगे हम लिख चुके हैं कि प्रार्या चन्दनबाला के विषय में प्राचार्य लिखते हैं कि 44.4 चंदना ने जब कुछ समय बाद यौवन में पदार्पण किया तो उसका अनुपम सौंदर्य शतगुणित हो उठा। उसकी कज्जल से भी अधिक काली कैशराशि बढ़कर उनकी पिण्डलियों से अठखेलियां करने लगी। 88x मीमांसा-ऐसी अनावश्यक बातों की रुचि कम होने पर ही तीर्थंकर परमात्मा के बारह गुणों का गुणगान हो सकता है। अवसर प्राप्त अत्यन्त उपादेय तीर्थंकर के बारह गुणों का गुणगान न करना, गुण-गुणी में रहते हैं फिर अष्टप्रातिहार्य बाहर रहते हुए भी अरिहंत के गुण कैसे ? भगवान ने उनकी उपस्थिति में होती दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि प्रादि का निषेध क्यों नहीं किया है ? ऐसे अनेक प्रश्नों को अस्पष्ट
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________________ [ 25 ] रखकर प्राचार्य ने जैनधर्म के तीर्थंकरों के इतिहास के विषय में अपनी अनभिज्ञता एवं अज्ञता सूचित की है। तथ्य तो यह है कि वैतनिक पंडितों के बल बूते पर इतिहास की रचना करवा लेना आसान है किन्तु बिना गुरुगम ऐसे प्रश्नों का रहस्य पाना आसान नहीं है। आश्रवों को हेय-त्याज्य कहकर छुड़वाने वाले प्राप्त तीर्थंकरों ने देवों द्वारा की गयी दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, चॅवर ढुलाना आदि प्रवृत्ति को त्याज्य नहीं कहा है, अन्यथा काम भोग की तरह उनका भी प्राप्त भगवान अवश्य निषेध करते। -न्यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय
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________________ [प्रकरण-६ ] श्री ऋषभदेव का निर्वाण प्रौर पावन दाढ़ा तीर्थंकर परमात्मा का निर्वाण होता है तब देव-देवेन्द्र पाते हैं, भगवान के पावन देह को स्नान कराकर चन्दनादि का विलेपन करते हैं / भगवान के देह को चन्दन की चिता पर जलाया जाता है / बाद में भगवान की पावनदाढ़ा देव देवलोक में ले जाते हैं / देव भगवान के शरीर के अवशेषों का आदर एवं पूज्य भाव से सेवा-पर्युपासना करते हैं। प्रष्टापदगिरि पर प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान का निर्वाण हुमा / इस विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी खंड 1, पृ० 131 पर लिखते हैं कि 808 भगवान ऋषभदेव का निर्वाण होते ही सौधर्मेन्द्र शक आदि 64 देवेन्द्रों के आसन चलायमान हुए। वे सब इन्द्र अपने अपने विशाल देव परिवार और अद्भुत् दिव्य ऋद्धि के साथ अष्टापद पर्वत के शिखर पर अम्ये / देवराज शक की आज्ञा से देवों ने तीन चिताओं और तीन शिविकाओं का निर्माण किया। शक ने क्षीरोदक से प्रभु के पार्थिव शरीर को और दूसरे देवों ने मणधरों तथा प्रभु के शेष अन्तेवासियों के शरीरों को क्षीरोदक से स्नान करवाया। उन पर गोशीर्ष चंदनका विलेपन किया।४४४ xxx शक की आज्ञा से अग्निकुमारों ने क्रमशः तीनों चिताओं में अग्नि की विकुर्वणा की और वायुकुमार देवों ने अग्नि को प्रज्वलित किया।४४४
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________________ 27 ] xxx सभी देवेन्द्रों ने अपनी अपनी मर्यादा के अनुसार प्रभु की दादों और दांतों को तथा शेष क्षेत्रों के प्रभु की अस्थियों को पहा किया। मीमांसा-उक्त कथन में प्राचार्य ने "मर्यादा के अनुसार" ऐसा लिखकर कपट करना चाहा है क्योंकि सिर्फ “मर्यादा के अनुसार" लिखना एकान्तवाद होने से अनुचित है / स्थानकमार्गी अमोलक ऋषि कृत जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के पृ० 100 पर लिखा है कि Xxx कितनेक देव तीर्थंकरों की भक्ति के वश से, कितनेक अपना जीताचार समझ के और कितनेक ने धर्म जानकर ( दाढ़ों को ) ग्रहण किया।xxx शास्त्र पाठ यथा xxx “केई जिणे भत्तिए केई जीयमयंतिकटु केई धम्मोत्तिकट्टु गिहति"७७७ मीमांसा-'जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति' प्रागमानुसार देव तीर्थंकर की भक्तिवश और धर्म समझकर भी दाढ़ों को ग्रहण करते हैं। इसप्रकार का आगमिक तथ्य होते हुए भी सिर्फ "मर्यादानुसार" लिखने में प्राचार्य की एकान्तवादी हठधर्मिता ही माननी चाहिए। प्राचार्य को यह भूलना नहीं चाहिए कि यह लौकिक धर्मकरणी नहीं है, किन्तु लोकोत्तर धर्म करणी है। तथा इतिहासकार प्राचार्य ने चालाकी पूर्वक तीर्थंकर परमात्मा की दाढ़ों वंदनीय एवं पर्युपासनीय हैं और अस्थियाँ भी पूजनीय हैं इस सत्य तथ्य को भी गुप्त रखा है / स्थानकपंथी अमोलकऋषि कृत श्री राजप्रश्नीय सूत्र का हिन्दी अनुवाद पृ० 160 पर लिखा है कि
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________________ [ 28 ] XXXउन वज्रमय गोल डब्बों में बहुत जिनकी दाढ़ों स्थाप रखी हैं, वे दाढ़ों सूरियाम देव के, और भी बहुत से देव-देवियों के अर्चन या वन्दन-पर्युपासनीय हैं। 8xx मीमांसा-इतिहासकार प्राचार्य ने उक्त तथ्य को नहीं लिखने में ही अपना श्रेय समझा है, जो अनुचित है। तीर्थंकर भगवान की दाढ़ों वंदनीय एवं पर्युपासनीय है और अस्थियां भी पूजनीय हैं। देव भगवान के शरीर का यत् किंचित् अवयव हाथ लगता है, उनको भी वे पूज्यदृष्टि से पूजकर अपना कल्याण समझते हैं। श्री राजप्रश्नीय सूत्र लिखित तथ्य को छिपा करके प्राचार्य ने अप्रमाणिकता की है। तीर्थंकर परमात्मा की परम पावन आत्मा इस पावन दाढ़ा में भी रही थी इसके कारण यह शान्तरस से ऐसी भावित हो गयी है कि दो देव के बीच लड़ाई हो जाने पर इस पवित्र दाढ़ा के अभिषेक जल को उन पर छिड़कने से वे दोनों देव शान्त हो जाते हैं / अन्य देव भी भगवान की हड्डियों एवं अन्य अर्धजलित अंगों को ले जाते हैं, उनका भी अभिषेक प्रादि करते हैं / तीर्थंकर परमात्मा की भक्ति का यह भी एक प्रकार है ऐसा शास्त्रीय उल्लेख होते हुए भी दाढ़ों के विषय में पर्युपासना तथा वंदन की बात प्राचार्य ने अपने इतिहास में कोशों दूर छोड़ दी है जो सर्वथा अनुचित ही है / ___दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करने के बाद तत्त्वदर्शीको सूत्रोक्तनीति के अनुसार वीतराग भाषित धर्म की आराधना करनी चाहिए। मनमानी कल्पना पर किये हुए धर्म की फूटी कौड़ी की भी कीमत नहीं है / -1444 ग्रन्थ रचयिता पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज
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________________ [ प्रकरण-७] श्री अष्टापद गिरि पर जिन मंदिर प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान का अष्टापद पर्वत पर निर्वाण हुअा, वहाँ उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने सोने के मंदिर बनवाकर चौबीसों भगवान के शरीर की ऊँचाई के प्रमाण रत्न की प्रतिमा चार, पाठ, दस और दो के क्रम से चारों दिशाओं में विराजमान की थीं। श्री ऋषभदेव भगवान की निर्वाण भूमि अष्टापद पर्वत के विषय में प्राचार्य लिखते हैं कि xxx उन चार प्रकार के देवों ने क्रमशः प्रभु को चिता पर, गणधरों की चिता पर और अणगारों की चिता पर तीन चैत्यस्तूप का निर्माण किया।xxx सो . मीमांसा–प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान के निर्वाण स्थल पर देवों ने चैत्यस्तूप का निर्माण किया किन्तु श्री अजितनाथ, श्री सम्भवनाथ आदि तीर्थंकरों की निर्वाण भूमि पर देवों ने चैत्यस्तूप का निर्माण किया कि नहीं ? इस बात को प्राचार्य ने अस्पष्ट ही रखी है / प्राचार्य श्री मलयगिरिजी के कथनानुसार भरत ने चैत्यस्तूप का निर्माण करवाया था। खंड 1, पृ० 131 पर प्राचार्य हस्तीमलजी पूज्यपाद श्री मलयगिरि महाराज के उद्धरण पूर्वक लिखते हैं कि
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________________ [ 30 ] xxx तथा भगवद्देहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपाः कृता, ततो लोकेपि ततः आरभ्य मृतकदाहस्थानेषु स्तूपाः प्रवर्तन्ते / [ आवश्यक मलयगिरि ] xxx अर्थात्-भगवान के शरीर का जहाँ दाह हुआ था, उसी स्थान पर भरत ने स्तुप बनवाया, तब से लोक में भी मृतक दाह स्थान पर स्तूप बनवाने की प्रवृत्ति शुरु हुई। मीमांसा-जिन चैत्य कहो या जिनस्तूप कहो या जिन मंदिर कहो एक ही बात है। अपने पूज्य उपकारी श्री तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिकृति, प्रतिमा या पादुका मंदिर आदि. में विराजमान करके उनकी अनुपस्थिति में उनकी चरणपादुका, प्रतिमा आदि का वंदन, पूजन, सत्कार एवं सम्मान करके सम्यग्दर्शनवन्त भव्यजन प्रभुभक्ति करते हैं। आगम शास्त्र में भी भरत द्वारा जिन मंदिर बनवाने का उल्लेख है / यथा श्री आवश्यक सूत्रान्तर्गत जगचिन्तामणि चैत्यवंदन में "अट्ठावय संठविय रूव, कम्म? विणासण" / तथा सिद्धस्तव में "चत्तारि अट्ठ दस दोय, वंदिया जिणवरा चउविसं" इत्यादि। इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि चतुर्थ पारे की शुरुआत से ही जिनप्रतिमा, जिनपादुका और जिनमंदिर थे और जिन प्रतिमा पूजा भी थी यह प्रागमिक सत्य है / इस तथ्य को प्रामाणिक और तटस्थ व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता। आचार्य प्रतिमा पूजा और जिनमन्दिर के सत्य तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनकी भयंकर भूल है। मूर्तिपूजा जैसे सत्य विषय को विवादास्पद बनाना और उसके ऐतिहासिक तथ्यों से इन्कार करना सूर्य के सामने धूलि फेंकने की बालिश चेष्टा मात्र ही है। श्री आवश्यक सूत्र में भरत चक्रवर्ती के बनवाये जिनमंदिर का अधिकार है।
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________________ [ 31 ] यथा थुभसय भाउगाणं चउविसं चेव जिणघरेकासि / सव्व जिणाणे पडिमा, वण्ण पमाणेहिं नियएहि / / अर्थात्-एक सौ भाईयों के एक सौ स्तूप और चौबीस तीर्थंकर के जिनमन्दिर बनवाकर उसमें सर्व तीर्थंकर की प्रतिमा अपने वर्ण तथा शरीर के प्रमाण सहित ( श्री अष्टापद पर्वत ऊपर भरत चक्रवर्ती ने ) बनवायी। अष्टापदजी पर्वत पर भरतचक्रवर्ती ने मंदिर बनवाये थे इस विषष में दो प्राचीन इतिहास भी साक्षी देते हैं। एक "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" नामका इतिहास जो महाधुरंधर विद्वान कलिकाल सर्वज्ञ पूज्य श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज ने रचा है और दूसरा "चउवन महापुरिस चरियम्" जो महान जैनाचार्य श्रीमद् शीलांकाचार्य द्वारा रचित है। उपरोक्त दोनों महान् ग्रन्थों में भी अष्टापदगिरि पर भरतचक्रवर्ती द्वारा जिनमंदिर बनवाने का उल्लेख है। यह दोनों महान् ग्रन्थ ऐसा भी कहते हैं कि दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवान के चाचा सगरचक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों ने इस अष्टापद तीर्थ की रक्षा में प्राण मंवाये थे / इस बात का उल्लेख प्राचार्य हस्तीमलजी ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" पुस्तक में खंड 1 पृ० 165 पर किया है। यथा 044 सहस्रांशु आदि सगर के 60 हजार पुत्र चक्रवर्ती सगर की आज्ञा प्राप्त कर सेनापति रत्न, दण्ड रत्न आदि रत्नों और एक बड़ी सेना के साथ भरत क्षेत्र के भ्रमण के लिये प्रस्थित हुए / अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए जब वे अष्टापद पर्वत के पास आये तब उन्होंने अष्टापद पर जिन मंदिरों को देखा और उनकी सुरक्षा के लिये पर्वत के चारों ओर एक खाई खोदनेका विचार
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________________ [ 32 ] किया / इन दोनों आचार्यों के उपरि उद्धत ग्रन्थों में उल्लेख है कि जहँनु आदि उन 60 हजार सगर पुत्रों ने भवनपतियों के भवन तक खाई खोद डाली / जनु कुमार ने दण्ड रत्न के प्रहार से गंगानदी के एक तट को खोदकर गंगा के प्रवाह को उस खाई में प्रवाहित कर दिया और खाई को भर दिया। खाई का पानी भवनपतियों के भवनों में पहुंचने से वे रुष्ट हुए और नागकुमारों के रोष वश उन 60 हजार सगर पुत्रों को दृष्टिविष से भस्मसात् कर डाला / मीमांसा-प्राचार्य ने यहां कपट करके अष्टापद पर्वत पर जिनमंदिर था इस तथ्य को प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी और प्राचार्य श्री शीलांगाचार्यजी के नाम से लिखकर स्वयं को मंदिर के विषय में अलिप्त रखकर अन्याय पूर्ण कृत्य किया है / सत्य स्वीकारने का अवसर प्राया वहाँ चालाकी पूर्वक अन्य के नाम लिख देना बेईमानी ही मानी जायेगी। आश्चर्य तो यह है कि अन्य ऐतिहासिक प्रसंग इन्हीं ग्रन्थों में से लेकर वहां प्राचार्य हस्तीमलजी ने ऐसा व्यक्त नहीं किया है कि पूर्वाचार्यों ने ऐसा लिखा है, किन्तु वहां तो उन्होंने स्वयं अपने नाम से ही लिख दिया है। फिर जिन मंदिर और जिन प्रतिमा की बात मायी वहाँ ऐसा अन्याय क्यों ? पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज और पूज्य शोलोगाचार्यादि अनेक सुविहित पूर्वाचार्यों के नामोल्लेख करके प्राचार्य हस्तीमलजी खंड-१ (पुरानी प्रावृत्ति ) अपनी बात पृ० 6 पर लिखते हैं कि xxxउपरोक्त पर्यालोच के बाद यह कहना किंचित् मात्र भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हमारा जैन इतिहास बहुत गहरी सुदृढ़ नींव पर . खड़ा है। यह इधर उधर को किंवदन्ती या कल्पना के आधार से नहीं पर प्रामाणिक पूर्वाचार्यों की अविरल परम्परा से प्राप्त है / अतः इसकी विश्वसनीयता में लेशमात्र भी शंका को गुजाइश नहीं रहती।xxx
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________________ [ 33 ] मीमांसा-उपरोक्त सत्य तथ्य लिखने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी की कूटनीति देखो कि वे स्वयं श्री प्रष्टापद गिरि पर जिनमन्दिर की रक्षा हेतु जान गंवाने वाले सगर चक्रवर्ती के जह्न प्रादि 60 हजार पुत्रों के विषय में पूज्य शीलांगाचार्य महाराज और पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज आदि कथित सर्व सुदृढ़ शास्त्रीय प्रमाणों को छोड़कर पौराणिक किंवदन्ती को प्रमाणित करते हैं, जो बात उनके मन की अस्थिरता एवं पक्षपातपूर्णता का सूचन करती है। __ प्राचार्य कैसी दुरंगी नीति रीति अपनाते हैं कि एक भोर तो स्वीकार करते हैं कि पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज रचित "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" ग्रन्थ प्रामाणिक है और दूसरी ओर इस ग्रन्थ में जिनमन्दिर, जिन प्रतिमा की बात पायो वहाँ इन्कार पूर्वक लिख देते हैं कि ऐसी कोई बात मूल प्रागम में नहीं पायी है / 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र' की प्रामाणिकता के विषय में खंड 1, पृ० 56 पर वे लिखते हैं कि xxx यह है आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र का उल्लेख जो पिछली आठ शताब्दियों से भी अधिक समय से लोकप्रिय रहा है। xx मीमांसा-बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनको प्रमाणित करने के लिये प्राचार्य "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" का सहारा लेते हैं, किन्तु जिन मन्दिर और जिन प्रतिमा विषयक बात मानेपर सत्यमार्ग से विपरीत चलकर तुरन्त ही झूठ का सहारा ले लेते हैं / अष्टापदजी तीर्थ की रक्षा में जह्न, प्रादि 60 हजार सगर पुत्रों ने वीरगति पायी थी ऐसा उल्लेख त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र और चउवन महापुरिस चरियम में होते हुए भी मंदिर के विरोध के कारण प्राचार्य लिख देते
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________________ .. [ 34 ] हैं कि- "ऐसा कोई उल्लेख मूलागमों में दृष्टिगोचर नहीं होता है।" किन्तु प्राचार्य को दुरंगी नोति देखो कि 60 हजार पुत्रों की मौत के बाद सगर चक्रवर्ती का विरह विलाप और संसार वैराग्य प्रादि का वर्णन श्री शीलांगाचार्य महाराज रचित "चउवन महापुरिस चरियं” नामक ग्रन्थ के सहारे ही लिखते हैं। प्राश्चर्य तो यह है कि यहाँ प्राचार्य हस्तीमलजी ने ऐसा क्यों नहीं लिखा कि "ऐसा कोई उल्लेख मूलागमों में दृष्टिगोचर नहीं होता है।" श्री आवश्यक सूत्र, श्री सिद्धस्तव आदि अनेक प्राचीन ग्रंथों एवं पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज और पूज्य शोलांगाचार्य महाराज जैसे सत्यवती प्राचीन ग्रन्थकारों ने लिखा है कि प्रष्टापद पर्वत स्थित जिनमंदिरों की रक्षा हेतु खाई खोदने और उसमें गंगा का पानी प्रवाहित करने पर नाग देवता के कोप में जह्न आदि 60 हजार सगरपुत्रों ने जान गंवायी थी / पूर्वाचार्यों के इस सत्य कथन को असत्य कहकर प्राचार्य हस्तीमलजी ने किंवदन्ती स्वरूप पौराणिक गपोड़े का पक्ष करके जिन मन्दिर एवं जिनप्रतिमा विषयक अपनी द्वेष परायणता का परिचय खंड 1, पृ० 165 पर दिया है / यथा xxx संभव है, पुराणों में शताश्वमेघी की कामना करने वाले महाराज सगर के यज्ञाश्व को इन्द्र द्वारा पाताल लोक में कपिलमुनि के पाश बांधने और सगरपुत्रों के वहां पहुंचकर कोलाहल करने से कपिलऋषि द्वारा भस्मसात् करने की घटना से प्रभावित हों जैनाचार्यों ने ऐसी कथा प्रस्तुत की हो।xxx मीमांसा-ऐसा अनर्थ करने वाले प्राचार्य के ऐतिहासिक ज्ञान पर हमें तरस आता है / दृष्टिराग एवं जिनमन्दिर विषयक द्वेष के कारण ही इस अप्रमाणिक पौराणिक गपोड़े को प्राचार्य ने आगे
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________________ [ 35 ] किया है। फिर खंड 1 (पुरानी प्रावृत्ति ) अपनी बात पृ० 26 पर लिखना कि-"साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश कोई भी अप्रमाणिक बात नहीं आवे इस बात का ध्यान रखा गया है" यह नितांत गलत एवं भ्रान्तिपूर्ण ही साबित होता है / क्योंकि पूर्वाचार्यों के कथन को झूठा करके अन्य के असत्य कथन को आगे करना क्या अप्रमाणिकता नहीं है ? "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" और 'चउवन महापुरिस चरिया" इन दों महान ग्रंथों में लिखित युक्तियुक्त प्रामाणिक बात न मानके और "संभव है" ऐसा लिखकर पुराणों की किंवदन्ती को मान करके प्राचार्य ने विश्वासघात किया है। पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों के सहारे इतिहास लिखना और जिनमन्दिर एवं जिन प्रतिमा की बात पाये वहाँ कृतघ्नतापूर्वक यह कह देना कि-"पूर्वाचार्यों ने पुराणों की कथा से प्रभावित होकर ऐसी कहानी प्रस्तुत करदी है, जो नितांत गलत है / " फिर तो बहुत सी बातें पुराणों की कथा से प्रभावित होकर प्राचीन जैनाचार्यों ने कही है, ऐसी मूर्खतापूर्ण बात कहने की एवं मानने को आपत्ति भी आसकती है। कल्पना की उडान में भटकते हुए प्राचार्य अपनी धुन में यह भी तुलना करना भूल गये हैं कि वह पुराण की उक्ति प्राचीन है या अपने आचार्यों की उक्ति प्राचीन है ? अगर यह तुलना की जाती तो वे ऐसा लिखने का महान् साहस नहीं कर पाते / जैन पूर्वाचार्यों के कथनों को झूठा कहने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि फिर उनके कथन पर कौन विश्वास करेगा ? . -न्याय विशारद पूज्य प्राचार्य श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज - -
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________________ [ प्रकरण-८] पूर्वाचार्यों का महान उपकार पूज्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण, नवांगी टीकाकार श्री अभयदेव सूरि महाराज, वादिवेताल श्री शांतसूरि महाराज, श्री मलयगिरि महाराज, श्री शीलांगाचार्यजी, पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी, कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज, पूज्य श्री मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य महाराज आदि अनेकानेक प्रातःस्मरणीय सुगृहीतनामधेय पूर्वाचार्यों ने मागम एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य को जीवंत रखकर महान उपकार किया है जिसका बदला हम चुका नहीं सकते हैं। इन महान पूर्व पुरुषों ने ही जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर द्वारा तथा प्रागमशास्त्रों पर सरल अर्थपूर्ण वृत्ति, चूणि, भाष्य एवं टीकादि रचकर जैन संस्कृति को आज तक जीवंत रखा है। यद्यपि प्राचार्य हस्तीमलजी एवं उनका स्थानकपंथी समुदाय जिनप्रतिमा तथा जिनमंदिर और वृत्ति, चूर्णि, भाष्य एवं टीकादि पर अविश्वास एवं अनादर करते हैं, किन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि इन वृत्ति, चूणि, भाष्य, टीकादि के सहारे बिना वे लोग आगमग्रन्थों का हिन्दी या गुजराती भादि भाषा में सही सही अनुवाद भी नहीं करपाते हैं / फिर भी इन पूर्वाचार्यों की बुराई करने में स्थानकपंथी बाज नहीं पाते हैं / स्थानकपंथी अमोलक ऋषि "शास्त्रोद्धार मीमांसा" पृ० 53 पर लिखते हैं कि
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________________ [ 37 ] 888 श्री जैनधर्म प्रचारार्थ श्री महावीरस्वामीजी के निर्वाण के 1242 वर्ष में शैलांगाचार्य ने आचारांग और सूयगडांग की टीका बनाई, 1590 वर्ष पीछे अभयदेवसूरि ने स्थानांग से विपाक पर्यन्त 9 अंग की टीका बनाई, इसके बाद मलयगिरि आचार्य ने राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, पन्नवणा चन्द्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, व्यवहार और नंदीजी इन 7 सूत्रों की टोका बनाई, चन्द्रसूरिजी ने निरयावली का पंचक को टीका बनाई, ऐसे ही अभयदेव सूरि के शिष्य मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य ने अनुयोग द्वार की टोका बनाई, क्षेमकीर्तिजी ने बृहत्कल्प की टीका की, शांतिसूरिजी ने श्री उत्तराध्ययनजी की वृत्ति-टीका. चूणिका-नियुक्ति वगैरह सहित सविस्तार बनाया इन टीकाकारों ने अनेक स्थान मूलसूत्र की अपेक्षा रहीत व वर्तमान में स्वतः की प्रवृत्ति को पुष्ट करने जैसे मनःकल्पित अर्थ भर दिये / 88x मीमांसा-स्थानकमार्गी अमोलक ऋषि में इन टीकाकार महापुरुषों की अपेक्षा ज्ञान का अंश मात्र भी होना असम्भव है, फिर भी इस महाशय ने पूर्वाचार्यों को झूठा करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी है यह अत्यन्त खेद की बात है / यद्यपि अमोलकऋषि द्वारा उनके माने हुए 32 प्रागमों का हिन्दी भाषा में अनुवाद इन पूर्वाचार्यों की टीकादि के सहारे ही किया गया है, ऐसा स्वीकार उसने अपने "शास्त्रोद्धार मीमांसा" नामक पुस्तक में किया है और जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर पर विरोध के कारण सूत्रों के अथ को तो अमोलकऋषि ने ही पलटा है, फिर भी उल्टा चोर कोतवाल को डांटे वाली बात सिद्ध करते हैं / उत्सूत्र भाषण को वज्रपाप समझने वाले भवभीरु महोपकारी पूर्वाचार्यों को "मन:कल्पित अर्थ करने वाले" कहना महाकृतघ्नता के सिवाय और क्या है ? "ज्ञानलव दुविदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंजयति" इस सूक्ति को अमोलकऋषि चरितार्थ कर गये हैं / किन्तु पूर्वाचार्यों को झूठा करने में साध्वाभास अमोलकजी यह बात सर्वथा भूल ही गये हैं कि फिर उनके कथन को सत्य कौन मानेगा ?
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________________ [ 38 ] स्थानकपंथी प्राचार्य, साधु आदि छलकपट द्वारा सूत्रों एवं अर्थों में परिवर्तन करते हैं, इसका नूतन उदाहरण यह है कि स्थानकपंथी अखिमेश मुनि द्वारा संकलित, सम्मति ज्ञानपीठ आगरा द्वारा मुद्रित "मंगलवाणी" नामक किताब के नवस्मरण में से "बड़ी शांति" नामक नौवें स्मरण [10 २६७-संस्करण ग्यारहवा ] को मनमानी करके संक्षिप्त कर दिया गया है / "बृहत् शांति" स्तोत्र में से मूर्तिपूजा समर्थक पाठों को आगे-पीछे से निकाल देना एक प्रकार की तस्करवृत्ति ही है / फिर ये लोग एक दिन साहूकार भी बन सकते हैं कि श्वेताम्बरों ने बृहत् शांति स्तोत्र में कुछ पाठ 'प्रक्षेप कर दिया है।" स्थानक पंथियों की इस प्रकार की कुप्रवृत्तियों पर श्वेताम्बर जैन समाज को गंभीरता से विचार करना चाहिए। प्राचार्य हस्तीमलजी पूर्वाचार्यों के नाम देकर उनके प्रति कृतज्ञभाव पूर्वक खंड-१ ( पुरानी प्रावृत्ति ) पृ० 6 पर अपनी बात में लिखते हैं कि xxx उपरोक्त पर्यालोचन के बाद यह कहना किंचित्मान भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हमारा जैन इतिहास बहुत गहरी सुदृढ़ नींव पर खड़ा है / यह इधर उधर की किंबदन्ती या कल्पना के आधार से नहीं पर प्रामाणिक पूर्वाचार्यों की अविरल परम्परा से प्राप्त है / अतः इसकी विश्वसनीयता में लेशमात्र भी शंका की गुंजाइश नहीं रहती। ___ मीमांसा–किन्तु उक्त बात लिखना कपटपूर्ण एवं भोले जनों को भ्रम में डालने हेतु ही है। क्योंकि वृत्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकादि शास्त्रों में प्राचार्य हस्तीमलजी स्वयं विश्वास नहीं करते हैं / साथ ही साथ पूर्वाचार्यों के कथन को अप्रमाणिक कहकर पौराणिक किंवदन्ती स्वरूप कल्पना के समर्थक भी यही प्राचार्य हैं। .
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________________ [ 36 ] सगर चक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों ने अष्टापदजी तीर्थ की रक्षा हेतु जान गंवायी थी ऐसा पूर्वाचार्यों का आगमानुसारी कथन होते हुए भी प्राचार्य खंड-१, पृ० 165 पर पौराणिक किंवदन्ती लिखते हैं कि 88 संभव है, पुराणों में शताश्वमेघी की कामना करनेवाले महाराज सगर के यज्ञाश्व को इन्द्र द्वारा पाताल लोक में कपिलमुनि के पाश बांधने और सगरपुत्रों के वहाँ कोलाहल करने से कपिलऋषि द्वारा भस्मसात् करने की घटना से प्रभावित हों जैनाचार्यों ने ऐसी कथा प्रस्तुते को हो। मीमांसा-देखिये, प्राचार्य हस्तीमलजी जिस डाल पर बैठे हैं उसीके ऊपर कुठाराघात कर रहे हैं / सुनी-सुनाई कल्पित बात लिखने के पीछे प्राचार्य का जैन तीर्थों के प्रति बहुत बड़ा पक्षपात ही सिद्ध होता है / उक्त बात से यह स्पष्ट होता है कि प्रागमेतर प्राचीन साहित्य के रचयिता पूर्वाचार्यों पर प्राचार्य हस्तीमलजी को अविश्वास है। लेकिन दूसरी ओर वे "इन पूर्वाचार्यों ने प्रवचन को सुरक्षित रखा" ऐसो प्रात्मवंचक प्रशंसा भी करते हैं। किन्तु ये पूर्वापर विरोधी बातें उनके अस्थिर चित्त की परिचायक मात्र हैं। खंड-२ पृ० 13 "अपनी बात' में प्राचार्य लिखते हैं कि 80 प्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग के विलुप्त हो जाने के बाद जैन इतिहास को सुरक्षित रखने का श्रेय एक मात्र पूर्वाचार्यों की श्रुतसेवा को है / इस विषय में उन्होंने जो योगदान दिया है, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता / आगमाश्रित नियुक्ति, चूणि, भाष्य और टोकादि ग्रन्थों के माध्यम से उन्होंने जो उपकार किया है, वह आज के इतिहास गवेषकों के लिये बड़ा ही सहायक सिद्ध हो रहा है।xxx
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________________ [ 40 ] मीमांसा-इतिहास गवेषकों के लिये पूर्वाचार्यों द्वारा रचित मागमाश्रित नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और टीका प्रादि शास्त्र सहायक सिद्ध हो रहे हैं, इस सहायता से सत्य की गवेषणा करके प्राचार्य सत्यतथ्य आत्मसात् करें, तभी उनकी कथनी और करनी एक हो सकती है / . आश्चर्य तो इस बात का है कि प्राचार्य ने स्वमान्यता पोषक एवं जिनमन्दिर विरोधक इतिहास एक नामधारी समिति द्वारा बनवाया है, किन्तु पूर्वाचार्यों के कथन एवं ऐतिहासिक तथ्यों पर नहीं / ऐसी दशा में जैनागम और आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकादि शास्त्र एवं मंदिर, मूर्तियां आदि पुरातन अवशेषों को वे इन्द्रजाल ही सिद्ध कर रहे हैं / इस पर भी इन सबको सहायक लिखना आत्मवंचना मात्र प्रतीत होता है / जब तक आचार्य हस्तीमलजी जैन इतिहास के मूलस्तम्भ जैनागम, पूर्वाचार्यों द्वारा रचित पागमेतर जैन साहित्य वृत्ति, चूणि, भाष्य एवं टीकादि शास्त्रों का सत्य माधार एवं मंदिर और जिनप्रतिमा के विषय में ऐतिहासिक प्राचीन अवशेषों का तथ्य होते हुए भी मूर्तिपूजा जैसे वास्तविक सत्य विषय को विवादास्पद बनायेंगे या उनके विषय में हठधर्मिता रखेंगे तब तक वे इतिहास लिखने पर भी अंधेरे में ही हैं और रहेंगे। जैनागम और आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूरिण, भाष्य और टीकादि शास्त्र जिसके दिल में हैं, वास्तव में उसके दिल में साक्षात् वीतराग ही बैठे हैं। -1444 ग्रन्थकर्ता पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज
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________________ [प्रकरण-] माकुमार और जिन प्रतिमा पूर्वभव में चारित्र की आराधना शबल ( सदोष ) रूप से करने पर अनार्य देश में जन्मे हुए राजपुत्र प्रार्द्रकुमार ने मगध सम्राट श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार के गुणगान सुनकर उनको उपहार भेजा और उनसे मैत्री चाही / भव्य जीव जानकर बुद्धिनिधान अभयकुमार ने आर्द्रकुमार को धर्म प्रेमी बनाने हेतु प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की रत्न की प्रतिमा भेट भेजी और आर्द्रकुमार को कहलाया कि इस उपहार को एकान्त में खोलना। परम वीतराग श्री ऋषभदेव भगवान की मूर्ति-प्रतिमा को ध्यान से देखते देखते प्रार्द्रकुमार को पूर्वजन्म का स्मृति ज्ञान हो गया और जिनप्रतिमा के दर्शन से उन्हें समकिप्त लाभ हुआ। पूर्वजन्म का साधुपन याद आने के कारण तथा साधु बनने की तीव्र भावना से उसने अनार्य देश से भागकर मगधदेश में प्राकर चारित्र ग्रहण किया। जिन प्रतिमा देखकर प्रार्द्रकुमार को पूर्वजन्म का जातिस्मरण ज्ञान एवं बोधि लाभ हुअा था, इस विषय में श्री सूर्यगडांग सूत्र, दूसरा श्रुतस्कन्ध, छट्ठा अध्ययन में कहा है किxxxपीतीय दोण्ह दूओ, पुच्छणमभयस्स पत्थवेसो उ। तेणावि सम्मदिदित्ति, होज्ज पडिमारहंमिगया // बटुं सम्बुद्धो रक्खिओ य / Xxx
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________________ [ 42 ] व्याख्या-[ यदुक्त श्री सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कन्धे षष्ठाध्ययने ] अन्यदा कपित्रा जनहस्तेन राजगृहे श्रेणिकराज्ञः प्राभृतं प्रेषितम् / आद्र ककुमारेण श्रेणिकसुतायाभयकुमाराय स्नेहकरणार्थ प्राभृतं तस्येव हस्तेन प्रेषितम् / जनो राजगृहे गत्वा श्रेणिकराज्ञः प्राभृतानि निवेदितवान् सम्मानितश्च राज्ञा आक प्रहितानि प्राभृतानि चाभयकुमाराय दत्तवान्, कथितानि स्नेहोत्पाद. कानि वचनानि / अभयेनाचिति नूनमसौ भव्यः स्यादासन्नसिद्धिको, यो मया साद्ध प्रीतिमिच्छतीति / ततोऽभयेन प्रथमजिनप्रतिमा बहुप्राभृतयुताऽऽद्भककुमाराय प्रहिता, इदं प्राभूतमेकान्ते निरूपणीयमित्युक्त जनस्य / सोप्या कपुरं गत्वा यथोक्त कथयित्वा प्राभृतमार्पयत् / प्रतिमां निरूपयतः कुमारस्य जातिस्मरणमुत्पन्न, धर्मे प्रतिबद्ध मनः अभयं स्मरन् वैराग्यात्कामभोगेष्वनासक्तस्तिष्ठति / पित्राज्ञातं माक्वचिदसौ यायादिति पंचशत सुभटनित्यं रक्ष्यते इत्यादि / अर्थात्-एक दिन प्रार्द्रकुमार के पिता ने दूत के साथ राजगृह नगरी में श्रेणिक राजा को उपहार भेजा / पार्द्रकुमार ने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के साथ मैत्री करने हेतु उसी दूत के हाथ उपहार भेजा / दूतने राजगृह में जाकर श्रेणिक राजा को उपहार दिये / श्रेणिक राजा ने भी दूत का यथायोग्य सन्मान किया और आर्द्रकुमार द्वारा भेजे गये उपहार को अभयकुमार को दिया तथा स्नेहवचन कहे / अभयकुमार ने सोचा कि निश्चय यह भव्य है और निकट मोक्षगामी है, जो मेरे साथ प्रीति चाहता है / तब अभयकुमार ने बहुत प्राभूत सहित प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा-मूर्ति आर्द्रकुमार को भेंट भेजी और दूत को संदेश दिया कि यह भेंट प्रार्द्रकुमार को एकान्त में दिखाना। दूतने भी आर्द्रकपुर में जाकर यथोक्त संदेश कहकर भेंट दे दी / जिनप्रतिमा को देखते देखते आर्द्रकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया एवं उसका मन धर्म में प्रतिबोधित हुआ / अभयकुमार को याद करता हुआ, वैराग्य से काम-भोगों में पासक्त नहीं होता हुआ आर्द्रकुमार वहाँ रहा है। प्रार्द्रकुमार के पिता
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________________ [ 43 ] ने पुत्र प्रार्द्र को वैरागी जानकर, यह कहीं चला नहीं जाए इस वास्ते 500 सुभटों के बीच में उसको रखा, इत्यादि / श्री सूयगडांग सूत्र में यह भी उल्लेख किया है कि जब तक आर्द्रकुमार ने चारित्र-दीक्षा ग्रहण नहीं की तब तक वह अभयकुमार से प्राप्त जिन प्रतिमा की प्रतिदिन पूजा करता रहा था। आर्द्रकुमार के उक्त कथानक के विषय में जिनप्रतिमा की बात आने के कारण तथ्य को तोड़-मरोड़ कर प्राचार्य हस्तीमलजी "अपनी बात" खण्ड 1, पृ० 30 पर लिखते हैं कि xxx अभयकुमार ने अनार्य देशस्थ अपने पिता के मित्र अनार्य नरेश के राजकुमार ( आर्द्र) को धर्म प्रेमी बनाने के लिये "धर्मोपगरण (?)" की भेंट भेजी। xx __मीमांसा-उक्त कथन प्राचार्य ने कौन से प्राचीन शास्त्र के आधार पर किया है यह उन्हें प्रामाणिकता पूर्वक कहना चाहिये / श्री सूयगडांग सूत्र, भरतेश्वरवृत्ति, श्री पार्द्रकुमार चरित्र प्रादि प्राचीन ग्रंथों में अभयकुमार ने प्रार्द्रकुमार को ( श्री ऋषभदेव भगवान की ) जिनप्रतिमा भेजी ऐसा स्पष्ट कथन होते हुए भी जिनप्रतिमा विषयक स्वमतविरोध के कारण प्राचार्य ने सुनी-सुनाई स्वमति कल्पित बात लिख दी है, जिसमें सत्य का सर्वथा अभाव ही है। यद्यपि कतिपय स्थानकपंथी लेखक अपनी पुस्तकों में ऐसा लिखते हैं कि अभयकुमार ने आर्द्रकुमार को "मुंहपत्ती का टुकड़ा" भेजा था। कोई "अोधा ( रजोहरण)" भेजने का भी लिखते हैं, जों शास्त्र निरपेक्ष होने के कारण नितांत असत्य है। जैन धर्म के विषय में स्वोत्प्रेक्षित तर्क एवं कल्पना शक्ति के आधार पर इतिहास लिखने वाले आचार्य हस्तीमलजी ने यहाँ
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________________ [ 44 ] "धर्मोपगरण" ऐसा लिखकर सारा मामला गोलमोल ही रखा है। यानी अभयकुमार ने प्रार्द्रकुमार को "धर्मोपगरण" के रूप में क्या जिनप्रतिमा भेजी थी? क्या मुंहपत्ती का टुकड़ा भेजा था? क्या सामायिक करने का प्रासन भेजा था ? क्या पोधा ( रजोहरण ) भेजा था? क्या पूजनी भेजी थी ? प्रश्न तो यह होता है कि प्राचार्य माने जाने वाले हस्तीमलजी "जिन प्रतिमा" के विषय में झूठ का सहारा लेकर बेईमानी क्यों कर रहे हैं ? woman टीका चूणि भाष्य उवख्या, उवेखी नियुक्ति / प्रतिमा द्वेषे सूत्र उवेख्या, दूर रही तुझ मुक्ति / -न्यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्यायजी
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________________ [प्रकरण-१०] जरासंध और कृष्ण के बीच युद्ध ___ वासुदेव कृष्ण और प्रतिवासुदेव जरासंध के बीच युद्ध हुआ / जरासंध ने जरा नाम की विद्या से कृष्ण के सैनिकों को हतप्रभ कर दिया। जरा की बीमारी के कारण यादव सैन्य को लड़ाई लड़ने में असमर्थ देखकर, जरा निवारण हेतु वनमाली ने अट्ठम ( तीन उपवास ) तप किया। तप के प्रभाव से तुष्ट होकर धरणेन्द्र की अग्रमहिषी पद्मावती देवी ने महिमावन्ती श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा दी। जिसके अभिषेक जल छिड़कने से सब ही सैनिकों की मूर्छा दूर हुई / उस समय नेमिनाथजी ने विजय सूचक शंखनाद किया। शंखपूरने के कारण वहां शंखेश्वर नाम का गाँव बसाया, इस शंखेश्वर गांव में पार्श्वनाथजी की प्रतिमा विराजमान की गयी और तब से पार्श्वनाथजी का एक नाम " शंखेश्वर पार्श्वनाथ" पड़ा। आज भी गुजरात के मेहसाणा जिले में 'शंखेश्वरजी तीर्थ" मौजूद है / श्री कल्पसूत्र की टीका में भी इसका उल्लेख है। उक्त विषय में श्री शुभवीर विजय महाराज साहब का बनाया स्तवन जैन समाज में प्रत्यन्त प्रसिद्ध है / यथा शंखपुरी सबको जगावे, शंखेश्वर गाम बसावे / मंदिर में प्रभु पधरावे, शंखेश्वर नाम धरावे रे / /
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________________ [ 46 ] नामक पुस्तक, जिसका संकलन स्थानक मार्गी अखिलेश मुनि ने किया है। जिसके पृ० 271 ( ग्यारहवां संस्करण ) पर पार्श्वनाथ भगवान का स्तोत्र दिया है। जिसमें श्री पार्श्वनाथजी का एक विशेषण "श्री शंखेश्वर मंडन पार्श्वजिन" लिखा है। अर्थात्-शंखेश्वर गांव के सिरताज श्री पार्श्वनाथ भगवान / इससे भी शंखेश्वर पार्श्वनाथ नाम के तीर्थ की पुष्टि होती है / शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा के विषय में श्री पार्श्वनाथ चरित्र और हरिवंश चरित्र में इस प्रकार का उल्लेख पाता है कि गत चौबीसी के दामोदर नाम के तीर्थंकर भगवान को प्राषाढ़ी नाम के श्रावक ने पूछा कि-हे भगवन् ! संसार से मेरा निस्तार कब होगा? तब दामोदर भगवान ने उसको बताया कि मागामी चौबीसी के तेवीसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान के तुम गणधर बनोगे तब तुम्हारा मोक्ष होगा। ऐसा सुनकर प्रभु पार्श्वनाथ की प्रतिमा उसने बनवायी थी। श्री शुभवीर विजयजी महाराज कृत "शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन" में भी उक्त बात का जिक्र आता है। यथा संवेगे तजी घर वासो, प्रभु पार्श्व के गणधर थाशो। तब मुक्तिपुरी में जाशो, गुणीलोक में वयणे गवाशो रे / / शंखेश्वर साहिब साचो। इम दामोदर जिन वाणी, प्राषाढ़ी श्रावके जाणी। जिन वंदी निज घर पावे, प्रभु पार्श्वकी प्रतिमा भरावे रे // - शंखेश्वर साहिब साचो।
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________________ [ 47 ] खंड-१, पृ० 352 से 362 तक में जरासंध और कृष्ण की लड़ाई का लंबा चौड़ा वर्णन त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र, चउवन महापुरिष चरियं, वसुदेव हिन्डी आदि प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य से करने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी ने "श्री नेमिनाथ ने शंख ध्वनि की" इस बात का जिक्र किया है, किन्तु पद्मावती देवी प्रदत्त पार्श्वनाथ की प्रतिमा के अभिषेक जल से यादव सैन्य की जरा की बीमारी नष्ट हुई भादि बहुत से तथ्यों पर पर्दा डाल दिया है, यह कितना प्राश्चर्य है ! इतिहास लिखने बैठे हैं और ऐतिहासिक तथ्य को छिपा रहे हैं, ऐसे इतिहास को कौन सत्य मानेगा? विषम काले जिनबिंब जिनागम भविजन को आधारा।
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________________ [ प्रकरण-११] वैशाली में श्री मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप श्रेणिक महाराजा के पुत्र कूरिणक ने विशाला नगरी पर चढ़ाई की। उसी नगरी में बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी की पादुका स्थापित थी, जिससे नगरी पर कूणिक विजय नहीं पा सके थे। इसका वर्णन श्री नन्दीसूत्र में पृ० 61 पर है / यथा 444 विशालायां पुर्या कूलवालकेन विशाला भङ्गाय यन्मुनिसुव्रत पादुका स्तूपोत्खात सा तस्य पारिणामिकी बुद्धिः।xxx भावार्थ-विशाला नगरी का नाश करने के लिये श्री मुनिसुव्रत स्वामी के पादुका सहित स्तूप को उखाड़ने से नगरी का भंग हो सकेगा। ऐसा कथन कूलवालक मुनि ने किया यह पारिणामिक बुद्धि से। वैशाली के विनाश के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी ने खंड१, पृ० 746 से 754 तक लम्बा वर्णन किया है, किन्तु इस स्तूप के विषय में ऐतिहासिक विवरण नहीं दिया है / वैशाली के विनाश का संक्षिप्त इतिहास इसप्रकार है। राजा श्रेणिक के पुत्र कूणिक और वैशाली के राजा चेटक के बीच भयंकर युद्ध हुआ / कूणिक का बहुत दिनों तक वैशाली पर घेरा पड़ा रहा / लाखों सैनिकों के संहार होने पर भी कूणिक से वैशाली
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________________ [ 46 ] नगरी जीती नहीं जा सकी / दैवी शक्ति द्वारा कूणिक को ज्ञात हुआ कि वैशाली नगरी में श्री मुनिसुव्रतस्वामी का प्राचीन स्तूप है, जिसके प्रभाव से वैशाली अविजित रही है। अविजित वैशाली नगरी पर विजय पाने के लिये भगवान के स्तूप को तोड़ना आवश्यक था। अतः कूलवालक नाम के मुनि को मागधिका नाम की वेश्या द्वारा चरित्रभ्रष्ट करवाकर नैमित्तिक के रूप में गुप्त रीति से वैशाली में प्रवेश करवाया गया / वर्षों के युद्ध से परेशान जनता ने नैमित्तिक कूलवालक को युद्ध मुक्ति का उपाय पूछा / कूलवालक ने श्री मुनिसुव्रत स्वामी का स्तूप तोड़ देने पर युद्ध समाप्ति बतायी / काफी प्रचार के बाद लोगों ने कूलवालक की बात पर विश्वास कर स्तूप को तोड़ दिया। पूर्व संकेत के अनुसार कूणिक ने पहिले सैनिकों को वैशाली से दूर हटा लिया, किन्तु बाद में वैशाली पर आक्रमण करके इसको जीत लिया। खण्ड 1, पृ० 753 पर प्राचार्य लिखते हैं कि 44 दुश्मन के घेरे से ऊबे हुए नागरिकों ने फूलवालक को नैमित्तिक समझकर बड़ी उत्सुकता से पूछा-विद्वन् ! शत्रु का यह घेरा कब तक हटेगा? कूलवालक ने उपयुक्त अवसर देखकर कहा-"यह स्तूप बड़े अशुभ मुहूर्त में बना है। इसी के कारण नगर के चारों ओर घेरा पड़ा हुआ है। यदि इसे तोड़ दिया जाय तो शत्रु का घेरा हट जायगा। कुछ लोगों ने स्तूप को तोड़ना प्रारम्भ किया। फूलवालक ने कूणिक को संकत से सूचित किया / कूणिक ने अपने सैनिकों को घेरा समाप्ति का आदेश दिया। स्तूप के ईषत् भंग का तत्काल चमत्कार देखकर नागरिक बड़ी संख्या में स्तूप का नामोनिशां तक मिटा देने के लिये टूट पड़े। कुछ ही क्षणों में स्तूप का चिन्ह तक नहीं रहा।
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________________ [ 50 ] फूलबालक से इष्टसिद्धि का संकेत पाकर कूणिक ने वैशाली पर प्रबल आक्रमण किया। उसे इस बार वैशाली का प्राकार भंग करने में सफलता प्राप्त हो गई।xxx मीमांसा-इन सब बातों से इस तथ्य की ठोस पुष्टि होती है कि उस समय में भी यानी प्राज से करीब 2500 वर्ष पहिले भी वैशाली नगरी में श्री मुनिसुव्रत स्वामी का प्रभावशाली स्तूप था अर्थात् जिम मंदिर था, जिसके कारण ही वैशाली अविजित रही थी। जिनस्तूप के ऐसे अवर्णनीय प्रभाव को एवं जिनमन्दिर विषयक तथ्य का स्थानकपंथी प्राचार्य ने यहां प्रसंग प्राप्त विशद वर्णन नहीं किया है जो अनुचित है / प्राचार्य ने अपने इतिहास में यह भी नहीं लिखा है कि यह स्तूप कब बना था ? श्री महावीर स्वामी के समय में भी इसकी महिमा थी, आदि तथ्यों को भी प्राचार्य ने छिपाया है। फिर भी आज से 2500 साल पहिले भी वैशाली में जिनस्तूप यानी जिनमन्दिर था, इससे मूर्तिपूजा विषयक ठोस तथ्य को इतिहासकार प्राचार्य क्या स्वीकार करेंगे ? क्या प्राचार्य सत्य को सत्य रूप में पसंद करेंगे? सूत्रमपास्य जड़ा भाषन्ते, केचन मतमुत्सूत्रम् रे / किं कुर्मस्ते परिहृत पयसो, यदि पियन्ते मूत्रम् रे / अर्थात्-सूत्र नीति को छोड़कर मूर्ख-जड़ उत्सूत्र बोलता है। जो स्वादिष्ट दूध को छोड़कर पिशाब पीता है, उनके लिये हम क्या कर सकते हैं ? -पू० विनय विजयजी उपाध्याय
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________________ [ प्रकरण-१२] मार्य श्री शय्यंभव सूरि मौर जिन प्रतिमा जिसप्रकार श्री मुनिसुव्रत स्वामी के स्तूप के कारण वैशाली नगरी का विनाश संभव न हो सका था, ठीक उसीप्रकार यज्ञस्तम्भ (यूप) के नीचे रही भगवान श्री शांतिनाथजी की प्रभावशाली प्रतिमा के कारण शय्यंभव ब्राह्मण का यज्ञादि फलफूल रहा था और बाद में वे प्रतिमा दर्शन के कारण ही जैनदीक्षा में प्रतिबुद्ध हुए थे। श्री महावीर स्वामी की पाट परम्परा में श्री सुधर्मा स्वामी के बाद चौथे श्री शय्यं भव सूरिजी पाये। आपने श्री दशवकालिक सूत्र की रचना की थी / आर्य श्री शय्यंभव सूरि के विषय में श्री दशवैकालिक नियुक्ति शास्त्र तथा त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र इतिहास कश्रित कथानक इस प्रकार है। प्रार्य श्री प्रभवस्वामी को अपने समुदाय में चतुर्विध श्री संघ संचालक तेजस्वी साधु नहीं मिला / राजगृह नगर निवासी, यज्ञानुष्ठान निरत शय्यं भव ब्राह्मण को ज्ञानवल से सुयोग्य जानकर आप राजगृही में पधारे और दो साधुत्रों को संकेत पूर्वक शय्यंभव के यज्ञमंडप पर गोचरी के लिये भेजा / शय्यंभव ब्राह्मण ने यज्ञमंडप ( स्थल ) अपवित्र होने के डर से उनको रोका। तब साधु बोले कि-"तुम तत्त्व नहीं जानते" / शय्यंभव ने यज्ञगोरपुरोहित को तत्त्व पूछा / प्रधान पुरोहित ने यज्ञयाग और वेद को ही तत्त्व बताया। इस पर भी शय्यंभव की जिज्ञासा शांत न हुई और क्रुद्ध
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________________ [ 52 ] होकर उसने तलवार निकाली, तब जान खतरे में जानकर पुरोहित ने बताया कि-"सुख चैन से यज्ञ हो रहा है और तुम फूल फल रहे हो, इसका कारण यज्ञ स्तम्भ के नीचे रही श्री शांतिनाथ भगवान की प्रभावशाली प्रतिमा है।" शय्यंभव ने यूप ( यज्ञ स्तम्भ ) को तत्काल उखाड़कर प्रशांतमुद्रायुक्त श्री शांतिनाथ भगवान की प्रतिमा निकाली। ___ बाद में प्रार्य श्री प्रभवस्वामी के पास जाकर बाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा का तत्त्व पाकर अपनी सगर्भा स्त्री को छोड़कर उसने चारित्र लिया। उक्त यथार्थ कथानक के तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर खंड 2, पृ० 314 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि 446 उपाध्याय ने काल के समान करवाल लिये अपने यजमान ( शय्यंभव ब्राह्मण ) को सम्मुख देखकर सोचा कि अब सच्ची बात बताये बिना प्राणरक्षा असंभव है। यह विचार कर उसने कहा-"अर्हत भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म ही वास्तविक तत्त्व और सही धर्म है ( ! ? )" इसका सही उपदेश यहाँ विराजित आचार्य प्रभव से तुम्हें प्राप्त करना चाहिए।xxx मीमांसा-श्री दशवकालिक सूत्र के कर्ता श्री शय्यंभवसूरि श्री शांतिनाथजी की प्रतिमा को देखकर प्रतिबोधित हुए थे, ऐसा श्री दशवकालिक नियुक्ति शास्त्र में भी लिखा है, यथा xxx “सिज्जंभवं गणहरं जिणपडिमा दंसरणेण पडिबुद्ध // श्लोक-१४॥XXX यज्ञगोर ने शय्यंभव ब्राह्मण को यज्ञस्तम्भ के नीचे रही श्री शांतिनाथ भगवान को प्रतिमा को तत्त्व बताया था, ऐसा दशवकालिक
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________________ [ 53 ] नियुक्ति प्रागम एवं पूज्य हेमचन्द्राचार्य द्वारा रचित प्राचीन इतिहास के परिशिष्ट पर्व में भी प्रतिमा का सत्य बताया गया है, फिर भी प्रतिमा विषयक सत्य को छिपाना प्राचार्य का अनुचित कार्य ही है / इतिहास लेखन में स्थानकपंथी प्राचार्य को यदि प्रतिमा विरोधी मान्यता का ही समर्थन एवं निरूपण करना था, तो इतिहास लिखने की आवश्यकता ही क्या थी ? और उन्होंने अपने स्थानकपंथी इतिहास का नाम "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" ऐसा रखकर असत्य का सहारा क्यों लिया ? पंडिक्कमणे मुंनिदान विहारे, हिंसा दोष विशेष / लाभालाभ विचारी जोता, प्रेतिमा मां शो द्वेष ? -यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्यायजी
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________________ [ प्रकरण-१३] परमात्मा श्री नेमिनाथ व संहार कृष्ण और जरासंध के युद्ध में मातलि सारथी की बात में पाकर श्री नेमिनाथ ने संहारक लीला दिखायी और कुछ क्षणों में ही एक लाख शत्रुओं को मार गिराया। मानो श्री नेमिनाथ परमात्मा में दया का अंश ही न हो ऐसी कल्पित बात परमार्थ न जानने की अनभिज्ञता के कारण प्राचार्य ने बोड़ दी है। खंड 1, पृ० 356 पर माचार्य लिखते हैं कि xxx यह देखकर मातलि ( भगवान नेमिनाथ के सारथी ) ने हाथ जोड़कर अरिष्टनेमि से निवेदन किया-"त्रिलोकनाथ ! यह जरासन्ध आपके सामने एक तुच्छ कीट के समान है। आपकी उपेक्षा के कारण यह पृथ्वी को यादव विहीन कर रहा है। प्रभो ! यद्यपि आप जन्म से ही सावध (पापपूर्ण) कार्यों से पराङ्गमुख हैं, तथापि शत्रु द्वारा जो आपके कुल का विनाश किया जा रहा है, इस समय आपको उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। नाथ ! अपनी थोड़ी सी "लीला" दिखाइये।xxx मीमांसा-"अपनी थोड़ी सी लीला दिखाइये" इस कथन को प्राचार्य हस्तीमलजी ने कौन से प्रागम शास्त्र से लिया है, वह इन्होंने सूचित नहीं किया है / किन्तु दोष रहित परमात्मा को लीला और वह भी 'संहारक लीला' के साथ जोड़कर प्राचार्य ने अक्षम्य अपराध ही किया है।
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________________ [ 55 ] जिनमंदिर में जिनपूजा के अवसर, स्थावरकाय जीवों की स्वरूपमात्र विराधना के विषय में हिंसा हिंसा का शोर मचाने वाले और दयाधर्म की बांग पुकारने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी ने परमकृपालु, ज्ञानभित वैराग्यवन्त, जन्म से तीन ज्ञान धारक श्री नेमिनाथ परमात्मा को संहारक हिंसक लीला करने वाला बताया है, यह कहां तक सही हो सकता है, पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं। मातलि सारथी के 'लीला दिखाइये' सिर्फ इतना कहने पर ही जन्म से पाप कार्यों से परांगमुख श्री नेमिनाथ भगवान को मानो पानी चढ़ गया और संहारक लीला दिखायी ऐसा खण्ड 1, पृ० 358 पर प्राचार्य लिखते हैं / यथा xxx इस तरह प्रभु ( अरिष्टनेमिनाथजी ) ने बहुत हो स्वल्प समय में एक लाख शत्रु-योद्धाओं को नष्ट कर डाला।xxx मीमांसा-दयार्द्र श्री नेमिकुमार ने पशु संहार के बारे में सोचकर और पशु पुकार को सुनकर शादी तक नहीं की थी और संसार त्यागपूर्वक चारित्र लिया था। ऐसे परमकृपालु परमात्मा नेमिनाथ ने लाख सैनिकों को मार गिराया ऐसा भाचार्य हस्तीमलजी का लिखना विचार शून्य और सूत्र के रहस्यों एवं परमार्थ नहीं जानने की क्षमता को ही सूचित करता है / यद्यपि इस विषय में बिना गुरुगम और अनभिज्ञतावश प्राचार्य हस्तीमलजी ने परमात्मा श्री अरिष्ट नेमिनाथजी की 'नरसंहारक लीला' वह भी मातलि सारथी के “लीला दिखाइये" सिर्फ इतने शब्दों पर, को त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र के साथ जोड़ना चाहा है जो अनुचित है। लकीर के फकीर बनकर अन्य को सूत्र के परमार्थ रहस्य को जानों ऐसा कोरा उपदेश [ श्री ऋषभदेव भगवान के 400 दिन के उपवास के विषय में] देने वाले अहिंसक धर्म के ठेकेदार प्राचार्य ने यहाँ सूत्रार्थ को जानने की कोशिश नहीं की है, इस कारण ही सिर्फ मातलि
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________________ [ 56 ] सारथी के वचन पर ही जन्म से पापकार्यों से पराङ्गमुख श्री नेमिनाथ भगवान को संहारक लीला के साथ जोड़ने का साहस कर सके हैं। प्राचार्य यहाँ यह क्यों भूल जाते हैं कि तीर्थंकर परमात्मा का चारित्र तद्भव में सर्वथा निर्दोष ही होता है / ऐसी भ्रामक बात लिखने वालों से जैन समाज को सावधान रहना चाहिए और विशेषकर दयाधर्मी समाज को, क्योंकि तीथंकर श्री नेमिनाथ भगवान के उज्ज्वल चरित्र को कलंकित करने की प्राचार्य हस्तीमलजी की यह गहणिय चेष्टा है। यद्यपि चौबीस तीर्थंकरों में सोलहवें शांतिनाथजी, सत्रहवें कुंथुनाथजी, एवं अठारवें भरनाथजी षट्खंड पृथ्वी के साधक चक्रवर्ती राजा हुए हैं / किन्तु इन पुण्यात्माओं को बिना शस्त्र उठाये ही षखंड भूमि प्राप्त हो जाती है, क्योंकि तीर्थकर पुण्यलक्ष्मी उनके चरण चूमती है। ऐसा ही पुण्य प्राग्मार श्री पावकुमार का था। उनके युद्धभूमि में जाने के साथ ही उस मातलि सारथी सहित देवोंद्वारा पूजे गये पाश्वंकुमार को देखकर यवनराजा प्रभु के चरणों में आ गया था। ऐसा ही पुण्य प्रकर्ण श्री नेमिनाथजी का था, ऐसा प्राचार्य को स्वीकार करना चाहिए। जिसके हृदय में सूत्राभ्यास द्वारा सद्बोधक प्रार्दुभाव हुआ है, उसके हृदय में ही आगमसूत्र की तात्त्विक स्पर्शना होती है। -ग्यायदिशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय
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________________ [प्रकरण-१४] श्री पार्श्वनाथजी को वैराग्य एक बार पार्श्वकुमार कुमारावस्था में बगीचे में अपनी पत्नी प्रभावती के साथ गये। वहाँ महल की दीवार पर श्री नेमिनाथजी ने राजीमति को छोड़कर किस प्रकार चारित्र लिया इनके विषय में चित्र देखे। यह निमित्त पाकर पार्श्वकुमार चारित्र लेने के लिये उद्यत हुए। इस विषय में पूर्वमुनि रचित श्री पार्श्वनाथजी की स्तुति भी जैन समाज में प्रसिद्ध है यथा "नेमिराजी चित्र विराजी, विलोकित व्रत लिये" / अर्थात्- नेमिनाथजी और राजीमति को (बारात के) चित्र में विराजमान देखकर पार्श्वकुमार ने चारित्र लिया। __श्री पार्श्वकुमार को चारित्र लेने में चित्र निमित्त बने हैं ऐसा पूर्वाचार्य कहते हैं, फिर भी यह बात प्राचार्य हस्तीमलजी को प्रखरती है, जो सर्वथा अनुचित है। चित्र दर्शन से ज्ञान प्राप्ति के इस सत्य तथ्य को अन्य पूर्वाचार्यों के नाम लिखकर प्राचार्य ने स्वयं को अलिप्त रखने की चेष्टा की है और इतिहासकार के नाते सत्य में अरुचि प्रगट की है, जो उचित नहीं है।
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________________ [ 58 ] श्री पार्श्वकुमार को तस्वीर से [ चित्र दर्शन से ] वैराग्य हुआ है, इस तथ्य को मजबूर होकर खंड 1, पृ० 486 पर प्राचार्य हस्तीमलजी को अन्य पूर्वाचार्यों के नाम लिखने पड़े हैं कि xxx जैसे 'चउवन महापुरिस चरियं' के कर्ता आचार्य शीलांक, "सिरिपास नाह चरियं" के रचयिता देवभद्रसूरि और 'पार्श्वनाथ चरित्र' के लेखक भावदेव तथा हेमविजयगणि ने भित्तिचित्रों को देखने से ( पार्श्वकुमार को ) वैराग्य होना बताया है। Xxx. मीमांसा-इतने सारे प्राचीनाचार्यों का कथन होने पर तो प्राचार्य को तस्वीर विषयक तथ्य को अवश्य स्वीकारना ही चाहिए और इस विषय में अपनी नाराजगी दूर करनी ही चाहिए। स्थानकपंथ के पाद्य प्रणेता एक वृद्ध जैन भाई लोंकाशाह ने चारित्र लिया था, ऐसा कहीं से सिर्फ संकेत मात्र मिल जाने पर बढ़ा चढ़ाकर लम्बी वाक्य . रचना कर देने में कुशल प्राचार्य को पार्श्वकुमार के वैराग्य में प्राचीन पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों का सहारा मिलने पर भी सत्य को स्वीकार करने में कौनसा सिद्धान्त बाध्य करता है ? अपनी तस्वीर बनवाकर बँटवाने वाले, गृहस्थ की तस्वीर को अपने इतिहास में छपवाने वाले, तीर्थंकर परमात्मा के लांछन चित्रों को मान्यता देनेवाले आचार्य जब तीर्थकर परमात्मा की तस्वीर मात्र से ही नफरत करते हैं तब सखेद पाश्चर्य होता है। यद्यपि जन्म से ही तीन ज्ञानधारक तीर्थंकर परमात्मा स्वयं बुद्ध होते हैं, वे किसी से बोध पाकर चारित्री नहीं बनते, फिर भी जैसे अरिष्टनेमिकुमार का शादी न करके चारित्र लेने में पशुओं का करुण क्रंदन निमित्त हुआ है, वैसे ही पार्श्वकुमार को नेमिनाथ और राजीमति का चित्र दर्शन चारित्र का निमित्त बना ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है, जो
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________________ [ 56 ] सर्वथा उचित ही है / एवं ज्ञानभित वैराग्यवन्त होते हुए भी तीर्थंकर परमात्मा नियत समय पर ही चारित्र लेते हैं, उसी तरह स्वयंबुद्ध होने पर भी अगर वे कोई बाह्य निमित्त से चारित्र ग्रहण करते हैं, तो उसमें शास्त्र सिद्धान्त सहमत है / श्री शान्तिनाथ भगवान के चरित्र में खंड 1, पृ० 240 पर प्राचार्य स्वयं लिखते हैं कि xxx लोकान्तिक देवों से प्रेरित होकर प्रभु ने वर्षभर याचकों को इच्छानुसार दान दिया.......... ( यावत् ) सिद्ध की साक्षी से सम्पूर्ण पापों का परित्याग कर दीक्षा ग्रहण की।xxx __ मीमांसा–उक्त प्रकार ही पूर्वाचार्यों का प्राचीन ग्रन्थों में ऐसा कहना है कि श्री पार्श्वकुमार को चारित्र का निमित्त श्री नेमिनाथ तथा राजीमति के बारात के चित्र हुए थे। इस सत्य तथ्य को प्रामाणिकता पूर्वक प्राचार्य को स्वीकार करना चाहिए / पाप नहीं कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो, धर्म नहीं कोई जग सूत्र सरिखो // -अध्यात्ममूर्ति महान विद्वान् श्री प्रानन्दघनजी महाराज
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________________ [प्रकरण-१५] प्रतिमा से वैराग्य का उपदेश कुम्भराजा की पुत्री मल्लिकुमारी का सौंदर्य अलौकिक था। लोकोत्तर सौंदर्य की प्रशंसा सुनकर पूर्वभव के छह मित्रों ने मल्लिकुमारी के साथ शादी करनी चाही / राजा कुम्भ डर गये कि एक राजकुमार को मल्लिकुमारी देने पर उन्हें अन्य के साथ लड़ाई मोल लेनी पड़ेगी। बाद में मल्लिकुमारी ने अपनी प्रतिकृति-प्रतिमा बनवाकर शरीर की अशुचिता उस प्रतिमा-मूर्ति द्वारा दिखाकर उन छहों राजकुमारों को प्रतिबोधित किया था। श्री ज्ञातासूत्र एवं ठाणांगसूत्र में भी लिखा है कि मल्लिकुमारी ने अपनी प्रतिकृति-प्रतिमा द्वारा राजकुमारों को प्रतिबोधित किया था। इस विषय में खंड 1, पृ० 278 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि xxx सूर्योदय होते ही मोहन घर के गर्भगृहों के वातायनों में से जितशत्रु आदि उन छहों राजाओं ने भगवती मल्लि द्वारा निर्मित साक्षात् मल्लि की प्रतिकृति-प्रतिमा को मणिपीठ पर देखा / xxx मीमांसा-तस्वीर में बहुत कुछ रहस्य भरा हुआ है, तभी तो स्थानकपंथी संत भी अपनी तस्वीरें आज भी बड़े चाव से छपवातेबंटवाते नजर आते हैं। पिछले प्रकरण में हम देख पाये हैं कि श्री नेमिनाथ और राजीमति के चित्रों के दर्शन, श्री पार्श्वकुमार को चारित्र
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________________ [ 61 ] दीक्षा में निमित्त हुए थे और प्रस्तुत में भगवती मल्लिकुमारी अपनी प्रतिकृति-प्रतिमा द्वारा छहों राजाओं को प्रतिबोधित करती हैं। इन सब तथ्यों से प्रतिमा विषयक सत्य की पुष्टि होती है, जिसे प्रामाणिकता और हिम्मतपूर्वक प्राचार्य को स्वीकार करना चाहिए एवं तस्वीर सिर्फ "परिचय" के लिये ही नहीं है, किन्तु ज्ञान वंदनादि के लिये भी है ऐसा अनेकान्तवाद का माश्रय लेना चाहिए। हमारे पास स्थानकमार्गी प्राचार्य चौथमलजी सहित 43 मुनियों की सामूहिक तस्वीर-फोटो है, जिसके विक्रय हेतु समाचार पत्रों में भी प्रचार करवाया गया था। यद्यपि "तस्वीर सिर्फ परिचय के लिये है" ऐसा तस्वीर के नीचे लिखकर स्थानकपंथी बाहर से थोथा विरोध करते हैं किन्तु निज की तस्वीरें चाव से छपवाने और बँटवाने वाले वे लोग अपने अन्दर झांककर देखें तो उन्हें तस्वीर का मुख्य प्रयोजन अपने आप मालुम हो जाएगा / जड़ नाम के स्मरण के पीछे जो प्राशय सधता है, इससे अनेक गुणा प्राशय जड़ तस्वीर या प्रतिमा के दर्शन पूर्वक के नाम स्मरण से सधता है, यह उनको समझना चाहिए। अपनी तस्वीरें बड़े चाव से छपवाने-बटवाने वाले स्थानकपंथी संतों ने क्या कभी तीर्थंकर भगवान की तस्वीर भी छपवायीबंटवायी है ? अरे ! और तो क्या कहें ? एकान्ते शरण्य, ज्ञानदाता श्री तीर्थंकर की तस्वीर से नफरत करनेवाले प्राचार्य हस्तीमलजी स्वयं ने ही अपने इतिहास में दानदाता गृहस्थ की तस्वीर छपवाई है। तीर्थंकर भगवान की तस्वीर के प्रति ही ऐसा पक्षपात और घृणा करना प्राचार्य का अनुचित एवं कृतघ्नतापूर्ण कृत्य है / विषम काले जिन बिम्ब जिनागम __ भविजन को आधारा।
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________________ [प्रकरण-१६ ] अरिहंत पर प्रभक्ति एवं पूर्वाचार्यों पर प्रबहुमान "जैनधर्म का मौलिक इतिहास-खंड 1" पर चौबीसों भगवान के परिचायक भिन्न भिन्न लांछन चित्रों की तस्वीर एवं भीतर में दानदाता गृहस्थ की तस्वीर छपाने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी ने ज्ञानदाता तीर्थकर परमात्मा की तस्वीर अपने इतिहास में न छपवाकर अरिहंत परमात्मा पर अपनी प्रभक्ति का परिचय दिया है। यानी आचार्य को गृहस्थ की तस्वीर से कोई पक्षपात नहीं है और तीर्थंकरों की लांछन तस्वीर से भी उन्हें कोई विरोध नहीं है, पक्षपात और विरोध है तो केवल ज्ञानदाता जिनेश्वर श्री तीर्थंकर भगवान की तस्वीर से है, जो सर्वथा अनुचित ही है / भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों की पहचान करानेवाले लांछनों को मानना और उन मूर्तियों के प्रति प्रांखें मूद लेना यह कौनसा रोग होगा ? ज्ञानी जाने ! किन्तु इसके मूल में प्राचार्य की तीर्थंकरों के प्रति भक्ति एवं बहुमान का प्रभाव ही प्रगट होता है। . इसी तरह प्राचार्य में महा धुरंधर पूर्वाचार्यों पर भी प्रभक्ति. एवं प्रबहुमान प्रतीत होता है क्योंकि मूर्ति और मंदिर की बात माने पर प्राचार्य हस्तीमलजी वृत्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकादि के रचयिता पूर्वाचार्यों को झूठा करने में तनिक भी लज्जा नहीं करते हैं / आश्चर्य
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________________ [ 63 ] तो इस बात का है कि पूर्वाचार्यों द्वारा रचित टीकादि ग्रन्थों के सहारे बिना एक भी स्थानकपंथी विद्वान् ( ! ) अपना लेख सम्पूर्ण एवं प्रामाणिक लिख ही नहीं पाते हैं, फिर भी पूर्वाचार्यों को झूठा ठहराने में वे अपनी कृतघ्नता नहीं समझते / यह कैसी विडंबना है कि गुड़ खाना और गुलगुलों से परहेज ! खंड 1, पृ० 884 पर दी गयी, संदर्भ ग्रन्थ की सूची इस बात की साक्षी है कि प्राचार्य हस्तीमलजी को प्राचीन जैनाचार्यों पर श्रद्धा, भक्ति, बहुमान और आदर नहीं है / उसी सूची में स्थानकपंथी संत का नाम सन्मान एवं बहुमान सूचक विशेषणों से लिखा है। प्राचार्य हस्तीमलजी ने अपने इतिहास की संदर्भ सूची में जिनसे ज्ञान लिया है उन महान् उपकारी पूर्वाचार्यों के नाम प्रा० हेमचन्द्र, मलयगिरि, अभयदेवसूरि, राजेन्द्रसूरि ऐसे अबहुमान सूचक शब्द लिखकर और बहुमान सूचक विशेषणों का प्रयोग न कर उनके उपकार का बदला कृतघ्नता से चुकाया है। अन्यथा महाउपकारी पूर्वाचार्यों के नाम लिखने का अवसर प्राप्त हो, वहाँ प्रातःस्मरणीय, महोपकारी, महाज्ञानी, पूज्य, पूज्यपाद, परमपूज्य ऐसे विनय, श्रद्धा, भक्ति, सम्मान, बहुमान, आदर और अहोभाव सूचक शब्दों के प्रयोग द्वारा प्राचार्य की लेखनी पूलकित होनी चाहिए थी। लेखनी को पूर्वाचार्यों के पवित्र विशेषणों से पुलकित करने के बजाय अन्य विषयों में फालतू पिष्ट पेषण करने वाले प्राचार्य ने उपकारी के उपकार का बदला चुकाने का अवसर प्राने पर अपनी लेखनी का सही सदुपयोग नहीं किया है, जो उनका आघात जनक वर्तन है, क्योंकि पूर्वाचार्यों में जो ज्ञान है उसका अंश भी प्राचार्य में होना संभव नहीं है। कुछ शताब्दियों से पंडित मन्य आधुनिक चिंतकों की ऐसी कुप्रवृत्ति चली है, कि वे जिनसे ज्ञान लेते हैं उन महान पूर्वाचार्यादि के
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________________ [ 64 ] नाम हेमचन्द्र, हरिभद्र, यशोविजय, शीलांग, मलयगिरि, ऐसे प्रबहुमान, अनादर, अविनय मोर प्रभक्ति पूर्ण शब्द प्रयोग करके उनके प्रति अपना अभिमान, मनम्रता और प्रश्रद्धा सूचित करते हैं। महाज्ञानी पूर्वाचार्यादि के पवित्र नाम के आगे पीछे विशेषण न देकर करना चाहिए उतना सम्मान नहीं करने वालों में और इस प्रविनय पूर्ण प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में स्थानकवासी सम्प्रदाय में प्राचार्य हस्तीमलजी भी एक हैं जिसका हमें सखेद आश्चर्य है। उपकारी के उपकार का बदला अपकार से चुकाने की ऐसी कृतघ्नता पूर्ण नीति-रीति को प्राचार्य भविष्य में अवश्य सुधारेंगे, हमारी यही माशा है। अभ्यर्चनावहतां मनः प्रसादस्ततः समाधिश्च / तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याग्यम् / श्री अरिहंत परमात्मा की अभ्यर्चना से मन की प्रसन्नता, मन की प्रसन्नता से निःश्रेयस-मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये सभी मुमुक्षु आत्माओं को अरिहंत प्रभु की पूजा अवश्य करना चाहिए / यह न्याय संगत एवं उचित है। -10 पूर्वधर पूज्य उमास्वाति महाराज
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________________ [ प्रकरण-१७ ] अंबड सन्यासी और सम्यग्दर्शन प्रागम शास्त्रों में जहां भी श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन पाया है वहां सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन का वर्णन पाया है। सम्यग्दर्शन प्रहण के बिना बारह व्रत की प्राराधना निष्फल मानी गई है / प्रतः श्री भगवती आदि सूत्रों में आनन्द, कामदेव आदि श्रावकों के बारह व्रत स्वीकारने की बात पायी है, वहां बारह व्रत के पूर्व सम्यग्दर्शन के स्वीकार की बात आती है। क्योंकि समकित बिना नवपूर्वी को भी प्रज्ञानी माना गया है। श्रद्धा भ्रष्ट को जैनागम ने भ्रष्ट कहा है। श्रद्धाभ्रष्ट जमालि मादि के चारित्र की कीमत फूटी कौड़ी भी नहीं मानी गई है। सुदेव-सुगुरु-सुधर्म पर ही श्रद्धा-विश्वास करना अर्थात् कुदेव, कुगुरु और कुधर्म को त्यागना यह सम्यग्दर्शन है। यानी अरिहंत देव और अरिहंत देव की प्रतिमा को ही मानना पूजना, अन्य मिथ्यादृष्टि देव-देवियों में विश्वास नहीं करना / पंच महाव्रत धारी शुद्ध जिनागम प्ररूपक साधुनों को ही गुरु मानना, कुवेष-कुलिंग धारी, उत्सूत्र प्ररूपक, पालू प्रादि अनंतकाय और बासी, द्विदल प्रादि अभक्ष्य को भक्षण करने वाले को गुरु नहीं मानना तथा वीतराग श्री अरिहंत देव प्ररूपित सत्त्वों पर ही श्रद्धा-विश्वास करना यह सम्यग्दर्शन है।
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________________ [ 66 ] अंबड नाम का एक सन्यासी श्री महावीर भगवान का भक्त बना था। खंड 1, पृ० 661-662 पर प्राचार्य हस्तीमलजी ने अंबड सन्यासी का अधिकार लिखा है, किन्तु अंबड ने श्री महावीर स्वामी के पास सम्यग्दर्शन को स्वीकार किया था, इस विषय में प्राचार्य ने एक शब्द भी नहीं लिखा है, जो इतिहास लेखक की अपूर्णता का सूचक है। . अंबड सन्यासी जब सम्यग्दर्शन को स्वीकार करता है तब भगवान श्री महावीर स्वामी के सामने प्रतिज्ञा करता है कि. xxxणण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा वंदिता वा नमसंति वा। [ श्री उववाई सूत्र ] 888 . अर्थात्-[ अंबड कहता है, हे भगवन् ! प्राज से मुझे ) अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमा की वंदन करना कल्पे, अन्य हरि हरादि और उनकी स्थापना-प्रतिमा को नहीं / - उक्त सूत्र का समदर्शी लौंकागच्छीय प्राचार्य श्री अमृतचन्द्र सूरि ने निम्नलिखित अर्थ किया है। यथा - xxx अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमा की स्थापना ते वंदन करवा कल्पे (अन्य नहीं)। [ श्री उववाई सूत्र पृ० 297 ] 88 कल्पित एवं ऊटपटांग अर्थ करते हैं कि
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________________ [ 67 ] 4 4 फक्त अरिहंत और अरिहंत के [ चैत्य यानी ] साधु को ( ? ) ही वन्दन करना-नमस्कार करना यावत् सेवा भक्ति करना कल्पता है / [ उववाई सूत्र पृ० 163 ] xxx मीमांसा-यहां अमोलक ऋषि ने “अरिहंत घेइयाणि" सूत्र पाठ का कल्पित एवं झूठा अर्थ "अरिहंत के साधु" ऐसा किया है, जो उनके श्री अमृतचन्द्र आदि लौंकागच्छीय प्राचार्य ने किये अर्थ से भी विपरीत एवं विरुद्ध है तथा कोष और व्याकरण निरपेक्ष भी है। लोंकागच्छ के प्राचार्यों ने भी मन्दिर में जिन प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवायी है, ऐसी दशा में जो स्वयं के प्राचार्यों के विरुद्ध चलते हैं वे अगर उनसे भी प्राचीन प्राचार्यों एवं शास्त्रों को मान्य न करें और उनसे विपरीत या विरुद्ध चलें, तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है ? अंबड सन्यासी के अधिकार में सम्यग्दर्शन की बात ही प्राचार्य हस्तीमलजी ने अपने इतिहास में छिपाई है और उनके पूर्ववर्ति अमोलक ऋषि ने मनमाना कल्पित अर्थ किया है, उनके आदि पुरुष लौंकाशाह से इस स्थानकपंथ परम्परा की यही विशेषता रही है। __स्थानकपंथियों में कोई "बृहत् शांति स्तोत्र" को मूर्तिपूजा समर्थक पाठों की कांट-छांट करके संक्षिप्त कर रहा है, तो कोई विद्यावन्त चारणमुनियों का नंदोश्वर प्रादि द्वीप में सैर-सफर हेतु जाने का लिख रहा है, तो कोई पागम सूत्रों का मनचाहा अंट-शंट अर्थ कर रहा है, तो कोई परमार्थ नहीं जानते हुए भी "घंटाकर्ण महावीर"
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________________ [ 68 ] नाम के यक्ष का मंत्र-जंत्र छपवा रहा है, तो कोई पालू, बासी, मक्खन मादि अभक्ष्य का भक्षण करने पर भी दया धर्म की बांग पुकार रहा है, तो कोई श्री महावीर स्वामी प्रादि की मुहपत्ती बंधी हुई तस्वीरफोटो छपवाकर बंटवा रहा है, तो कोई निज की तस्वीर युक्त लोकेट अपने भक्तों को दे रहा है, यह कितना असामंजस्य ? तप संयम किरिया करो, मन राखो ठाम / समकित बिन निष्फल हुए, जिम व्योम चित्राम / / -पूज्यपाद् ज्ञानविमलमूरिजी महाराज साहब
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________________ [प्रकरण-१८] वशपूर्वधर श्री वजस्वामी के विषय में पक्षपात धनगिरि ने अपनी सगर्भा पत्नी को छोड़कर पूज्य प्रार्य श्री सिंहगिरिजी से दीक्षा ली थी। जन्म के बाद अपने पिता की दीक्षा की बात सुनकर बालक को जाति स्मरण ज्ञान हो गया और माता से छुटकारा पाने के लिये उसने दिन रात रोना शुरू किया। परेशान माता ने अपने पुत्र को धनगिरि को सौंप दिया। गुरु प्रार्य श्री सिंहगिरिजी ने भारी वजन होने के कारण बालक का नाम वज्र रखा। बालक वज्र ने साध्वीजी के उपाश्रय में रहते रहते साध्वियों द्वारा रटाते हुए शास्त्र पाठों को सुन सुनकर ग्यारह अंग कंठस्थ कर लिये। बालक वज़ को बाद में आर्य श्री धनगिरि ने दीक्षा दी। प्रापने क्रम से श्री भद्रगुप्ताचार्य के पास 10 पूर्व का अध्ययन किया और आर्य श्री धनगिरिजी ने आपको अपना पट्टधर बनाया। पापको प्राकाशगामिनी लब्धि थी, जिसके प्रयोग से आप समस्त श्री जैनसंघ को पट्ट पर बैठाकर दुभिक्ष क्षेत्र से सुभिक्ष के क्षेत्र में लाये थे। उस सुभिक्ष क्षेत्र का राजा बौधधर्मी था, जो जैनधर्मावलम्बियों से द्वेष रखता था। पवित्र पर्युषणा पर्व में तीर्थंकर परमात्मा के पूजन हेतु पुष्प चाहिए थे, जिनको देने के लिये बौद्ध राजा ने मना कर दिया था। तब प्रार्य श्री वज्रस्वामी विद्या द्वारा प्राकाश मार्ग से हिमवंत पर्वत पर गये और श्री देवी के
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________________ [ 70 ] पास से कमल तथा पितृमित्र देव के पास से बीस लाख पुष्प लाकर प्रतिस्पद्धि बौद्धों के सामने जैन धर्म की प्रभावना करते हुए शासनोन्नति का महान कार्य किया था। इस शासन प्रभावना से प्रभावित होकर बौद्धराजा एवं अन्य प्रजा भी जैनधर्मी बन गये थे। दशपूर्वधर शासन प्रभावक महान जैनाचार्य श्री वज्रस्वामी के विषय में खंड 2, पृ. 578 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि RXXआपने आकाशगामिनी विद्या का प्रयोग करके संघ को सुभिक्ष में पहुंचाया था। वहाँ का राना बौद्धधर्मानुयायी होने के कारण जैन उपासकों के साथ विरोध रखता था, पर आर्यवन के प्रभाव से वह भी श्रावक बना और इससे धर्म की बड़ी प्रभावना हुई।888 . मीमांसा–देखिये ! यहाँ कैसा गोल-मोल एवं अप्रमाणिक लिखा गया है / बौद्धराजा पर आर्य श्री वज्रस्वामी का कौन सा प्रभाव पड़ा था, जिसके कारण बौद्धधर्म को छोड़कर वह जैनधर्मी बन गया। इस तथ्य को संदिग्ध रखकर प्राचार्य ने अपनी पुरानी खासियत के मुताबिक जिनमूर्तिपूजादि के विषय में सत्य से ही अनादर किया है / क्योंकि बौद्ध राजा के जैनधर्मी बनने के पीछे प्रार्य श्री वज्रस्वामी का आगाशगामिनी विद्या द्वारा आकाशमार्ग से जाकर श्रीदेवी के पास से पद्म एवं पितृमित्र देव के पास से 20 लाख पुष्प लाना आदि कारण है यह सत्य है। जिन मंदिर और जिनप्रतिमापूजा के विषय में मतिभ्रम और सम्मोह के कारण स्थानकपंथी कभी भी सत्य नहीं लिख सकते हैं। फिर भी भार्य श्री वज्रस्वामी आकाशगामिनी विद्या से आकाश मार्ग से भगवान की पुष्पपूजा हेतु पुष्प लाये थे और जैनमतावलम्बियों के मनोरथों की पूर्ति की थी। इस तथ्य का
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________________ [ 71 ] स्वीकार प्राचार्य द्वारा दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा की साम्यता दिखाने के अवसर पर अनायास ही हो गया है। खंड 2, पृ० 585 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx आर्य वज्र के गगन विहारी होने, जैनों के साथ बौद्धों द्वारा की गयी धार्मिक उत्सव विषयक प्रतिस्पर्धा में आर्यवन द्वारा जैनधर्माव. लम्बियों के मनोरथों की पूर्ति के साथ जिनशासन की महिमा बढ़ाने आदि आर्यवन के जीवन की घटनाओं एवं सम्पूर्ण कथावस्तु की मूल आत्मा में दोनों परम्पराओं को पर्याप्त साम्यता है / Xxx मीमांसा–प्रार्य श्री वज्रस्वामी गगन विहारी क्यों हुए ? जैन और बौद्धों में कौनसे धार्मिक विषय में प्रतिस्पर्धा हुई ? प्रार्य श्री वज्रस्वामी ने जैनधर्मावलम्बियों के कौन से मनोरथों की पूर्ति की थो? दोनों परम्परा में दिगम्बर और श्वेताम्बर आते हैं जो मूर्तिपूजा में विश्वास रखते हैं, फिर स्थानकपंथियों का स्थान कहां है ? प्रादि अनेक प्रश्नों को प्राचार्य ने अस्पष्ट ही रखा है, जो अनुचित ही है / __यहां प्राचार्य ने धार्मिक उत्सव विषयक प्रतिस्पर्धा का उल्लेख किया है, किन्तु हिम्मत और सत्यता पूर्वक यह नहीं लिखा कि बौद्धराजा ने जैनियों को पर्युषणा पर्व में जिनप्रतिमा की पूजा हेतु पुष्प देने की मना करदी थी। तब प्रार्य श्री वज्रस्वामी ने जैनधर्मावलम्बियों के मनोरथ की पूर्ति आकाशगामिनी विद्या द्वारा पुष्प लाकर की थी। इससे प्रभावित होकर बौद्धधर्मी राजा एवं प्रजा जैनधर्मी बने थे, इस सत्य तथ्य को प्राचार्य ने छिपाया है। एक बात और भी है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन परम्परा मूर्तिपूजा में विश्वास करती है, अतः श्री वज्रस्वामी के कथानक में दोनों परम्परामों की साम्यता होना स्वाभाविक ही है। किन्तु इन दोनों परम्परा की श्रद्धा से विपरीत श्रद्धा स्थानकपंथी की हैं, अतः वे अपने आप ही जैनाभास
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________________ [ 72 ] सिद्ध हो जाते हैं, ऐसी दशा में वे लोग जैनधर्म के मूल से सम्बन्धित जिनमूर्ति और जिनमूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं सत्यता का समर्थन क्यों करेंगे? यहाँ वही पुरानी लकीर के फकीर बनकर प्राचार्य हस्तीमलजी ने महान जैनाचार्य 10 पूर्वधर प्रार्य श्री वज्रस्वामी के चरित्र को मूर्तिपूजा से संबंधित होने के कारण अप्रमाणिक लिखा है और सत्य को तोड़-मरोड़ करके प्रस्तुत किया है। इससे जैन इतिहास लेखन के सम्बन्ध में की हुई उनकी तटस्थता और सत्यता की प्रतिज्ञा का सर्वथा भंग ही हुआ है, जो अत्यन्त खेदजनक है। जिसको जैनागम हृदयंगम नहीं हुए हैं, वह चाहे प्राचार्य पदाधिरूढ़ क्यों न हों, जैन सिद्धान्त का दुश्मन ही है, क्योंकि जैनागम के विषय में वह दिङ मूढ़ है। -भागमेतर सबसे प्राचीन शास्त्र श्री उपदेशमाला
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________________ अति प्राचीन भव्य जिन प्रतिमा
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________________ [ प्रकरण-१६] जैनधर्म मौर माडम्बर चातुर्मास में दर्शनार्थियों के लिए चौका लगवाने की प्रेरणा करना, निज की प्रतिष्ठा एवं प्रदर्शन हेतु कोसों की दूरी से भक्तजनों को दर्शन के बहाने बुलाना, निज की तस्वीरें छपवाना-बँटवाना, पत्रिका एवं साप्ताहिक पत्र प्रादि निकालना, श्रावकों का सम्मेलन करवाना, उपाश्रय-स्थानक बनवाना, गोठ-प्रीतिभोज करवाना, नारियल आदि की प्रभावना बँटवाना, अपने गुरु का जन्मदिन मनवाना तथा इस हेतु पत्रिका छपवाना आदि अनेक बाह्य क्रियाकांड और बाह्य आडम्बर करने में हिंसा और पाप नहीं मानने वाले दयाधर्म के ठेकेदार ( ! ) स्थानकपंथियों जिनमन्दिर निर्माण, जिन प्रतिमा प्रतिष्ठा, जिन प्रतिमा पूजा, सिद्धचक्र प्रादि पूजन, स्नात्र पूजा, स्वामी वात्सल्य, तीर्थयात्रा, यात्रासंघ, जलयात्रा का जलूस आदि जैनधर्म सम्बन्धित प्राचीन और जैनशासनोन्नतिकारी जैन शास्त्र कथित पवित्र क्रियानों को मनभर के कोसते हैं और बाह्य प्राडम्बर कहकर उनका अनादर एवं अपलाप करते हैं, यह अत्यन्त गलत कृत्य है। वैसे देखा जाए तो जिस क्रियादि को प्राचार्य हस्तीमलजी अपनी "सिद्धान्त प्रश्नोत्तरी" नामक किताब में बाह्य प्राडम्बर और बाह्य क्रियाकांड कहते हैं, वह जैनधर्म की कौनसी प्रवृत्ति में नहीं है ! तीर्थंकर परमात्मा का समवसरण में रत्न के सिंहासन पर बैठना, नव
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________________ [ 74 ] कमल पर चलना आदि क्रियाएं क्या बाह्य प्राडम्बर नहीं है ? देवों द्वारा होती पुष्पवृष्टि, चंवर ढुलाना तथा सूर्याभदेव और जीणकुमारियों का नाटक प्रादि भगवान श्री तीर्थंकर की मौजूदगी में भी होता था, इन प्रवृत्तियों को प्राप्त भगवान ने बाह्य प्राडम्बर कहकर हेय या त्याज्य नहीं कहा है। प्राचार्य श्री मानतुग सूरि महाराज ने भी "भक्तामर स्तोत्र" श्लोक-३३ में तीर्थंकरों के बाह्याडम्बर-ठाठ-शोभा-विभूति का वर्णन किया है, यथा xxx इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र / धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य // xxx महान तत्त्व ज्ञानियों ने इस बाह्याडम्बर को भी अन्य जैनेतर भद्रक भव्य जीवों को जैनधर्म के प्रति आकर्षण करने और जैनधर्म प्रेमी बनाने के लिये प्रबल हेतु माना है। मगध सम्राट श्रेणिक, कूणिक, दर्शाणभद्र आदि बड़े बड़े राजा महाराजा भी भगवान के दर्शन हेतु बड़े ठाट बाट के साथ गये हैं। और यह पूर्ण सत्य है कि प्राप्त भगवान ने कभी भी इनको आडम्बर की संज्ञा नहीं दी है। खंड 1, पृ० 617 पर प्राचार्य लिखते हैं कि 444 राजा श्रेणिक को भगवान पधारने की सूचना मिली तो वे राजसी शोभा में अपने अधिकारियों, अनुचरों और पुत्रों आदि के साथ भगवान की वन्दना करने को निकले और विधिपूर्वक बंदन कर सेवा करने लगे।xx
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________________ [ 75 ] मीमांसा-श्रेणिक का राजसी वैभव से जाने में मार्गगमन जन्य हिंसा तो हुई ही होगी, फिर प्राप्त भगवान ने क्यों नहीं कह दिया कि-"यह दयाधर्म के सिद्धान्त के विरुद्ध है।" यदि भगवान एक बार श्रेणिक जैसे विनयवन्त भक्त को निषेध कर देते तो अन्य राजा कभी वंबन हेतु ऐसे प्राडम्बर सहित नहीं जाते। राजा दर्शाणभद्र ने सर्वश्रेष्ठ शोभा के साथ भगवान की वन्दना के लिये जाने की सोची और इन्द्र ने उनकी सर्वश्रेष्ठ शोभा का गर्व चूर कर दिया, बाद में उसने चारित्र-दीक्षा ली। खंड 1, पृ० 658 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx उसमे ( दर्शाणभद्र ने ) बड़ी धामधूम से प्रभु वन्दन की तैयारी को और चतुरंग सेना व राज परिवार सहित सजधज कर वन्दन को निकला। 888 मीमांसा-धूमधाम और सजधज कर यानी बाह्याडम्बर से जाने की प्रवृत्ति को जैन शास्त्रों में कहीं भी अनुचित नहीं ठहराया है, दयाधर्मियों को यह विचारने की बात है। खंड 1, पृ० 745 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि 444 तदनन्तर कूणिक ने अपने नगर में घोषणा करवाकर नागरिकों:को प्रभु के शुभागमन के सुसंवाद से अवगत कराया और अपने समस्त अन्तःपुर, परिजन, पुरजन, अधिकारी वर्ग एवं चतुरंगिणी सेना के साथ प्रभुदर्शन के लिये प्रस्थान किया।xxx मीमांसा–प्राप्त भगवान ने एवं प्राचीन शास्त्रकारों ने जैनधर्म के प्रचार, प्रसार एवं उन्नतिकारक ऐसी प्रवृत्तियों को कभी भी
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________________ [ 76 ] बाह्याडम्बर नहीं कहा है / बस एवं रेल में बैठकर सैंकड़ों मीलों की दूरी से वंदनार्थ पाने वाले भक्तों को प्राचार्य हस्तीमलजी ने क्या कभी रोका है ? कि-"वाहन आदि से आने में महापाप यानी हिंसा होती है, प्रतः सच्चे मन से या भाव से मेरी वन्दना वहां घर पर बैठे हुए ही करलो, इतने सैंकड़ों मीलों की दूरी से प्राना हिंसा, अधर्म, पाप और बाह्याडम्बर है।" सम्प्रदाय के मोह बन्धन में फंसकर या अपनी मनकल्पित हिंसा का शोर-शराबा करके जैनधर्म के प्रचार प्रसार की शुभ प्रवृत्तियों को भी बाह्याडम्बर या बाह्य क्रियाकान्ड कहकर निन्दा करने वाले दयाधर्मियों ( ! ) को निज की करणी और कथनी जांचनी चाहिए। और अगर इसमें बाह्याडम्बर और हिंसा प्रादि होवे तो ईमानदारी पूर्वक उनको त्यागना चाहिए। खंड 1 ( पुरानी प्रावृत्ति ) पृ० 70 पर प्राचार्य लिखते हैं कि Xxx खेद है कि हम अपनी दृष्टि से किसी भी विषय के अन्तस्तल तक नहीं पहुंचते और पुरानी लकीर के ही फकीर बने हुए मीमांसा-हमारा भी यही कथन है कि पुरानी लकीर के फकीर बने रहने के लिये उन्हें कौन बाध्य करता है ? जिनमन्दिर, स्नात्रपूजा और तीर्थयात्रादि प्रवृत्तियों को हिंसा एवं बाह्याडम्बर कहकर विरोध करने वालों और "प्रारम्भे नत्थि दया" यानी "हिंसा रूप प्रारम्भ में दया नहीं है" ऐसा मागे पीछे का संदर्भ रहित ऐकान्तिक वचन बोलने वालों की किताब छपवाना, कबूतरों को चुग्गा डालना, अपनी तस्वीर छपवाना, भक्तजनों को मीलों की दूरी से दर्शनार्थ
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________________ [ 77 ] बुलवाना, उनके निमित्त चौका-चलाने की प्रेरणा देना, नारियल नादि की प्रभावना बांटना, गोठ-प्रीतिभोज करवाना आदि प्रवृत्तियां दयामय धर्म से प्रेरित है या हिंसामय धर्म से ? इसमें बाह्याडम्बर है कि जैन‘शासनोन्नति है ? पाश्रव-पाप है या धर्म-संवर? इन प्रश्नों का प्राचार्य स्वयं को प्रामाणिक एवं शास्त्रीय उत्तर देना चाहिए। MM - भगवान की आज्ञा के आदर से मोक्ष . पौर अनादर से संसार होता है। .. -कलिकाल सर्वज्ञ पूज्य हेमचन्द्राचार्य म०
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________________ [प्रकरण-२० ] नमो बंभीए लिवीए यद्यपि शास्त्र स्वयं मंगल स्वरूप हैं, फिर भी विघ्नों की शान्ति हेतु पूर्वाचार्यों ने शास्त्र के आदि, मध्य एवं अन्त में लिपि में लिखकर भी द्रव्य और भाव मंगल की प्रशस्त प्रवृत्ति की है। श्री भगवती सूत्र में स्वयं शास्त्रकर्ता महर्षि ने "नमो बंभीए लिवीए"-यानी बाह्मी लिपि को नमस्कार-ऐसा लिखकर द्रव्य-भाव मंगल किया है / किन्तु स्थापना निक्षेप को द्रव्य-भाव मंगल स्वरूप न मानने वाले स्थानकपंथी प्राचार्य हस्तीमलजी शास्त्रकर्ता के इस कथन पर स्वमान्यता विरोध के कारण बहुत रुष्ट हैं / पूज्य शास्त्रकार महर्षि के उक्त कथन को झूठा करने हेतु प्राचार्य ने बहुत सी प्राचीन प्रतियां भी ढूढ डाली हैं, ऐसा उन्होंने खंड 2, पृ० 170-171 पर स्वीकार भी किया है, किन्तु उन्हें कहीं पर कोई विरोध का अंश नहीं मिला / अगर कहीं एक प्रति में भी विरोध का अल्पसा आधार मिल जाता तो क्या था ? प्राचार्य हो-हा का शोर करने में ही अपना श्रेय समझते, किन्तु उनका यह प्रयास भी मसफल ही रहा। अंततो गत्त्वा असत्य का सहारा लेकर खंड 2, पृ० 170 पर प्राचार्य व्यर्थ की कल्पित कल्पनाएँ करते हैं कि xxxहो सकता है शास्त्र लिपिबद्ध हुए होंगे तब पीछे से "बमो बेभीए जिबीए" पास साम्ब में घुसा दिया होमा। *
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________________ [ 76 ] मीमांसा-प्राचार्य का यह कैसा भद्दा तर्क है कि-"पूर्वाचार्यों ने बेईमानी करके "नमो बंभीए लिवीए" इस पाठ को श्री भगवती सूत्र में घुसा दिया होगा," किन्तु प्राचार्य का ऐसा लिखना अल्पज्ञता का ही सूचक है / पूर्वाचार्यों के कथन पर "सिद्धस्य गतिचिंतनीयाः" इस उक्ति को प्राचार्य हस्तीमलजी क्यों मान्य नहीं करते हैं ? श्री भगवती सूत्र कथित आदि एवं अन्तिम मंगल के विषय में प्राचार्य खंड 2, पृ० 170 पर इस प्रकार लिखते हैं कि 44 द्वादशांगी के पांचवें अंग "व्याख्या प्रज्ञप्ति ( अपरनाम श्रीमती भगवती सूत्र ) की आदि में "पंच परमेष्ठी नमस्कार मंत्र" ‘णमो बंभीए लिवीए' और "णमो सुयस्स" पद से मंगल किया है और अन्त में संघ स्तुति के पश्चात् गौतमादि गणधरों, भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति, द्वादशांगी रूप गणिपिटक, श्रुत देवता, प्रवचन देवी, कुम्भधर यक्ष, ब्रह्मशांति, वैराटया देवी, विद्यादेवी और अंतहुडी को नमस्कार किया गया है।xxx मीमांसा–परमपूज्य सूत्रकार महर्षि ने "नमो बंभीए लिवीए" ऐसा लिखकर द्रव्य-भाव मंगल-स्वरूप मानकर लिपि को भी नमस्कार किया है / इस सूत्र की व्याख्या-टीका लिखने वाले धुरंधरविद्वान नवांगी टीकाकार पूज्यपाद अभयदेवसूरिजी महाराज ने भी सूत्रकार महर्षि द्वारा किये गये मंगल के अनुरूप ही टीका रची है, कि"नमो बंभीए लिवीए" ऐसा शास्त्रकार द्वारा मंगल किया गया है और प्राचीन प्रतियों में भी इसी प्रकार का पाठ मिलता है / इन सब बातों से स्पष्ट सिद्ध है कि स्थापना निक्षेप रूप ब्राह्मी लिपि को भी शास्त्रकार महर्षि ने द्रव्य भावं मंगलं स्वरूप माना है। फिर भी इस निःसन्देह सत्य तथ्य पर भी प्राचार्य ने खंड 2, पृ० 170 से 172 तक में लम्बीचौड़ी मनघडंत कल्पना चलायी है, और पूर्वाचार्यों को झूठा करने का दुस्साहस किया है कि
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________________ [ .] xxxहो सकता है शास्त्र लिपिबद्ध हुए होंगे तब पीछे से "नमो बंभीए लिवीए" पाठ शास्त्र में घुसा दिया होगा।8xx मीमांसा-बात तो यह है कि 'हो सकता है' ऐसा लिखना इतिहास के लेखन में सर्वथा अप्रामाणिक एवं निरर्थक ही है, यह बात इतिहासज्ञाभास भूलें इसमें आश्चर्य ही क्या है ? "तस्वीर सिर्फ परिचय के लिये" यानी तस्वीर को वंदनादि करोगे तो मिथ्यात्व का पाप लगेगा ऐसा कहने वालों को श्री भगवती सूत्रकर्ता एवं टीकाकर्ता पूर्व महर्षि का कथन "नमो बंभीए लिवीए" पर विचार करके स्थापना विषयक सत्य के मार्ग को प्रामाणिकतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। टीका चूणि भाष्य उवेख्या, उवेखी नियुक्ति / प्रतिमा कारण सूत्र उवेख्या, दूर रही तुझ मुक्ति / / -न्यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय
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________________ अलौकिक श्री पाश्र्वनाथ भगवान हसामपुरा, उज्जैन [ म.प्र.] [ विक्रम की 10 वीं सदी पूर्व ]
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________________ [प्रकरण-२१ ] चैत्य यानी जिनमंदिर या जिनप्रतिमा चैत्य शब्द का अर्थ जिनमन्दिर अथवा जिनप्रतिमा ऐसा होता है / स्थानकपंथी लोग गुरुवंदन के 'तिक्खुत्ता" नामक पाठ में "देवयं चेइयं पज्जुवासामि" ऐसा बोलते हैं / किन्तु "चेडयं" शब्द का अर्थ वे गलत करते हैं / 'चेइयं' यानी "चैत्य" शब्द का अर्थ स्थानकपंथी सन्तों द्वारा विविध पुस्तकों में विविध किया गया है। ' चे इयं पज्जुवासामि" का शास्त्रीय अर्थ “जिनप्रतिमा की तरह मैं ( गुरु की) उपासना करता हूं," ऐसा होता है / एक इतिहासकार के नाते प्राचार्य हस्तीमलजी को आगमशास्त्रों, पागमेतर प्राचीन जैन साहित्य, वृत्ति, चणि, भाष्य तथा टीकादि और शब्दकोष-व्याकरण के सहारे से स्वमान्यता को दूर रखकर तटस्थता एवं प्रामाणिकता से 'चे इयं' यानी 'चैत्य' शब्द का अर्थ करना अत्यन्त आवश्यक था किन्तु इस विषय में प्राचार्य ने अंधेरे में ही रहना उचित समझा है और ऐसा करके उन्होंने अपने इतिहास को भी अपूर्ण रखा है / फिर भी खंड 2, पृ० 623 से 628 तक प्राचार्य ने "चैत्यवास" के विषय में चैत्य का अर्थ नहीं करके ही लम्बी चौड़ी निरर्थक चर्चा चलायी है। किन्तु चैत्य' का अर्थ "जिनमंदिर" होता है इस तथ्य को पुष्टि उनसे मानों या न मानों हो ही गयी है। जैनागमों में जहाँ भी चैत्य शब्द प्राता है, वहाँ स्थानकपंथी संत आदि चैत्य शब्द का जिन प्रतिमा और जिनमंदिर ऐसा प्रकरण
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________________ [ 2 ] सुलभ अर्थ को छोड़कर, एकान्तमार्ग का आश्रय करके चैत्य का अर्थ कहीं ज्ञान, कहीं साधु, कहीं कामदेव की प्रतिमा आदि कर देते हैं, जो अप्रमाणिक है / ज्ञान के लिये शास्त्र में कहीं भी चैत्य शब्द नहीं लिखा है, कि मतिचैत्य, श्रुतचैत्य इत्यादि / एवं शब्दकोष और व्याकरण में साधु के लिये निर्ग्रन्थ, श्रमण, मुनि आदि शब्द प्रसिद्ध है न कि चैत्य / पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज ने कोष में 'चैत्य' शब्द का अर्थ जिनप्रतिमा एवं जिनमंदिर किया है, यथा "चैत्यं जिन बिम्बं तदौकः / " "अरिहंत चेइयाणं" शब्द का अर्थ श्री आवश्यक सूत्र के पाँचवें कायोत्सर्ग नामक अध्ययन में 'जिन प्रतिमा' ऐसा किया है, यथा "अर्हन्तः तीर्थंकराः, तेषां चैत्यानि प्रतिमालक्षणानि"। नवांगी टीकाकार पूज्य श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने 'चैत्य' शब्द का अर्थ "इष्ट देव की प्रतिमा" ऐसा किया है। यथा "चैत्यम् इष्टदेव प्रतिमा" [ भगवती सूत्र, शतक 2, उद्देश 1] प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में तथा सूर्य प्रज्ञप्ति में चैत्य का अर्थ जिनप्रतिमा तथा उपचार से जिनमंदिर ऐसा किया है। _आचार्य हस्तीमलजी ने चैत्य शब्द का शास्त्र कथित अर्थ ढूढा होता तो स्वयं को और अन्य को भ्रम में रखने का पर्दा फाश हो सकता था।
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________________ [ 83 ] स्थानकपंथो संत एवं पंडित चैत्य शब्द का अर्थ करने में कैसी दगाबाजी करते हैं यह देखिये / श्री उववाई सूत्र में अंबड श्रावक का अधिकार प्राता है, जो पहिले सन्यासी था। जब श्री महवीर स्वामी के समक्ष बारह व्रत धारण किये तब उसने बारह व्रत रूप महल की नींव के समान 'सम्यग्दर्शन व्रत' सर्वप्रथम स्वीकार किया था। वह श्री महावीर भगवान के सामने यह प्रतिज्ञा करता है कि 444 णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा वंदिता वा नमसंति वा। [ श्री उववाई सूत्र ] xxx अर्थात्-वीतराग श्री अरिहंत तथा अरिहंत का (चैत्य यानी ) जिन प्रतिमा वांदवा कल्पे अन्य नहीं। उक्त सूत्र का स्थानकपंथी संत अमोलक ऋषि अप्रमाणिक एवं व्याकरण और शब्द कोष निरपेक्ष अर्थ करते हैं कि 80 फक्त अरिहंत और अरिहंत के [चैत्य यानी] साधु को ही वन्दन करना, नमस्कार करना यावत् सेवाभक्ति करना कल्पता है। [उववाई सूत्र, हिन्दी अनुवाद, पृ० 163] xxx मीमांसा-यहां चैत्य का कल्पित अर्थ साधु किया है, जो स्वमतिकल्पित एवं शास्त्र निरपेक्ष है। क्योंकि श्री भगवती सूत्र में असुरकुमार देवता सौधर्म देवलोक में जाते हैं, तब एक अरिहंत दूसरा चैत्य अर्थात् जिनप्रतिमा और तीसरा अनगार यानी साधु ( मुनि ) इन तोनों का शरण करते हैं ऐसा कहा है, यत. xxx नन्नस्थ अरिहंते वा अरिहंत चेइयाणि वा भावी अप्पणो अणगारस्स वाणिस्साव उड्ढे उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।xxx
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________________ [ 84 ] इस पाठ में (1) अरिहंत (2) चैत्य और (3) अनगार, यह तीन का शरण कहा है / यदि चैत्य शब्द का अर्थ साधु होता तो 'अनगार' शब्द पृथक् क्यों कहा ? अतः चैत्य का अर्थ साधु ( मुनि ) करने वाले स्थानकपंथी झूठे साबित होते हैं / चैत्य शब्द का दूसरा कल्पित अर्थ अमोलक ऋषि 'ज्ञान' करते हैं, यह भी देखिये / श्री भगवती सूत्र में गणधर श्री गौतमस्वामी तीर्थंकर महावीर स्वामी को चारणमुनि के उत्पात [विद्याबल से छलांग लगाने की शक्ति) के विषय में पूछते हैं कि - 444 "विज्जाचारणस्स भंते ! उड्ढे केवइए गइ विसए पण्णत्ते ? गोयमा ! से णं इत्तो एगेणं उप्पाएणं णंदणवरणे समोसरणं करई, करिता ताहि चेइयाइं वंदइ, वंदइत्ता बितिएणं उप्पाएणं पंडगवणे समोसरणं करई, करित्ता तहिं चेइयाइं वंदई, वंदइत्ता तओ पडिणियत्तई, पडिणियइत्ता, इहमागच्छई, इहमागच्छित्ता इह चेइयाई वंदई / विज्जाचारणस्स गं गोयमा ! उड्ढे एवइए गई विसए पण्णत्त / " [ भगवती सूत्र-शतक 20, उद्देश 9 ]688 उक्त सूत्र का शास्त्रोक्त अर्थ - "हे भगवन् ! विद्याचारण लब्धिवाले मुनियों का ऊर्ध्व में गमन का कितना विषय कहा है ? [ भगवान श्री महावीर स्वामी उत्तर देते हैं कि-] हे गौतम ! विद्याचारण मुनि यहां से एक उत्पात में नंदनवन में विश्राम लेवे, वहां के चैत्य यानी जिनबिंब [प्रतिमा] को वान्दे, वहाँ के जिनचैत्य ( जिनबिम्ब ) को वन्दन करके (पर्युपासना करके ) पंडकवन में जाए, वहां चैत्य यानी जिनबिंब को वन्दन करके (पर्युपासना करके ) फिर स्वस्थान लौटे और स्वस्थान के ( मध्यलोक के अशाश्वत ) जिनबिम्ब
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________________ [ 85 ] [प्रतिमा को वान्दे / हे गौतम ! विद्याचारण के विषय में ऊर्ध्वगमन का इतना विषय है।" उक्त सूत्र का स्थानकपंथी संत अमोलक ऋषि पागमनिरपेक्ष एवं स्वमति कल्पित अर्थ इस प्रकार करते हैं 80xगौतम का प्रश्न-हे भगवन् ! विद्याचारण का ऊर्ध्व गमन का कितना विषय कहा है ? अहो गौतम ! विद्याचारण मुनि एक उत्पात में यहाँ से उड़कर मेरुपर्वत के नन्दन वन में विश्राम लेवे / वहां ( चैत्य यानी ) "ज्ञानी के ज्ञान" का गुणानुवाद करे (?) वहां से दूसरे उत्पात में पंडकवन में समवसरण करे (विश्राम लेवे) वहां पर भी ज्ञानी के ज्ञान का गुणानुवाद करे (?) और वहाँ से भी पीच्छा अपने स्थान पर आवे / अहो गौतम ! विद्याचारण मुनि का ऊर्ध्वगमन का इतना विषय है। XXX मीमांसा-स्थानकपंथी संत अमोलक ऋषि ने उक्त प्राकृत सूत्र का "इह चेइयाइं वंदई" [यानी यहाँ आकर अशाश्वत जिनमन्दिर को वान्दे 1 इतने शब्दों का हिन्दी अनुवाद करना ही छोड़ दिया है जिससे उनकी बेईमानी जाहिर होती है / ___ अमोलक मुनिजी ज्ञानियों के प्ररूपी ज्ञान के वन्दन हेतु चारणमुनियों को पंडकवन और नन्दनवन में भेज रहे हैं, मानों पंडकवन और नंदनवन में ज्ञानी के ज्ञान के ढेर पड़े होंगे / पंडकवन और नंदनवन में शाश्वत जिन मन्दिर है, इस तथ्य की सिद्धि न होने पाए, इस कारण अमोलक ऋषिजी असत्य का सहारा लेकर चैत्य का अर्थ ज्ञान करते हैं जो सर्वथा अप्रमाणिक है / स्थानकपंथी अमोलक ऋषि की साहसिकता देखिये कि ज्ञानी के प्ररूपी ज्ञान के वन्दन हेतु पंडकवन और नन्दनवन में
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________________ [ 86 ] भेजकर महाज्ञानी चारणमुनियों को भी वे उल्लू बना रहे हैं। क्या चारणमुनि इतने मूर्ख हैं कि अरूपी ज्ञान का यहां बैठे बैठे वंदन न करके लब्धि का प्रयोग करके वहाँ जाए ? और नंदनवन एवं पंडकवन में जाने हेतु लब्धि का प्रयोग करने पर भी क्या वहाँ ज्ञानी के ज्ञान के भंडार भरे पड़े हैं कि गुणानुवाद करने हेतु इतने योजनों की लम्बी यात्रा करें। ___पंडकवन और नंदीश्वर द्वीप स्थित शाश्वत जिन मन्दिरों में चारण मुनि जाते हैं और वहां चैत्यवंदन करते हैं इस शास्त्रीय तथ्य को सत्य होता देखकर नितांत असत्य का सहारा लेकर स्थानकपंथी महा विद्वान रतनलालजी डोशी (शैलावा वाले ) "जैनागम विरुद्ध मूर्तिपूजा भाग-१" पृ० 166 पर महा साहस पूर्वक लिखते हैं कि 888 हमारे विचार से [ चारणमुनि का ] वहां जाने का मुख्य कारण नंदनवन को "सर" करने का ही हो सकता है, क्योंकि यह भी एक छद्मस्थता की पलटती हुई चञ्चल विचार धारा का परिणाम है।xxx मीमांसा-स्थानकपंथी महापंडित रतनलालजी की छद्मस्थता की पलटती हुई चंचल विचारधारा का परिणाम देखिये कि वे पंडितजी छ? और सातवें गुणस्थानक में स्थित, महासंयमी-ज्ञानी चारण मुनियों को पंडकवन और नंदीश्वर द्वीप में सैर-सफर के लिये भेजने की मूर्खता कर रहे हैं और चारणमुनियों को नंदीश्वर द्वीपादि में जाने की प्रवृत्ति को छद्मस्थता की चंचलधारा का परिणाम कहने पर तो, तीर्थंकरों और केवलज्ञानियों को छोड़कर अन्य सब ज्ञानियों की प्रवृत्तियाँ गलत कहने की अज्ञानता भी वे पंडितजी कर रहे हैं / वास्तव में चाहे अमोलक ऋषिजी हों, चाहे प्राचार्य हस्तीमलजी हों या पंडित रतनलालजी डोशी हों, सभी स्थानकपंथी ही
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________________ [ 87 ] दृष्टिराग के पूर्वग्रह से ग्रसित एवं मिथ्यात्व के रंग से ऐसे रंगे हुए हैं कि वे सिद्धायतन, जिनचैत्य, जिनमंदिर आदि की बात माने पर सत्य का पक्ष छोड़कर जल्दी से झूठ का ही सहारा लेने पर उतारू हो जाते हैं / __ श्री महावीर स्वामी के शासन में वीर संवत् 882 से ऐसा समय पाया कि कितनेक जैन मुनि शिथिलाचारी बन गये, मंदिर संबंधित द्रव्य यानी "देवद्रव्य" का भक्षण करने लगे, उनकी विहार आदि की चर्या शिथिल हो गई ! वे जिनमन्दिर में ही रहने लगे इस कारण वे "चैत्यवासी" कहलाये। प्राचार्य हस्तीमलजी ने जैनधर्म का मौलिक इतिहास, खंड 2, पृ० 623 से 628 तक चैत्यवास के विषय में लम्बी-चौड़ी वार्ता की है, किन्तु 'चैत्य' का अर्थ उन्होंने अस्पष्ट और संदिग्ध ही रखा है / पृ० 624 पर वे लिखते हैं कि 444 इसका ( चैत्यवास का ) प्रारम्भ वीर संवत् 882 में हो गया। यद्यपि उस समय वन के बदले मुनि लोग वसति के चैत्य और उपाश्रय में उतरते थे, किन्तु वहां वे स्थानपति होकर नहीं रहते थे / चैत्यवसति में उतरने पर भी वे सतत विहारी होने के कारण विहरूक कहलाते थे। 88 मीमांसा-इतिहासकार प्राचार्य ने यहाँ कैसा उटपटांग और अस्पष्ट लिखा है ? एवं "चैत्य" तथा "चैत्यवसति" शब्द का अर्थ करना तो प्राचार्य ने टाल ही दिया है / जिन मंदिर के शत्रु चैत्य शब्द का अर्थ 'जिन मंदिर' क्यों करेंगे? परम सत्यप्रिय, 1444 ग्रन्थों के रचयिता पूज्यपाद हरिभद्रसूरिजी महाराज के कथन का उद्धरण करके खंड 2 पृ० 626 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि
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________________ [ 88 ] 888 ये साधु चैत्यों और मठों में रहते हैं / पूजा करने का आरम्भ एवं देवद्रव्य का उपभोग करते हैं। Xxx मीमांसा-मठ शब्द से प्राचार्य का क्या तात्पर्य है ? और चैत्य शब्द का अर्थ यहां भी उन्होंने नहीं किया है। किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि उस समय भी जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर और जिनपूजन प्रथा थी। और देवद्रव्य भी था इस सत्य तथ्य की ओर अांखें मूंद लेना अनुचित ही होगा। और यह भूलना नहीं चाहिए कि उस समय भी पूज्य हरिभद्रसूरिजी, पूज्य अभयदेवसूरिजी आदि सूविहित मुनि विद्यमान थे, जिन्होंने चैत्यवास सम्बन्धित शिथिलता का विरोध करते हुए भी जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा आदि शास्त्र कथित प्रवृत्तियों की प्ररूपणा एवं पुष्टि की थी और प्रेरणा भी दी थी। खंड 2, पृ० 628 पर प्राचार्य लिखते हैं कि 888 उपलब्ध साहित्य के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि विक्रम संवत् 1285 से "चैत्यवास" सर्वथा बन्द हो गया और मुनियों ने उपाश्रय में उतरना प्रारम्भ कर दिया। XXX मीमांसा-हमारा तो इतना ही कहना है कि जिन सुविहित, प्रागमज्ञ मुनियों ने चैत्यवास सम्बन्धी शिथिलता को सामने टक्कर लेकर चैत्यवास को समाप्त किया था, उन्होंने ही जिनमन्दिर, देवद्रव्य, रक्षण आदि के विषय में प्रेरणा की थी। यानी जो सिरदर्द था उसे औषधि से मिटाया था, किन्तु सिर को काटने की मूर्खता इन सुविहित मुनियों ने नहीं की थी, इस सत्य तथ्य से प्राचार्य हस्तीमलजो अपरिचित नहीं होंगे। साधवः शास्त्र चक्षुषः साधुनों ज्ञान आँख से देखते हैं /
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________________ [प्रकरण-२२ ] एक हास्यास्पद कल्पना अाधुनिक युग के उच्छृखल चिन्तक जो प्राचीन जैनाचार्यों कथित चमत्कारपूर्ण घटनाओं में विश्वास नहीं करते हैं, उनके तुष्टिकरण हेतु प्राचार्य हस्तीमलजी ने पूर्वाचार्यों पर अविश्वास करने वाली साहसिकता का अवलम्बन कर खंड 2 प्राक्कथन पृ० 38 पर लिखा है कि xxx इसी प्रकार बहुत सी चमत्कारिक रूप से चित्रित घटनाओं को भी इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किया गया है। मध्ययुगीन अनेक विद्वान ग्रंथकारों ने सिखसेन प्रभृति कतिपय प्रभावक आचार्यों के जीवन चरित्र का आलेखन करते हुए उनके जीवन की कुछ ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिन पर आज के युग के अधिकांश चिन्तक किसी भी दशा में विश्वास करने को उद्यत नहीं होते। 888 मीमांसा-पूज्यपाद सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी के "कल्याणमन्दिर" नामक स्तोत्र के प्रभाव से शिवलिंग फटा था और उसमें से श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा निकली थी। जिनप्रतिमा की मान्यता का विरोध करने के कारण ही माचार्य हस्तीमलजी ने पूज्यपाद सिद्धसेनसूरिजी आदि के विषय में ऐसा लिखा है कि चमत्कारिक घटना इस ग्रन्थ में नहीं लिखी गयी है / "चमत्कारिक घटनामों को इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किया है," ऐसा प्राचार्य हस्तीमलजी का कथन सर्वथा झूठा
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________________ [ 60 ] ही है / हाँ ! "जिनप्रतिमा” विषयक चमत्कार से स्वमतहानि के कारण ही प्राचार्य ने प्रस्तुत में असत्य एवं अप्रमाणिकता का सहारा लिया है / अन्यथा स्वयं प्राचार्य ने ही श्री पार्श्वनाथ भगवान के चरित्र में जीर्णकुमारी, चन्द्रगुप्त-चाणक्य का कथानक, श्रीमानतुगसूरिजी का बेड़ी टूटना, सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की आश्चर्य एवं चमत्कारपूर्ण घटना का अपने इतिहास में समावेश किया है / इतना ही नहीं सगर चक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों की मौत पर पौराणिक किंवदन्ती स्वरूप गपोड़े को भी यही प्राचार्य महाशय ने प्रस्तुत किया है / अपि च नंदवंश की उत्पत्ति के अवसर पर प्राचार्य ने ही प्रतिज्ञा भंग करके चमत्कारिक घटना खंड 2, पृ० 268 पर प्रस्तुत की है, यथा Xxx उदायी का राजछत्र भी स्वतः ही नन्द के मस्तक पर तन गया और नन्द के दोनों ओर मन्त्राधिष्ठित वे दोनों चामर स्वतः ही अदृश्य शक्ति से प्रेरित हो व्यजित होने लगे।xxx एवं श्री मानतुगसूरिजी के विषय में खंड-२, पृ० 646 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx कमरों के द्वार स्वतः ही खुल गये, आचार्य मानतुग के सभी बंधन कट गये। 80x मीमांसा–प्राचार्य हस्तीमलजी द्वारा प्रस्तुत उपरोक्त घटनाएं क्या चमत्कारिक नहीं हैं ? क्या इन पर प्राचार्य के माने हुए अाधुनिक चिंतक विश्वास करेंगे? क्या उपरोक्त बातों से उनकी चमत्कारिक घटना प्रस्तुत नहीं करने की प्रतिज्ञा का भंग नहीं होता है ? जब चमत्कारपूर्ण घटनाएँ प्राचार्य ने अपने इतिहास में लिखी ही हैं, तो पूज्य सिद्धसेनसूरिजी सम्बन्धित शिवलिंग फटने की घटना, श्री गौतमस्वामी का यात्रा हेतु अष्टापद गिरि पर जाना, श्री वनस्वामी का
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________________ [ 1] जिनपूजा निमित्त आकाशगामिनी विद्या द्वारा पुष्प लाना आदि बातों से ही उनको क्यों नाराजगी है ? जिनप्रतिमा पूजा, जिनमन्दिर और जैनतीर्थों ने प्राचार्य का क्या बिगाड़ा है, कि उनके साथ सम्बन्धित घटनामों को वे चमत्कारिक कहकर नफरत करते हैं ? ___ एक प्रश्न यह भी है कि प्राचार्य हस्तीमलजी चिंतक किसको कहते हैं ? अाधुनिक जो चिंतक नास्तिक हैं, अश्रद्धावान हैं और मिथ्यात्ववासित हैं, उनको तो कितनी भी सत्य होने पर धर्म संबंधी कोई भी बात सुहायेगी ही नहीं / ऐसे बहुत से आधुनिक चिंतक इतने नास्तिक हैं कि वे धर्म को "नशा" की संज्ञा देते हैं। ऐसे चितकों की तुष्टि के लिये असत्य का सहारा लेकर, पूर्वाचार्यों के कथनों को धृष्टता पूर्वक अन्यथा कहकर प्राचार्य हस्तीमलजी सभी जैन शास्त्रों को जी चाहे वैसे पलट डाले, फिर भी प्राचीन जैन शास्त्रों की बात पर उनके माने हुए आधुनिक चिंतकों को विश्वास होगा या नहीं यह प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा ही रहेगा / फिर तो "लेने गई पूत और खो पायी खसम" वाली कहावत प्राचार्य द्वारा चरितार्थ हो जायगी। जैन धर्म में भी ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो आगम और प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकादि कथित प्रामाणिक सत्य होने पर और ऐतिहासिक प्राचीन शिलालेखों एवं ध्वंसावशेषों की सामग्री मौजूद होते हुए भी जिनमंदिर तथा जिन प्रतिमा आदि के विषय में श्रद्धा नहीं करते हैं, फिर क्या उनके लिए प्राचीन आगम शास्त्रों को बदल दिया जाय ? अथवा प्राचीन जैन प्रतिमा और मंदिर आदि को इन्द्रजाल ही समझा जाय ? जिसके दिल में प्राचीन जैनाचार्यों पर श्रद्धा, भक्ति और बहुमान है, वह कभी भी अविश्वास पूर्ण वचन नहीं बोलेगा कि "पूर्वाचार्यों ने ऐसी चमत्कारिक घटना का उल्लेख कर दिया है, जिस
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________________ [ 2 ] को मानने के लिये अधिकांश अाधुनिक चिंतक किसी भी दशा में विश्वास नहीं कर सकते / " किन्तु प्राचार्य हस्तीमलजी का उक्त प्रतिपादन नितांत गलत और स्वमति कल्पित है क्योंकि अखबारों में प्रसिद्ध होने वाली बहुत सी चमत्कारिक घटनाओं को आज के चिंतक सत्य तथ्य स्वीकार करते हैं। हमारा तो यही मानना है कि आज के युग के अधिकांश चितकों" में आचार्य भी एक हैं, जिन्होंने पूर्वाचार्यों के प्रामाणिक कथनों पर अप्रामाणिक आक्षेप करके बगावत की है। प्राचार्य के पास ऐसा कौनसा यंत्र है जिससे वे जान सकें कि चमत्कारपूर्ण घटना पर आज के युग के चितक विश्वास नहीं करते हैं ? प्राचार्य निज के विषय में तो ऐसा कह सकते हैं, किन्तु अधिकांश चिंतकों के विषय में ऐसी कल्पना उनके अधिकार के बाहर है / हमारा तो यह कहना है कि पूर्वाचार्यों के विषय में प्राचार्य ऐसी संकुचित मान्यता क्यों रखते हैं कि पूर्वाचार्यों ने प्रागमेतर जैन साहित्य गलत रचा है। आज के विज्ञान के युग में जैनागमों की बहुत सी बातें जो पहिले विदेशी शिक्षितों में अविश्वसनीय एवं काल्पनिक मानी जाती थीं, आज वे प्रामाणिक सिद्ध हुई हैं / जैसे कि पूर्व भव का होना, वनस्पति एकेन्द्रिय जीव है, पानी में असंख्य जीव का होना, आवाज का पौद्गलिक होना, एक भाषा में बोला गया शब्द अपनी अपनी भाषा में सुनना आदि अनेक जैनागम कथित बातें विज्ञान द्वारा सिद्ध हो चुकी हैं। चमत्कारपूर्ण घटनाएं प्राधुनिक चिंतकों को अविश्वसनीय लगती हैं इसके कारण उनको अपने इतिहास में लिखना प्राचार्य ने अनुचित समझा है। फिर तो जैन धर्म का त्याग-तप-संयमादि की बातें अधिकांश प्राधुनिक चिंतकों को प्ररुचिपूर्ण और अविश्वसनीय लगती हैं, तो क्या प्राचार्य जैन धर्म को अविश्वसनीय मानकर त्याग देंगे?
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________________ [ 63 ] अस्तु / पूज्य सिद्धसेनसूरिजी आदि की घटना चमत्कार पूर्ण होने के कारण अाधुनिक चिंतकों को अविश्वसनीय लगे अतः प्राचार्य ने उनको नहीं लिखना उचित समझा है, तो क्या निम्नलिखित आगम कथित बातें आधुनिक चिंतकों को अविश्वसनीय और प्रश्रद्धनीय नहीं लगेंगी ? फिर क्या प्राचार्य प्रागम शास्त्रों को भी आधुनिक चिंतकों की संतुष्टि के लिये पलटेंगे ? यथा (1) तीर्थंकरों का खून सफेद होना। (2) तीर्थंकर परमात्मा के जन्मादि कल्याणकों के अवसर पर देवेन्द्रों का आगमन आदि / (3) इन्द्रभूति आदि 4400 ब्राह्मणों की एक ही दिन में भगवान श्री महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेना और इन्द्र द्वारा साधु वेष देना। (4) श्री ऋषभदेव भगवान का 400 दिन का निर्जल उपवास / (5) वैश्या के घर रहे हुए नंदोषेण द्वारा हर दिन 10 को प्रतिबोधित करके दीक्षा दिलवाना। (6) चेटक और कूणिक के बीच रथमूसल युद्ध में एक ही दिन में 66 लाख सैनिकों का संहार होना / (7) सद्योजात बालक महावीर के चरण-स्पर्श मात्र से मेरु पर्वत का कंपायमान होना / (8) मध्यलोक में असंख्य द्वीप और समुद्र का होना। (9) महाविदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर स्वामी प्रादि बीस तीर्थंकरों का होना।
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________________ [ 94 ] (10) सूर्य, चन्द्र, मंगल आदि ज्योतिष देवों के विमानों का अस्तित्व, जहाँ रोकेट आदि द्वारा मनुष्य अब भी नहीं पहुंच पाया है। (11) जनु आदि 60 हजार सगरपुत्रों की तीर्थरक्षा में एक साथ मृत्यु / (12) एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के सम्मूच्छिम ( मातापिता के संयोग के बिना जन्मे हुए ) जीव / (13) इस अवसर्पिणी काल के दश आश्चर्य / (14) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अस्तित्व / (15) स्वर्ग और नरक आदि का होना / (16) अोस के जीवों की रक्षा हेतु कालवेला में सुविहित मुनियों द्वारा कम्बल का उपयोग करना। (17) रजस्वला स्त्री की अपवित्रता और उसके लिये स्वाध्याय निषेध / (18) संगम का कालचक्र आदि देवकृत भयंकर उपसर्ग होने पर भी भगवान महावीर की मृत्यु का न होना। (16) विद्युत्-बिजली आदि अग्निकाय एकेन्द्रिय जीव है। (20) वायु एकेन्द्रिय जीव है। (21) आलू, मूली, गाजर आदि जमीकन्दों में अनन्त जीव का होना और दयाधर्मी को वे नहीं खाना चाहिए ऐसी श्रद्धा और विश्वास संपादन करना।
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________________ [ 65 ] (22) बासी और द्विदल भक्षण में त्रसकाय जीवों की महा हिंसा का होना। (23) थूक आदि में सम्मच्छिम जीवों की उत्पत्ति होना। (24) रात्रि भोजन नरक का द्वार है / (25) जीव, संसार और कर्म अनादि हैं। (26) नमक, पत्थर, सोना, चांदी आदि पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय नरत हैं। ऐसी तो सैंकडों बातें हैं, जिनकी प्रामाणिकता और सत्यता को सिद्ध करने के लिये हमारे पास आगमों और प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य को छोड़कर आधार ही क्या है ? प्राप्तपुरुष तीर्थंकरों एवं पूर्वाचार्यों के वचनों पर श्रद्धा और विश्वास के प्रभाव में प्राप्तपुरुष कथित इन बातों पर प्रश्रद्धा और अविश्वास बना रहे तो इसमें क्या गुरुगम और समुचित अभ्यास के अभाव में ज्योतिष आदि शास्त्र अज्ञानी को व्यर्थ या झूठ लगे, ऐसे ही गुरुगम और समुचित स्याद्वाद परिणतमति के अभाव में आचार्य हस्तीमलजी को पंचमहाव्रती पूर्वाचार्यों कथित बातें चमत्कारिक एवं कल्पित लगे तो कोई प्राश्चर्य की बात नहीं है। आज के युग के कथित कतिपय नास्तिक चिंतकों की संतुष्टि हेतु प्राचार्य ने जैन साहित्य को बदलने और छिपाने की जो सुधारवादी प्रवृत्ति की है, इससे जैन समाज को सावधान एवं सतर्क रहने की प्रत्यंत स्वयं सुधारवादी वृत्तिवाले प्राचार्य दूसरों को प्रात्मवंचक हितशिक्षा खंड-२, पृष्ठ 26 पर देते हैं कि
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________________ [ 96 ] xxxयदि प्रत्येक जिनशासनानुयायी में इस प्रकार की जागरूकता उत्पन्न हो जाए तो आज जैनागमों के सम्बन्ध में तथाकथित सुधारवादियों द्वारा जो विषैला प्रचार किया जा रहा है, उसके कुप्रभाव और कुप्रवाह को रोका जा सकता है।xxx मीमांसा-हमारा भी यही कहना है कि प्राचार्य हस्तीमलजी के प्राचीन जैन साहित्य विषयक सुधारवादी विषले दृष्टिकोण से जैन समाज को जागरूक रहना चाहिए। OTHA NA turns. | जैन शास्त्र में सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को भ्रष्ट कहा है। शास्त्र में स्थान पक्ष /
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________________ [प्रकरण-२३ ] लग्धिनिधान श्री गौतमस्वामी प्रातःस्मरणीय, विनयवन्त, लब्धिनिधान प्रथम गणधर श्री गौतम स्वामी महाराज 14 विद्या के पारंगत थे / भगवान श्री महावीर देव के तीन ही पद [उपने ईवा, विगमेईवा, धूवेईवा ] पाकर जिनके हृदय में द्वादशांगी का प्रकाश हुआ था। वे इतने विनयवन्त थे कि दीक्षा दिन से ही अहं का त्याग कर भगवान के सामने अंजलिबद्ध बैठकर भगवान की वाणी को निधान से भी अधिक मूल्यवाली समझते हुए सुनते थे। उनकी सरलता इतनी थी कि भूल मालूम होने पर चौदहपूर्वधारी उन्होंने प्रानन्द श्रावक से क्षमायाचना की थी। ऐसे पवित्र चारित्रघर श्री गौतमस्वामी श्री महावीर स्वामी के वचन पर अपनी चरम भविता के निर्णय तथा यात्रा हेतु स्वलब्धि बल से सूर्य की किरणों का सहारा लेकर श्री अष्टापदजी तीर्थ पर गये थे, जहां श्री ऋषभदेव भगवान की निर्वाण भूमि पर प्रथम चक्रवर्ती भरत राजा ने मंदिर बनवाया था। तीर्थयात्रा काल में ही उन्होंने श्री वज्रस्वामी जो पूर्वभव में तिर्यग् भग देव था, उनको प्रतिबोध किया था और अष्टापद तीर्थ की यात्रा हेतु लब्धि प्राप्ति के लिये तप करते हुए 1500 तापससन्यासियों को चारित्र-दीक्षा देकर, अक्षीण महानस लब्धि के बल से अंगूठे में से अमृत तुल्य खीर बहाकर पारणा करवाया था, प्रतःमाज भी लोग श्री गौतमस्वामी के विषय में कहते हैं कि अंगूठे अमृत बसे / वे
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________________ [ 68 ] 1500 तापस गुरु श्री गौतम स्वामी की कृपा से केवलज्ञानी बने थे। श्री गौतम स्वामी ने जिनको भी दीक्षा दी है, उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया है, अतः अाज भी "गौतम सरिखा गुरु नहीं" ऐसा जैन जन जन के दिल में गूजता है। खंड 2, पृ० 32 से 36 तक में पूज्य श्री गौतमस्वामी के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी ने बहुत कुछ लिखा है, किन्तु श्री गौतमस्वामी का स्वलब्धि बल से श्री अष्टापद गिरि पर तीर्थयात्रा हेतु जाना, अष्टापदगिरि के सोपान पर लब्धिप्राप्ति हेतु तप करते हुए 1500 तापसों को खीर का पारणा करवाना आदि तथ्यों को छिपा के उन्होंने प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी के चरित्र के साथ. सरासर अन्याय किया है / पृ० 36 पर प्राचार्य लिखते हैं कि 800 वे सर्वाक्षर सन्निपात जैसी विविध लब्धियों के धारक थे। 808 पृ० 36 पर लिखते हैं कि 444 प्रतिदिन लाखों जन आज भी प्रभात की मंगल वेला में भक्ति पूर्वक भाव विभोर हो बोलते हैं, अंगूठे अमृत बसे, लब्धि तणां भंडार / श्री गुरु गौतम समरिये, वांछित फल दातार // xx मीमांसा-श्री गौतमस्वामी ने अंगूठे में से अमृत कहाँ और क्यों बहाया ? लब्धि का उपयोग कहां और क्यों किया? वे वांछित फल के दातार किस कारण कहे जाते हैं ? इन तथ्यों को प्राचार्य ने अपने इतिहास में क्यों छिपाया है ? क्या एक इतिहासकार को ऐसी वंचना शोभनीय है ?
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________________ [ 6] तथ्य यह है कि अक्षीण महानस लब्धि से श्री अष्टापदगिरि के सोपान पर तप करते 1500 तापसों को खीर के पात्र में अंगूठा रखकर चाहे जितनी खीर बहाकर श्री गौतम स्वामी ने पारणा करवाया था, इसलिये उनके विषय में कहा जाता है कि "अंगूठे प्रमृत बसे / " तथा स्व विद्या-लब्धि बल से सूर्य की किरणों को पकड़कर वे प्रष्टापदजी तीर्थ पर यात्रा करने गये थे, प्रतः उन्हें "लब्धि तणां भण्डार" कहते हैं और उन्होंने जिनको भी दीक्षा दी थी, उनको केवलज्ञान रूप अक्षयलक्ष्मी की प्राप्ति हुई है. अतः उनको वांछित फल दातार कहते हैं। इन्हीं कारणों से बाज भी श्री गौतम स्वामी का नाम जैन जन-जन के हृदयों में अंकित है। प्राचार्य हस्तीमलजी ने श्री गौतमस्वामी को विविध लब्धियों का धारक बताया है, किन्तु श्री गौतम स्वामी ने लब्धियों का उपयोग कब और कहाँ किया था ? प्रतिदिन लाखों जन उनको लब्धि का निधान कहकर क्यों याद करते हैं ? वे अंगूठे से अमृत बहाने वाले क्यों कहे जाते हैं ? प्रादि अनेक प्रश्नों को मंदिर और मूर्ति विरोधी स्वमान्यता के कारण प्राचार्य ने जो छिपाने की कुचेष्टा की है. वह विचारणीय है / प्राचार्य पद धारक होते हुए एक व्यक्ति जिनप्रतिमा, जिनमंदिर एवं तीर्थों आदि के विषय में तथ्यों को छिपाये या पक्षपातपूर्ण वर्तन करे, यह क्या न्यायपूर्ण है ? ऐसी दशा में 'संपादकीय नोंध" पृ० 30 ( पुरानी प्रावृत्ति ) पर मुख्य संपादक श्री गजसिंहजी राठौड़ (न्यायतीर्थ) का लिखना सरासर झूठ और असंगत एवं प्रात्मवंचक है कि 444 इतिहास-लेखन जैसे कार्य के लिये गहन अध्ययन, क्षीर नीर विवेकमयी तीव्र बुद्धि, उत्कट कोटि को स्मरण शक्ति, उत्कट साहस,
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________________ [ 100 ] अथाह ज्ञान, अडिग अध्यवसाय, "पूर्ण निष्पक्षता" ( ? ) घोर परिश्रम आदि अत्युच्यकोटि के गुणों को आवश्यकता रहती है। वे सभी गुण आचार्यश्री ( हस्तीमलजी ) में विद्यमान हैं।xxx मीमांसा-श्री गजसिंहजी को प्रशंसा एवं खुशामद नितांत प्रसत्य ठहरती है, क्योंकि आचार्य में निष्पक्षता प्रादि का सर्वथा अभाव ही पाया जाता है, जो बात हम पूर्व में दिखा चुके हैं। इतिहास विषयक तथ्य सत्य को छिपाने के बावजूद भी प्राचार्य पदारूढ़ और सत्यव्रत के धारक कहे जाने वाले प्राचार्य का छलकपट देखो कि वे खंड 2, पृ० 36 पर 'प्राक कथन' में लिखते हैं कि xxx हमारी चेष्टा पक्षपात विहीन एवं केवल यह रही है कि वस्तु स्थिति प्रकाश में लायी जाय / 888 मीमांसा-"वस्तुस्थिति प्रकाश में लायी जाय"-ऐसा प्रतिज्ञापूर्वक कहने वाले प्राचार्य को उनकी कथनी और करनी बीच कितना बड़ा अन्तर है यह विचारना चाहिए / इतिहासकार को तटस्थ और प्रामाणिक होना चाहिए जिसका स्थानकपंथी प्राचार्य हस्तीमलजी में नितांत प्रभाव ही पाया गया है, जो अत्यन्त खेद की बात है। सच्चा इतिहासकार तथ्य को कभी भी नहीं छिपाता है, चाहे वह स्वयं उसे माने या न मानें यह एक
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________________ [ 101 ] अलग बात है किन्तु इतिहासकार के जरिये जो कुछ ऐतिहासिक सामग्री जिसके भी विषय में उपलब्ध हो उन सबको प्रस्तुत कर देना उसका पवित्र कर्तव्य है। -: लोकोत्तर चार महापाप : (1) साधु महाराज का खून करना ( 2) साध्वीजी के शील का खंडन करना (3) देवद्रव्य का भक्षण करना [ बोली बोलकर पैसा न देना ] (4) जिनमंदिर और मंदिर की प्रतिमा को तोड़ना [भद्रिक जीवों की मंदिर विषयक भावना को तोड़ना या मंदिर में नहीं जाना ऐसी प्रतिज्ञा देना ]
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________________ [प्रकरण-२४ ] स्याहाद सिद्धांत में हिंसा एवं अहिंसा __ वैसे देखा जाए तो सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रवचन देना, गोचरी हेतु जाना आदि सभी शुभ धर्म क्रियाओं में स्थावरकाय की सूक्ष्म हिंसा होती ही नहीं है ऐसा दृढ़ता पूर्वक कहना मुश्किल है। श्रावक सम्मेलन करवाना, प्रदर्शन हेतु भक्तजनों को सैकड़ों मील की दूरी से वंदन के बहाने बुलाना, उनके भोजनादि की सुविधा के लिये अन्य भक्तों को प्रेरित करना, कबूतरों को चुग्गा डालने की प्रेरणा करना, स्थानक बनवाने की प्रेरणा देना, किताब छपवाना, गोठप्रीतिभोज करवाना, इतिहासादि मुद्रित करवाने हेतु वैतनिक पंडित को सावद्य प्रादेश पूर्वक इधर-उधर भेजना, निज की तस्वीर छपवाने-बँटवाने में भक्तगणों को मूक सम्मति देना, नारियल आदि की प्रभावना करवाना, दया पलवाने पर कच्चा पानी पीना-पिलाना, थोडीसी राख डलवा के पानी को अचित्त (! ) बनवाना आदि अनेक सावध यानी पापपूर्ण कार्यों को अहिंसा धर्म के प्रेमी माने जाने वाले और "प्रश्न व्याकरण" नामक पागम शास्त्र के नाम से दूसरों को अहिंसा विषयक कोरा उपदेश देने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी उक्त सावध कार्य क्यों करते एवं करवाते हैं ? यह प्राश्चर्यपूर्ण है / "प्रारंभे नत्थि दया" अर्थात् "हिंसा रूप प्रारम्भ में दया नहीं है", ऐसा एकान्त से कहने वाले
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________________ [ 103 ] प्राचार्य को अपनी करनी और कथनी जांचनी चाहिए और अगर उनकी उक्त करनी हिंसामूलक है तो उन्हें इनका त्याग करना चाहिए। हिंसा और अहिंसा के विषय में जैन सिद्धान्त स्याद्वाद के समुचित ज्ञान के अभाव के कारण ही प्राचार्य ने खंड 2, पृ० 156 पर लिखा है कि xxxजो लोग चैत्य, मंदिर, मठ और यज्ञ-यागादि धर्मकार्यों में होने वाली हिंसा को नहीं मानते उन्हें प्रश्न व्याकरण के इस अध्ययन को देखना चाहिए। इसमें अर्थ और काम निमित्त की जाने वाली हिंसा की तरह धर्महेतु की जाने वाली हिंसा को भी अधर्म बताया है। Xxx मीमांसा-'प्रश्न व्याकरण' पागम के नाम से मंदिर और मठ के साथ यज्ञ-यागादि की हिंसा को जोड़ना प्राचार्य का अप्रमाणिक कृत्य है। प्राचार्य ने अगर जैनागमों और प्रागमेतर जैन साहित्य वृत्ति, चूणि, भाष्य, टीकादि को अच्छी तरह देखा होता तो मंदिर के साथ यज्ञ-यागादि की हिंसा को जोड़ने का दुस्साहस नहीं करते। संपूर्ण जैन साहित्य में कहीं भी यज्ञ-यागादि क्रिया को सराहा नहीं है। इतना ही नहीं शास्त्रों में उनको सर्वथा अनुचित मानते हुए उनकी कड़ी आलोचना एवं भर्त्सना की गयी है। "चैत्य' शब्द के अर्थ को प्राचार्य हस्तीमलजी ने अस्पष्ट रखा है / यानी 'चैत्य' शब्द से उनका मतलब क्या साधु से, या ज्ञान से, या कामदेव की प्रतिमा से, या अन्य किसी अर्थ से है ? "मठ" शब्द से प्राचार्य का तात्पर्य अगर स्थानक या उपाश्रय से है, तब तो घटकुट्यां न्याय' चरितार्थ हो गया। वे स्वयं
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________________ __ [ 104 ] मठ-स्थानक-उपाश्रयादि बनवाने की प्रेरणा करते हैं और स्थानक बनवाने वालों की प्रशंसा-सराहना अनुमोदना भी करते हैं। प्रतः "प्रश्न व्याकरण" कथित अहिंसा विषयक बोध पाकर स्वयं प्राचार्य को ऐसा प्रतिपादन करना चाहिए कि मठ-स्थानक-उपाश्रय बंधवाना अधर्म है यानी पाप है, ताकि उनके भक्त स्थानक बनवाने की हिंसामय पाप प्रवृत्ति से बच सकें। जिनमन्दिर तथा जिनपूजा में हिंसा होने से पूजादि को पाप रूप कहने वाले प्राचार्य को सामिक भक्ति, प्रीतिभोज, श्रावक सम्मेलन, जीवानुकम्पा, पुस्तक छपवाना, भक्तों को मीलों की दूरी से बुलवाना, स्थानक बनवाना आदि कार्य भी पाप रूप होने के कारण, इन्हें त्यागना चाहिए / "प्रश्न व्याकरण" के उपदेश से स्वयं प्राचार्य ही क्यों विपरित चल रहे हैं ? आगे पीछे के संदर्भ एवं तात्पर्य को छोड़कर ऐकान्तिक रीत से "प्रश्न व्याकरण आगम" के नाम से मंदिर एवं जिन प्रतिमादि सत्कार्यों को कोसने की प्राचार्य की प्रवृत्ति उनमें स्याद्वाद परिणत मति का अभाव ही प्रगट करती है। एकान्ते शरण्य, विश्ववंद्य तीर्थंकर परमात्माओं की उपस्थिति में भी पुष्पवृष्टि, चंवर ढुलाना, सुगंधित जल का छिड़कना, देवदुदुभि बजना आदि होता था, अहिंसा मियों को यह भूलना नहीं चाहिए कि इसमें वायुकायादि की हिंसा होती होगी फिर भी इन प्रवृत्तियों का काम-भोग की तरह भगवान ने निषेध नहीं किया है, एवं श्रेणिक आदि राजा महाराजाओं का चतुरंगी सेना और सर्व ऋद्धि-ठाठ से प्रभुवंदना के लिये जाने में भी हिंसा तो होती ही है, फिर भी ऋद्धि-ठाठ पूर्वक वन्दन हेतु आने को भगवान ने निषेध नहीं किया है।
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________________ [ 105 ] स्याद्वाद पूत दृष्टिवाले को जानना चाहिए कि यहां भगवान को द्रव्यस्तव जनित शुभभाव ही अनुमोदनीय है, न कि तद्विषयक हिंसा / जैसे सार्मिक भक्ति के पीछे एवं दया पलवाने के पीछे साधु को सार्मिक भक्ति या जीवदया अभिप्रेत-अनुमोदनीय है, न कि चौका विषयक हिंसा तथा जैसे उपाश्रय बंधवाने की प्रेरणा के पीछे साधु को धर्म की आराधना अभिप्रेत है, न कि तद्विषयक हिंसा, वैसे ही गृहस्थों द्वारा होती पुष्प प्रादि से भगवान की पूजा में साधु को द्रव्यपूजा द्वारा शुभ भाववृद्धि अनुमोदनीय है, न कि पुष्पादि विषयक हिंसा, यह भूलना नहीं चाहिए / इसी प्रकार द्रव्यस्तव की अनुमोदना के पीछे भो गभित रीति से प्राप्त भगवान को द्रव्यपूजा से जनित शुभभाव की अनुमोदना ही अभिप्रेत है, न कि प्रारम्भ की अनुमोदना / ऐसे ही भगवान को द्रव्यस्तव अनुमोदनीय और अभिप्रेत है, क्योंकि समवसरण में राजा एवं अमात्यों द्वारा होता बलिउपहार एवं भरत चक्रवर्ती आदि द्वारा निर्मित जिनमंदिर और मूर्तिपूजा के विषय में भगवान ने कभी भी निषेध नहीं किया है और न अनुचित भी कहा है / इस विषय को लघुहरिभद्र न्यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय महाराज अपने "उपदेश रहस्य" नामक ग्रंथ में अनुमान प्रमाण से भी इस प्रकार सिद्ध करते हैं / यथा 444 द्रव्यस्तवो भगवदनुमतिविषयः योग्यप्रज्ञाप्ये भगवदनिवारितत्वात्, यन्नवं तन्नैवं यथा कामादयः, यदि च भगवानेनं नान्वमोदयिष्यतदा निराकरिष्यत्, अन्यथा योग्ये निषेध्यम् अनिषेध्योपदेशान्तरदाने तदनुमतिप्रसंगात् / 808 अर्थात्-द्रव्यपूजा भी भगवान को अभिप्रेत [ मान्य-इष्टअनुमति का विषय ] है / अगर भगवान को द्रव्यपूजा ( द्रव्यस्तव ) अनिष्ट-असहमत होता तो वे काम-भोग की तरह इसका भी इन्द्रादि.
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________________ [ 106 ] देवों और श्रेणिकादि भक्तों को निषेध अवश्य करते / यद्यपि भगवान जमालि जैसे अयोग्य और अप्रज्ञापनीय [ जड़बुद्धिवाला ] को निषेध्य का निषध नहीं करते, किन्तु इन्द्रादि देवों और अभयकुमार, श्रेणिकादि जैसे योग्य और प्रज्ञापनीय [ सुखबोध्य ] के सामने निषेध्य का निषेध नहीं करके अन्य विषय में उपदेश देने लगते, तो भगवान की निषेध्य में भी अनुमति है ऐसा सिद्ध हो जाता। भगवान प्राप्त हैं यानी वे योग्य और सुख बोध्य को अहित से निवर्तन और हित में प्रवर्तन करवाते हैं। भगवान ने देवों द्वारा होती पुष्पवृष्टि, चंवर ढुलाना और बलि उपहार प्रादि का निषेध नहीं किया है, इससे द्रव्यपूजा के विषय में भगवान की अनुमति स्पष्ट सिद्ध होतो है / ऐसा ही श्रेणिक आदि का चतुरंगी सेना के साथ जाना एवं सूर्याभदेव तथा जीर्णकुमारिओं के माटक के विषय में भी जानना चाहिये / आगम शास्त्रों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूणि, भाष्य, टीकादि कथित और पूर्वाचार्यों विहित (निरूपित) तथा हजारों सालों के प्राचीन शिलालेख, जिनमूर्तियों पर लिखे लेखों से मूर्ति और मूर्ति की मान्यता सिद्ध होते हुए भी जिनमूर्तिपूजा में हिंसा हिंसा की पुकार करने वालों की दयाधर्मिता पालू, मूली, गाजर आदि अनन्तकाय भक्षण करते वक्त एवं बासी तथा द्विदल खाते समय कहाँ चली जाती है, यह समझ में नहीं पाता। विहार के समय नदी उतरना, बर्तन खोलकर अतिउष्ण पेय चाय आदि ग्रहण करना, वर्षा बरसते समय भी प्रवचन रखना, नारियल की प्रभावना करना, इत्यादि हिंसा को दयाधर्मी प्राचार्य क्यों मान्यता देते हैं ? इन सब स्थानों पर प्रश्न व्याकरण के उपदेश"धर्महेतु की जाने वाली हिंसा भी अधर्म है" को प्राचार्य क्यों भूल जाले
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________________ [ 107 ] हैं ? मेरठ में स्थानकपंथी साधु के स्मारक स्वरूप एक कोर्ति स्तम्भ बना है, उसके चारों तरफ बाग, बगीचे, नीचे हरि दूब तथा बिजली प्रादि जगमगाते हैं ? मंदिर की आलोचना करने वाले और मंदिर में नहीं जाने की प्रतिज्ञा कराने वाले प्राचार्य ने उक्त कार्यों का क्या कभी विरोध किया है ? या उस स्थान पर दर्शनार्थ नहीं जाने की प्रतिज्ञा अपने भक्तों को दी है ? स्याद्वाददृष्टि से हम तो इतना ही कहेंगे कि भगवान की प्राज्ञा में ही धर्म है। पूज्य कालिकाचार्य ने लड़ाई तक लड़वाई है, इस पर भी वे महान अहिंसक कहे जाते हैं / मूढ़ लोग भले दया पलवाई उसको अहिंसा माने, किन्तु पानी में थोड़ी सी राख डालकर कच्चा पानी पिलाने के कारण बाहरी कल्पित अहिंसा भी भीतर से महाहिंसा है, इतना ही नहीं किन्तु ऐसी कुप्रवृत्ति मिथ्यात्व को बढ़ावा भी देती है। प्रागमेतर जैन शास्त्रों में सबसे प्राचीन, श्री महावीर स्वामी के द्वारा दीक्षित पूज्य धर्मदास गणि महाराज द्वारा विरचित "उपदेशमाला" शास्त्र में कहा है कि xxx तम्हा सव्वणुन्ना, सव्वनिसेहो य पवयणे नत्थि / आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखिव्व वाणिओ ॥श्लोक 392 // भावार्थ-जिनाज्ञा उत्सर्ग और अपवाद रूप में है। जैनागमों में त्याज्य रूप से जिसका निषेध किया गया है, उसका भी अपवाद मार्ग से विधान बताया गया है / यानी जैन प्रवचन में सर्वनिषेध कहीं भी नहीं है / अतः लाभाकांक्षी बनिये की तरह लाभालाभ विचार करके ही प्रवृत्ति करनी चाहिए /
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________________ [ 108 ] जिनमंदिर, जिनप्रतिमादि के विषय में प्राचार्य को अनेकान्तवाद का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि शास्त्रों में स्याद्वादपरिकर्मित शुद्ध श्रद्धा और परिणति के बिना व्यक्ति को द्रव्यचारित्री ही कहा है। स्थावर हिंसा जिनपूजा में, यह देख तू ध्र जे / तो पापी वह दूर देश से, जो तुझे प्राकर पूजे / / -न्यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय महाराज -
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________________ [ प्रकरण-२४] श्री भद्रबाहुस्वामी प्रौर उवसग्गहरं स्तोत्र भगवान श्री महावीर स्वामी की पाट परम्परा में प्रार्य श्री प्रभव स्वामी के पश्चात् पूज्य यशोभद्रसूरिजी पाये / आपके शिष्य पार्य श्री भद्रबाहु स्वामी 14 पूर्वधर थे। आपका जीवन वृत्तान्त इस प्रकार है। प्रार्य श्री यशोभद्रसूरिजी के पास ब्राह्मण ज्ञातीय भद्रबाहु और वराहमिहिर नाम के दो भाईयों ने दीक्षा ली। श्री भद्रबाहुस्वामी विनयवन्त और तेजस्वी थे, गुरुकृपा से आप चौदहपूर्व के धारक बनें और पापको योग्य जानकर गुरु ने प्राचार्य पदारूढ़ किया। प्राचार्यपदेच्छु वराहमिहिर को अयोग्य जानकर गुरु ने प्राचार्य पद नहीं दिया / अतः वह फिर से ब्राह्मण वेश धारणकर नैमित्तिक बन गया। एक बार राजा के घर पुत्र का जन्म हुआ, तब वराहमिहिर ने बालक की मायु 100 साल बताई, किन्तु आर्य श्री भद्रबाहुस्वामी ने बताया कि उसकी सातवें दिन बिडाल से मौत होगी / बालक की सुरक्षा के निमित्त राजा ने सब बिडाल बिल्ली को नगर के बाहर निकाल दिया। फिर भी सातवें दिन बालक की मृत्यु कपाट की अर्गला पर उत्कीर्ण बिडाल की प्राकृति वाली अर्गला से हो गयी। राजा को ज्ञात हुआ कि पूज्य भद्रबाहुस्वामी का ज्ञान सत्य से परिपूर्ण है। लोगों में वराहमिहिर की बड़ी हाँसी हुई, वह अज्ञानकष्ट से मरकर देव हुआ
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________________ [ 110 ] और लोगों पर उपसर्ग करने लगा। इससे बचने हेतु पूज्य भद्रबाहुस्वामी ने "उवसग्गहरं स्तोत्र" की रचना की, जिसके जाप-ध्यान से संघ उपद्रव रहित हुआ। प्राचार्य हस्तीमलजी खंड 2, पृ० 331 पर लिखते हैं कि 388 धात्री से बालक की मृत्यु का कारण पूछा गया तो उसने रोते हुए उस अर्गला को उठाकर महाराज के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया। अर्गला के मुख पर उत्कीर्ण की हुई बिडाल की आकृति को देखकर राजा ने आश्चर्याभिभूत होकर बारम्बार आचार्य भद्रबाहु की महिमा को 108 मीमांसा-यहाँ प्रश्न यह है कि बालक की मृत्यु बिडाल से हुई या लोहे की अर्गला से ? यद्यपि बालक की मृत्यु लोहे की अर्गला से हुई है, फिर भी अगाध ज्ञानी 14 पूर्वधर महर्षि श्री भद्रबाहुस्वामी ने बालक की मृत्यु का कारण बिडाल क्यों बताया ? इतने ज्ञानी को तो यह कहना चाहिए कि बालक की मृत्यु- "लोहे की नर्गला गिरने से होगी"। क्योंकि बिड़ाल की निर्जीव प्राकृति से किसी की मौत नहीं हो सकती / यहाँ 14 पूर्वधर को बिडाल की मूर्ति में भी मूर्तिमान अभिप्रेत है, किन्तु इसप्रकार की सूक्ष्म बात की समझ बिना गुरुगम के कारण स्थानकपंथी को कभी नहीं आयेगी, कि-"१४ पूर्वधर ने भी बालक की मौत का कारण बिडाल से कहा था, जोकि लोहे के कपाट पर उत्कीर्ण निर्जीव बिडाल की प्राकृति मात्र थी।" स्पष्ट तथ्य यह है कि केवलज्ञानी तुल्य देशना देने वाले चौदह पूर्वधर श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी ने बिडाल की प्राकृति को भी बिडाल कहा है / इसी दृष्टांत से प्राचार्य को भी जानना चाहिए कि जिनेश्वर देव की प्रतिमा भी जिनेश्वर देव के समान कही जाती है /
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________________ [ 111 ] यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन समाज की यह श्रद्धा है कि "जिन प्रतिमा जिन सारिखो" / यानी जिनेश्वर देव की प्रतिमा जिनेश्वर देव के समान ही है। बहुधा स्थानकपंथी लोग श्वेताम्बरों को पत्थर पूजक कहते हैं या भगवान की मूर्ति को पत्थर कहते हैं तो यह उनकी अल्पज्ञता ही है, क्योंकि मूर्ति की पूजा इसलिए नहीं की जाती है कि वह सोने, चांदी या संगमरमर की है, किन्तु वह तीर्थंकर परमात्मा की है इसलिए पूजा की जाती है। वास्तविकता यह है कि जिसका भावनिक्षेप वंदनीय-पूजनीय है, उसका नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों निक्षेप भी वंदनीय-पूजनीय हैं / मूर्ति मूर्तिमान का स्मारक है / मति द्वारा मूर्तिमान की पूजा की जाती है। सिर्फ नाम स्मरण करने वाले भी अगर नाम स्मरण की गहराई में उतरें तो जड़ नाम के स्मरण के पीछे भी यही आशय समाया हुआ है / यद्यपि तीर्थंकर परमात्मा के सिर्फ नाम स्मरण के पक्षधर एवं हिमायती स्थानकपंथी मुनि आदि अपनी तस्वीर बड़े चाव से खिचवाते, बँटवाते देखे गये हैं, यहाँ भी मूर्ति के पीछे मूर्तिमान के स्मरण का भाव ही होगा या अन्य ? इसका जवाब प्राचार्य स्वयं क्या देंगे ? जसे पिता वन्दनीय है, तो उनका चित्र-प्रतिमा भी वंदनीयपूजनीय है / इसी तरह नमस्कार महामंत्र वंदनीय है, वैसे उनकी तस्वीर भी वंदनीय ही है / क्या स्थानकमार्गी नमस्कार महामंत्र की तस्वीर को थूक अथवा पैर लगाकर आशातना करेंगे? न्यायविशारद महाज्ञानी पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय महाराज प्रभु के स्तवन में लिखते हैं कि ये जिन प्रतिमा जिनवर सरिखी, पूंजो त्रिविधे तुमे प्राणी / जिन प्रतिमा में संदेह न रक्खो, वाचक यश की वाणी / /
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________________ [ 112 ] यदि स्थानकपंथी प्राचार्यादि को कुपंथ त्याग कर सत्यमार्ग पर पाना हो, तो उन्हें चौदह पूर्वधर महर्षि श्री भद्रबाहु स्वामी महाराज का एक ही कथन-"बिडाल की प्राकृति यानी बिडाल" के तथ्य को अच्छी तरह समझना चाहिए। जिनप्रवचन और जिनमंदिर के अवर्णवाद और अपलाप करने वाले जिनशासन के अहितकारी तत्त्वों का जितनी हो सके उतनी ताकत से सामना करना चाहिए / -"श्री उपदेशमाला शास्त्र"
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________________ [ प्रकरण-२६ ] जैन धर्म में सम्यक् श्रद्धा की व्यापकता वीर निर्वाण के करीब 980 साल बाद आगमों की वाचना करवाके पूर्वाचार्यों ने जैनागमों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य को पुस्तकारूढ़ कर महान उपकार किया है / उत्सूत्र को वज्रपाप समझने वाले, भवभीरु उन पूर्वाचार्यों की प्रामाणिकता ऐसी रही कि जहाँ भी सूत्र-अर्थ विषयक मतभेद आये वहाँ ग्रन्थ में उन्होंने दोनों मतभेद लिख दिये और ऐसे तत्त्वों को विवादास्पद न बनाते हुए लिख दिया कि-"यदत्र तत्त्वं तत्तु केवलिनो विन्दन्ति" यानी यहाँ परमार्थ क्या है यह तत्त्वज्ञानी-केवली ही जानें / महाज्ञानी पूर्वाचार्यों की स्वच्छमति देखो कि उन्होंने तत्त्व विपरीत हो जाने के डर से आगम सूत्रों पर अपनी स्वतन्त्र राय प्रगट नहीं की है। उनको प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के कारण ही हमारे लिये पागम और आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य सत्य, मान्य और श्रद्धनीय हैं। क्योंकि "पुरुष विश्वास से वचन विश्वास" यह पागम वचन है। आचार्य हस्तीमलजी को प्रामाणिक पूर्वाचार्यों के कथन पर श्रद्धा और विश्वास प्रतीत नहीं होता है / अतः वे सगरचक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों की मौत पर प्राचीन ग्रंथों का सहारा छोड़कर पौराणिक गपोड़ों पर विश्वास कर रहे हैं एवं श्री सिद्धसेनसूरिजी के विषय में
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________________ [ 114 ] प्राधुनिक चिंतकों के बहाने पूर्वाचार्यों के कथन को झूठा करने को तुले हुए हैं / किन्तु यही इस कल्पित परम्परा की शुरू से पादत रही है। जैनागमों में सम्यक् श्रद्धा को चारित्र, तप, शील प्रादि सब धर्मों से प्रथम बताया है / पंचसूत्रकर्ता प्राचीनाचार्य ने सम्यक् श्रद्धा के बिना जमालि आदि की चारित्र की सुन्दर क्रिया को भी "कुलटा नारी की क्रिया" कही है, जिसका फल संसार भ्रमण है। प्राचार्य हस्तीमलजी जैनागम कथित सम्यक् श्रद्धा को अच्छी तरह जानते, तो जैन साहित्य को पलटने की सुधारवादी प्रवृत्ति नहीं अपनाते / आधुनिक उच्छृखल इस प्रकार का भाब प्राचार्य ने खंड 2, पृ० 38/36 पर प्राक्कथन में प्रगट किया है / यथा 444 इसी प्रकार बहुत सी चमत्कारिक रूप से चित्रित घटनाओं को भी इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किया गया है। मध्ययुगीन अनेक विद्वान ग्रन्थकारों ने सिद्धसेन प्रभृति कतिपय प्रभावक आचार्यों के जीवन चरित्र का आलेखन करते हुए उनके जीवन की कुछ ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिन पर आज के युग के अधिकांश चिन्तक किसी भी दशा में विश्वास करने को उद्यत नहीं होते। 800 मीमांसा-पंचमहाव्रत धारक प्राचीनाचार्यों को झूठा करके पागम एवं प्रागमेतर प्राचीन साहित्य में मनमाना और जीचाहा परिवर्तन करने पर भी उच्छृखल आधुनिक विचारकों को प्राचीन जैन साहित्य विषयक बात मान्य बनेगी या नहीं यह तो विचारणीय ही है / किन्तु प्राचीन जैन साहित्य के विषय में अपने उन्मार्ग प्रेरक सुधारवादी विचार प्राचार्य ने आज के युग के अधिकांश चिन्तकों के बहाने प्रस्तुत कर दिया है, जो जैनधर्म विषयक प्राचीन साहित्य पर प्रश्रद्धा एवं अविश्वास का सूचक है / स्याद्वाद परिकर्मित मति के प्रभाव के कारण
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________________ [ 115 ] ही जमालि प्रावि शासन बाह्य हो गये थे, प्राचार्य इस बात को सूक्ष्मता से जानते ही होंगे। क्योंकि खंड 1, पृ० 718 पर वे लिखते हैं कि बहुत कुछ समझाने पर भी जमालि की भगवान के वचनों पर श्रद्धा प्रतीत नहीं हुई और वह भगवान के पास से चला गया। मिथ्यात्व के अभिनिवेश ( दुराग्रह, भूठी जिद्द ) से उसने स्वपर को उन्मार्गगामी बनाया और बिना आलोचना के मरण प्राप्त कर किल्बिषी देव हुआ। ___ मीमांसा-उत्सूत्र भाषण के वज्रपाप के कारण ही जमालि शासन बाह्य हो गया और उसने देव दुर्गति पायी / ऐसा निन्हवों के प्रकरणों को जानने वाले स्थानकपंथी प्राचार्य हस्तीमलजी पागम और आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य कथित और पूर्वाचार्यों द्वारा विहित एवं प्ररूपित जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, तीर्थों आदि का विरोध करके मिथ्यात्वी जमालि आदि निन्हवों की कोटि में क्यों प्रवेश करते हैं ? क्योंकि जैनधर्म में स्थानकपंथी मत प्रवर्तक लोकाशाह के पहिले जिनमूर्तिपूजा और जिनमंदिर का विरोध किसी जैनाचार्यादि ने किया हो तो प्राचार्य को प्रामाणिकता से प्रस्तुत करना चाहिए। ___ राय बहादुर पंडित श्री गौरीशंकर अोझा अपने “राजपूताना का इतिहास" पृ० 1418 पर लिखते हैं कि 80 स्थानकवासी श्वेताम्बर समुदाय से पृथक् हुए जो मन्दिरों और मूर्तियों को नहीं मानते हैं। उस शाखा के भी दो भेद हैं, जो बारहपन्थी और तेरहपंथी कहलाते है / ढूढियों ( स्थानकपंथी ) का समुदाय बहुत प्राचीन नहीं है, लगभग 300 वर्ष से यह प्रचलित हुआ है।xxx मीमांसा–मूर्ति और मंदिर का विरोध करने वाले श्रीमान् लोकाशाह के गच्छवाले प्राचार्य जो “लोंकागच्छीयाचार्य" के नाम से
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________________ [ 116 ] पुकारे जाते थे, उन्होंने ही मंदिर बनवाकर जिनमूर्तियों की प्रतिष्ठा करवायी थी। एक तथ्य अोर भी है जिससे विद्यमान प्राचीन साहित्य और करीब करीब सभी स्थानकपंथी विद्वान सहमत हैं कि लोंकाशाह ने स्वमति कल्पना से केवल जिनमंदिर और जिनप्रतिमा का ही विरोध किया था, किन्तु बाद में “लवजी" नामक स्थानकपंथी साधु ने सूरत (गुजरात) में वि० सं० 1706 ( ई० सं० 1652 ) में मुंह पर मुंहपत्ती बाँधकर इस मत का प्रवर्तन किया था, न कि लोंकाशाह ने। यानी प्राजके स्थानकपंथी लोंकाशाह के नहीं किन्तु लवजीऋषि की परम्परा (संतानीय) के हैं / स्थानकपंथी पंडित लिख रहे हैं कि Xxx मुख बन्धन श्री लोकाशाह के समय से शुरु नहीं हुआ है, किन्तु उसके बाद हुए स्वामी लवजी के समय से शुरु हुआ है और वह [ मुख पर मुहपत्ती बांधना ] आवश्यक भी नहीं है। [ जैन ज्योति, दिनांक 18-7-36, पृ० 172, लेखकराजपाल मगनलाल बोहरा, गुजराती पर से हिन्दी ] श्वेताम्बर जैन श्रावक श्री रणजीतसिंहजी भण्डारी [जयपुर ] "सत्यसंदेश" किताब पृ० (ख) पर लिखते हैं कि 808 मुहपत्ती रात दिन मुह पर बांधने से बार बार थूक की चिपचिपी, चतुरस्पर्शी जीवों का ताड़न प्रताड़न, बोलने में असुविधा तथा चेहरे के सही भाव व्यक्त करने की सुविधा से वंचित होना आदि / क्या यह वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतर सकेगी? 888 मीमांसा-एक मंदिर और मूर्ति के पीछे स्थानकवासियों को जैनागमों और प्राचीन जैन साहित्य को भी झूठा कहने की एवं पलटने की नौबत आती है और कुवेष रचकर वे हास्यास्पद भी बनते हैं।
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________________ [ 117 ] जन्म से स्थानकमार्गी पंडित सुखलालजी अपने पर्युषणा के व्याख्यान में लिखते हैं कि xxx हिन्दुस्तान में मूर्ति के विरोध की विचारणा मुहम्मद पैगम्बर के पीछे उनके अनुयायी अरबों और दूसरों द्वारा धीरे धीरे प्रविष्ट हुई। जैन परम्परा में मूर्ति विरोध को पूरी पांच शताब्दी भी नहीं बीती है [मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास में से] xxx मीमांसा-वास्तविकता तो यह है कि मूर्ति विरोध करने वालों के पास भी जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये मंदिर और मूर्ति को छोड़कर अन्य प्रमाण ही क्या है ? स्वयं प्राचार्य हस्तीमलजी ने ही नंदीसूत्र एवं कल्पसूत्र की पट्टावलियों को प्राचीन जिनप्रतिमा की चौकियों पर उट्ट कित लेख एवं प्राचीन शिलालेखों का सहारा लेकर ही प्राचीन एवं प्रामाणिक निर्णत किया है / विद्वान लेखक मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज अपनी "मूर्तिपूजा का प्राचीन इतिहास" नामक किताब के पृ०७ पर लिखते हैं कि xxx स्थानकवासी मत प्रवर्तक लोकाशाह [ स्थानकपंथी परम्परा के आद्यप्रणेता एक वृद्ध जैन भाई] पर मुस्लिम संस्कृति का बुरा प्रभाव था और मूर्तिविरोधी उनकी मान्यता को मुसलमानों ने सहायता को थी।xxx मीमांसा-जैनधर्म में मंदिर और मूर्तिविरोधी मान्यता का प्राद्यप्रणेता लोकाशाह को माना जाता है, जो कि एकवृद्ध जैनभाई था और शास्त्रों को लिखकर अपनी प्राजीविका चलाने वाला लिखारी मात्र था / और उससे चले हुए लोंकागच्छीय प्राचार्यों ने ही मूर्तिपूजा
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________________ [ 118 ] का समर्थन किया है / स्थानकपंथियों में घर के आंगन में ही लोंकाशाह के विषय में काफी मतभेद हैं एवं इसकी दीक्षा के विषय में भी इतने ही मतभेद हैं। हमारा तो इतना ही कहना है कि स्थानक पंथी अगर पूर्वाचार्यों पर श्रद्धा रखते हैं तो उनके मार्ग को उन्हें अपनाना चाहिए / अन्यथा श्रद्धाभ्रष्ट के विषय में प्राचार्य स्वयं खंड 2, पृ० 57 पर लिखते हैं कि 888 सण भट्ठो भट्ठो, दंसण भट्ठस्स नत्थि निव्वाणं / सिझंति चरण रहिया, दंसण रहिया न सिझंति // अर्थात्-दर्शनभ्रष्ट ( श्रद्धा से पतित ) भ्रष्ट है, ऐसे श्रद्धाभ्रष्ट का निर्वाण ( मोक्ष ) नहीं होता, ( द्रव्य ) चारित्र बिना भी मोक्ष है, किन्तु श्रद्धा रहित का मोक्ष नहीं है।४४४ मीमांसा- श्री ठाणांग सूत्र, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि अनेक आगम सूत्रों में जगह जगह शाश्वत-प्रशाश्वत जिनप्रतिमा और जिन मन्दिर प्रादि की बात आती है / प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूणि, भाष्य, टीकादि में भी जिनमन्दिर, स्तूप आदि की बात लिखी है। प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष भी मूर्तिपूजा की ठोस सिद्धि करते हैं एवं पूर्वाचार्यों ने ही सम्मेदशिखर, शत्रुजय, गिरनारजी, पावापुरी, चंपापुरी आदि अनेक तीर्थों एवं तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों पर जिनमन्दिर निर्माण करवाये हैं और उनमें जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा भी करवायी है / ऐसी दशा में कम से कम श्रद्धावन्त कोई भी जैन जिनप्रतिमा और मंदिर के तथ्य को स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता और इसमें ही अनेकान्त दृष्टि सन्निहित है /
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________________ [ 116 ] अनेकान्त दृष्टि के कारण ही अनेक स्थानकपंथी मुनियों ने मुहपत्ति का डोरा तोड़कर शुद्ध संवेगी साधु मार्ग अपनाया था। “सत्यसंदेश” संपादक-पारसमल कटारिया। लेखक-सौभाग्यचन्द लोढापृ० 23 पर लिखते हैं कि 80. उन्होंने ढूढकमत को त्यागकर शुद्ध संवेगी मत स्वीकार किया।xxx मीमांसा-गणिवर श्री मुक्तिविजयजी ( मूलचन्दजी ), गणिवर श्री बुद्धिविजयजी (बूटेरायजी), महोपाध्याय श्री रणधीर विजयजी, महान जैनाचार्य पूज्य श्री विजयानन्दसूरिजी (आत्माराम जी), मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी आदि अनेक विद्वानों ने कल्पित जानकर स्थानक पंथ का त्याग किया था और शुद्ध संवेगी साधु मार्ग में दीक्षा ली थी और साहित्य लेखन द्वारा स्थानकमत विषयक भ्रमजाल का पर्दा खोलने का सराहनीय प्रयास किया था। बात तो यह है कि भोली जनता को अंधेरे में तब तक ही भटकाया जा सकता है जब तक उनमें संस्कृतप्राकृत भाषा द्वारा ज्ञान का प्रकाश न हो। आश्चर्य तो इस बात का है कि स्थानकपंथी अपने प्राद्यप्रवर्तक लोकाशाह के बताये रास्ते से भी विपरीत चलते हैं, वे अगर उनसे भी प्राचीन शास्त्रों को मान्य नहीं करें तो आश्चर्य ही क्या है ? खंड 1, पृ० 666 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx14 पूर्व के रचियता गौतमस्वामी आनन्द को मिच्छामिदुक्कडं देते हैं। 888
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________________ [ 120 ] मीमांसा-यह तो अनजान से भूल हुई उसकी माफी श्री गौतम स्वामी मांगते हैं, किन्तु जानबूझकर और मायावृत्ति के साथ की गयी भूलों के लिये गहरे प्रायश्चित्त की आवश्यकता है। अतः इतिहास के अन्त में मिच्छामि दुक्कडम्' ऐसा प्राचार्य लिख दें, तो उससे दुष्कृतगर्दा नहीं हो सकती। जा जिसका मन समकित में निश्चल / कोई नहीं तस तोले रे // -पू० यशोविजयजी महाराज
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________________ [ प्रकरण-२७] प्रनुचित खुशामद आचार्य हस्तीमलजी ने "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" नामक पुस्तक लिखकर साम्प्रदायिक कटुता उभारने का प्रस्तुत्य प्रयत्न किया है / इन्हीं महाशय ने ही इसके पहिले “पट्टावली प्रबध संग्रह" नामक एक किताब जिसका डा० नरेन्द्र भाणावत ( जयपुर ) ने संपादन किया है, छपवाकर जिनमूर्ति पूजा विषयक “इस प्रकार सं० 882 में हिंसाधर्म प्रगट हुप्रा" तथा प्राचीन संयमी जैनाचार्यों पर 'वे शिथिलाचारी थे" आदि लिखकर अनर्गल आक्षेप किये हैं। "सत्य संदेश' किताब द्वारा जैन श्वेताम्बर तपागच्छ संघ ऐसी साम्प्रदायिक कटुता उभारने वाली पुस्तक का व्यापक विरोध होना चाहिए था, वह नहीं हुआ है। इसके कारण ही आज भी प्राचार्य हस्तीमलजी द्वारा दूषित साहित्य निर्माण कर विषैला प्रचार चालू हो रहा है। एकता और शान्ति हमें पसन्द है, किन्तु स्थानकपंथ के कर्णधार प्राचार्य सत्य को तोड़-मरोड़ कर उसका कुप्रचार करें, वह असह्य है। स्थानकपंथी समाज के कर्णधार द्वारा ऐसी अनुचित और गलत प्रवृत्ति कब से प्रारम्भ हो चुकी है, जिसने बड़ा विवाद जगाया है, जिसका जैन समाज द्वारा व्यापक प्रतिहार होना अत्यन्त आवश्यक है।
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________________ [ 122 ] उक्त 'पट्टावली प्रबन्ध संग्रह' नामक ग्रन्थ जो प्राचार्य हस्तीमलजी ने लिखा है इस विषय में तटस्थ साहित्यकार, पुरातत्त्वज्ञ विद्वान् श्री अगरचन्दजी नाहटा “सत्य संदेश" पुस्तक में पृ० ( क ) पर-"एक अत्यावश्यक स्पष्टीकरण" लिखते हैं कि 444 मूर्तिपूजा के सम्बन्ध में भी इस ग्रन्थ में प्रकाशित कई बातें सर्वथा गलत और साम्प्रदायिक कटुता को उभारने वाली हैं। [सत्य संदेश, संपादक-पारसमलजी कटारिया, जयपुर] 444 मीमांसा-श्री अगरचन्दजी नाहटा का उक्त कथन सर्वथा सत्य है / मूर्तिविरोधी गलत मान्यता वाले प्राचार्य के साहित्य की तटस्थ एवं प्रामाणिक कोई भी विद्वान् प्रशंसा नहीं कर सकता। डा० नरेन्द्र भाणावतजी जैसे विद्वान् भी जब साम्प्रदायिक कटुता उभारने वाले षड्यंत्र में ऐसे महाशय को साथ-सहकार-प्रोत्साहन देते हैं तब हमें सखेद आश्चर्य होता है। "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" पुस्तक के एक मुख्य संपादक न्याय-व्याकरण तीर्थ श्री गजसिंहजी राठौड़ ने खंड 1 ( पुरानी प्रावृत्ति ) में “संपादकीय नोंध" के पृ० 33 से 42 तक आचार्य हस्तीमलजी की लम्बी-चौड़ी प्रात्मवंचक खुशामद की है। पृ० 30 पर वे लिखते हैं कि xxx इतिहास-लेखन जैसे कार्य के लिये गहन अध्ययन, क्षीर नोर विवेकमयी तीव्र बुद्धि, उत्कृष्ट कोटि की स्मरण शक्ति, उत्कट साहस, अथाह ज्ञान, अडिग अध्यवसाय, पूर्ण निष्पक्षता, घोर परिश्रम आदि अत्युच्चकोटि के गुणों को आवश्यकता रहती है / वे सभी गुण आचार्य श्री ( हस्तीमलजी ) में विद्यमान हैं।xxx
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________________ [ 123 ] मीमांसा-ऐसा लगता है कि स्थानकपंथियों में अपनी प्रशंसा करवाने का विशेष प्रलोभन होता है / उनके माने हुए 32 प्रागमों पर कुछ वृत्ति-चूणि-भाष्य-टीकादि के सहारे से, कुछ इधरउधर से लेकर और वह भी भूलों एवं झूठों से भरा हुआ सिर्फ "हिन्दी अनुवाद" करने वाले अमोलक ऋषि नामक स्थानकपंथी साधु ने अपनी हिन्दी अनुवादित पुस्तकों के पन्ने-पन्ने पर अपना नाम लिखवाया और छपवाया है। ऐसा तो संस्कृत और प्राकृत भाषा में जैनागमों पर स्वतंत्र प्रचुर साहित्य रचने वाले पूज्य हरिभद्रसूरिजी, पूज्य अभयदेवसूरिजी, पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज एवं पूज्य यशोविजयजी उपाध्याय महाराज आदि महान् विद्वानों ने भी नहीं किया है / उक्त अमोलक ऋषि की परम्परा के प्राचार्य हस्तीमलजी भी एक महाशय हैं, जिन्होंने मनकल्पित एवं जीचाहा जैनधर्म सम्बन्धित इतिहास प्रादि साहित्य नामधारी एक समिति द्वारा रचवाया है और उसमें अपनी जीभर प्रशंसा करवायी है। श्री गजसिंहजी द्वारा प्रशंसा करवाने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी स्वयं प्राचीन जैनाचार्यों को झूठा करने हेतु खंड-१, पृ० 123 पर लिखते हैं कि 688 छद्मस्थ साहित्यकारों द्वारा चरित्र-चित्रण में अतिशयोक्ति होना असंभव नहीं।xxx मीमांसा-प्राचार्य के उपरोक्त कथन से गजसिंहजी राठौड़ का भ्रम नष्ट हो गया होगा। यानी छद्मस्थ गजसिंहजी राठौड़ द्वारा किया गया "प्राचार्य हस्तीमलजी" का चरित्र-चित्रण अतिशयोक्तिपूर्ण होना सर्वथा संभव है / क्योंकि मुख्य संपादक गजसिंहजी छद्मस्थ होने के साथ साथ वैतनिक भी हैं, इसके कारण वे "अहो रूपं, अहो ध्वनि" वाला प्रसंग यदि प्रस्तुत करें तो उसमें उनका स्वार्थ उनको बाध्य कर सकता है तथा गृहस्थ होने के कारण शायद श्री गजा
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________________ [ 124 ] वे सत्य बोलने की प्रतिज्ञा वाले भी नहीं होंगे, अतः प्राचार्य हस्तीमलजी के विषय में उनका कथन अतिशयोक्ति से भरपूर हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या ? रही बात पूर्वाचार्यों की, सो वे तो भवभीरु और पंचमहाव्रतों के धारक सत्यप्रतिज्ञ थे, झूठ और अतिशयोक्तिपूर्ण लिखने का जिनको कोई प्रयोजन ही नहीं था / ऐसे सत्यप्रिय जैन पूर्वाचार्य कथाग्रन्थ के चरित्रचित्रण में अतिशयोक्ति क्यों करेंगे ? तथा छद्मस्थ होने के कारण पूर्वाचार्यों के कथन को अतिशयोक्तिपूर्ण कहने पर तो तीर्थंकर और केवलज्ञानियों को छोड़कर अन्य सब झूठे ही ठहरेंगे, फिर तो स्वयं छद्मस्थ प्राचार्य हस्तीमलजी का साहित्य सर्वथा झूठा और अप्रमाणिक सिद्ध हो जाता है / खैर ! प्राचार्य द्वारा रचित इस इतिहास में ऐसी तो अनेक गलतियां भरी पड़ी हैं, जो गजसिंहजी राठौड़ द्वारा कथित उनकी क्षीर-नीर विवेकमयी तीव्र बुद्धि पर बड़ा प्रश्नार्थचिह्न लगाने वाली है। प्राचार्य हस्तीमलजी के विषय में ऐसी ही अतिशयोक्ति पूर्ण बात पंडित श्री दलसुखजी मालवणिया ने भी लिखी है। खंड-१, पृ० 6 पर "प्रकाशकीय नोंध" में पंडित दलसुखजी मालवणिया के प्रशंसा सूचक वचन को आकर्षक रूप में प्रगट किया गया है / वे प्राचार्य के इतिहास के विषय में अनुचित खुशामद करते हैं कि 880 बहुत काल तक आपका यह इतिहास ग्रंथ प्रामाणिक इतिहास के रूप में कायम रहेगा। नये तथ्यों की संभावना अब कम मीमांसा-ऐसा लगता है श्री मालवणियाजी को संपूर्ण इतिहास ध्यान से पढ़ने का समय ही न मिला हो, संभव है सिर्फ ऊपरऊपर से देखकर ही जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास और साहस के
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________________ [ 125 ] साथ उक्त निर्णय उन्होंने दे दिया हो, क्योंकि इतिहास में जगह जगह पर “यह विचारणीय है", "इस पर विशेष प्रकाश इतिहासज्ञ डालेंगे," इस प्रकार लिखकर अनेक प्रश्नों को इतिहासकार प्राचार्य हस्तीमलजी ने अपूर्ण एवं अनिर्णित ही छोड़ दिया है / यथा खंड-१ (पुरानी आवृत्ति ) 'अपनी बात' में पृ० 17 पर भगवान श्री महावीर स्वामी का रात्रि विहार एवं ब्राह्मण को अर्धवस्त्रदान आदि बातों के विषय में प्राचार्य लिखते हैं कि 444 इन सब की संगति क्या हो सकती है ? इस पर गीतार्थ गंभीरता से विचार करें।xxx __ मीमांसा-मुख्य सम्पादक गजसिंहजी प्राचार्य हस्तीमलजी को अथाहज्ञानी, घोर परिश्रमी आदि अत्युच्चकोटि के गुणों के मालिक कहते हैं, कथित गुणों से युक्त प्राचार्य ने उक्त विषयों को अन्य के भरोसे क्यों छोड़ा ? "अथाहज्ञानी" (! ) प्राचार्य स्वयं ने इस पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं किया ? ऐसी दशा में गजसिंहजी द्वारा की गयी प्राचार्य की खुशामद क्या आत्मवंचक नहीं ठहरती ? और इस बात से मालवरिणयाजी का भी भ्रम नष्ट हो गया होगा। जिसको बौद्धधर्म सम्बन्धित बताया जाता है, ऐसे "बौद्ध धर्मचक्र" और चतुर्मुख सिंहाकृति वाला सारनाथ के स्तंभ के विषय में प्राचार्य खंड-२, पृ० 451 पर लिखते हैं कि xxxसिंह का संबंध बुद्ध के साथ उतना संगत नहीं बैठता जितना कि भगवान महावीर के साथ / भगवान महावीर का चिन्ह ( लांछन ) सिंह था और केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् भगवान महावीर के साथ-साथ सिंह का चिन्ह भी चतुर्मुखी दृष्टिगोचर होने लगा था। सिंह चतुष्टय पर धर्मचक्र इस बात का प्रतीक है कि जिस समय तीर्थंकर विहार करते हैं, उस समय
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________________ [ 126 ] धर्मचक्र नभमण्डल में उनके आगे आगे चलता है / इस प्रकार के अनेक गहन तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है। मीमांसा-"केवलज्ञान के बाद भगवान श्री महावीर स्वामी चतुमुखी दृष्टिगोचर होने लगे थे"- इस तथ्य में प्रतिमा का सिद्धान्त समाया हुअा है, क्या प्राचार्य इस सत्य को स्वीकार करेंगे ? और प्रस्तुत में प्राचार्य स्वयं कह रहे हैं कि-"इस प्रकार के अनेक गहन तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है," स्वयं आचार्य द्वारा लिखित इस बात पर से मालवणियाजी का कथन "नये तथ्यों की संभावना अब कम ही है" सर्वथा अप्रमाणिक और झूठ ही सिद्ध होता है / साथ ही साथ मुख्य संपादक श्री गजसिंहजी द्वारा कथित "घोर परिश्रमी" प्राचार्य स्वयं क्यों उक्त विषयों में गहन शोध नहीं करते हैं ? प्राचार्य हस्तीमलजी ने "संभव है" ऐसा लिखकर प्राचीन जैनाचार्यों के कथन को अप्रमाणिक करते हुए पौराणिक गपौड़ों को भी मान्यता दी है एवं जिनमन्दिर और जिनप्रतिमा आदि के विषय में ऐतिहासिक शिलालेखों आदि अवशेष विशेषों के सत्य होते हुए भी प्राचार्य ने अपने इतिहास में गलत एवं कल्पित जो बातें लिखी हैं, इन बातों का मालवणियाजी को अगर थोड़ा सा भी पता होता तो प्राचार्य द्वारा लिखित अप्रमाणिक इतिहास की प्रशंसा करने का साहस वे नहीं करते / इस तथ्य को मालवणियाजी सर्वथा भूल ही गये हैं कि कोई भी स्थानकपंथी चाहे वह आचार्य पदारूढ़ क्यों न हो, जैन धर्म विषयक सत्य और प्रामाणिक इतिहास लिख ही नहीं सकता, क्योंकि जैनधर्म के इतिहास के मूल में जिनमंदिर और जिनप्रतिमा का एक अनूठा ही स्थान है, जिन से स्थानक पंथियों को दुश्मनी है / ___ अंग्रेज विद्वान डा० हर्मन जैकोबी के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी निम्न बात लिखते हैं, इससे * नये तथ्यों की संभावना अब
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________________ [ 127 ] कम ही है"-ऐसा.मालवणियाजी का लिखना कितना प्रात्मवंचक एवं भ्रामक है, इस बात की पुष्टि अपने पाप हो जाती है। अंग्रेज विद्वान डा. हर्मन जैकोबी के जैनधर्म विषयक कथनों के विषय में खंड 1, पृ० 768 पर प्राचार्य लिखते हैं कि Xxx डा० जैकोबी की धारणा के बाद 31 वर्ष के सुदीर्घ काल में इतिहास ने बहुत कुछ नई उपलिब्धयां की हैं, इसलिए भी डा० जैकोबी के कथन को अन्तिम रूप से मान लेना यथार्थ नहीं है।xxx __ मीमांसा-इसी प्रकार हमारा भी यही कहना है कि "नये तथ्यों की संभावना अब कम ही रही है"-ऐसा पंडित श्री मालवणियाजी का लिखना अनुचित एवं तथ्यहीन होने के कारण अविश्वसनीय ही है / जिनपूजनसत्कारयोः करणलालसः खल्वाद्यो देशविरति परिणामः / अर्थात्-देशविरति ( श्रावक ) धर्म का आद्य परिणाम श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा और सत्कार करने की लालसा है। यानी जिसे श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा और सत्कार करने की लालसा नहीं है, उसे पंचम गुणस्थानक स्वरूप देशविरति-श्रावकपन का प्राद्य परिणाम भी प्राप्त नहीं है। -1444 ग्रंथ के रचयिता श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज
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________________ [ प्रकरण-२८] राजा सम्पति के साथ अन्याय स्थानकपंथी संप्रदाय के कर्णधार माने जाने वाले प्राचार्य ने अपने इतिहास में जिनमन्दिर एवं जिनप्रतिमादि विषयों पर तोड़मरोड़ की प्रक्रिया प्रचुर मात्रा में की है / आश्चर्य तो इस बात का है, प्राचार्य ने नामधारी समिति द्वारा जीचाहा इतिहास बनाया है, जिसको जैनधर्म का इतिहास कहना जैनधर्म की मजाक उड़ाने के समान है। प्राचार्य का इतिहास भ्रामक एवं कपोत कल्पित तत्त्वों से परिपूर्ण है, वह उनकी गरिमा के अनुरूप नहीं है / खंड-२, पृ० 633 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx आर्यवृद्ध देव के पश्चात् आर्य प्रद्योतनसूरि गणाचार्य हुए / पटावलियों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध है कि अजमेर और स्वर्णगिरि में आपने प्रतिष्ठा करवायी थी / पर स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजी के अनुसार इतिहास के प्रकाशन में इस प्रकार के उल्लेखों की सच्चाई संदिग्ध मानी ___ मीमांसा-अजमेर और स्वर्ण गिरि में प्राचार्य श्री प्रद्योतनसूरिजी ने किसकी प्रतिष्ठा करवायी थी? जिनमूर्ति प्रतिष्ठा के इस सत्य को तो प्राचार्य ने छिपा ही लिया / कल्पसूत्र और नंदीसूत्र की प्राचीन पटटावलियों के प्रामाणिक ओर विश्वसनीय प्रमाण को छोड़कर इतिहासकार (! ) आचार्य ने अपना उल्लू सीधा करने के लिये स्वर्गीय
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________________ HEREgam श्वे. जैन तीर्थ श्री क्षत्रियकुण्ड-लछवाड (बिहार) अति प्राचीन श्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी की शैलेशीकरण अवस्था में भव्य जिन प्रतिमा (पाल कालीन)
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________________ [ 126 ] मुनि कान्तिसागरजी के वचनों का कल्पित सहारा लिया है। प्राचार्य हस्तीमलजी ने यह तो लिखा ही नहीं है कि श्री कान्तिसागरजी कब हुए ? और वे कौनसे प्रामाणिक इतिहासकार थे ? कौनसे ग्रन्थ के किस पृष्ठ पर उन्होंने ऐसा लिखा है कि-"इतिहास के प्रकाशन में इस प्रकार के उल्लेखों की सच्चाई संदिग्ध मानी गई है।" इस प्रकार के यानी कौन से प्रकार के ? श्री कान्तिसागरजी के इस विषय में कौनसी न्यायसंगत युक्ति दी है ? इन सब प्रश्नों का सत्यप्रतिज्ञ प्राचार्य को प्रमाणिक उत्तर देना चाहिए और स्वर्गीय कान्तिसागरजी ने क्या ऐसा लिखा है कि-"अजमेर और स्वर्णगिरि में प्रद्योतनसूरि ने प्रतिष्ठा नहीं करवायी है ?" इसका भी उत्तर प्राचार्य दें। बात तो यह है कि नंदीसूत्र और कल्पसूत्र की प्रामाणिक एवं प्राचीन पट्टावलियों का तथ्यपूर्ण सहारा लेना छोड़कर स्वर्गीय कान्तिसागरजी के नाम से प्रतात्विक, ऊटपटांग और इधर-उधर को किंवदन्ती स्वरूप तथ्यहीन बात का सहारा प्राचार्य ने क्यों लिया? इन सब बातों से प्राचार्य की स्वेच्छाचारिता सिद्ध होती है, अतः हमारा यही कहना है कि प्राचार्य हस्तीमलजी द्वारा रचित इतिहास सच्चाई से सर्वथा रहित ही है / पाश्चर्य तो तब होता है कि सत्य तथ्य को तोड़-मरोड़ कर विपरीत रूप से लिखने वाले खंड-१ ( पुरानी प्रावृत्ति ) पृ० 70 पर इतिहासज्ञों को हितशिक्षा देते हैं कि वस्तुस्थिति के अन्तःस्तल तक पहुँचकर सत्य का अन्वेषक बनना चाहिए / यथा 80 खेद है कि हम अपनी दृष्टि से किसी भी विषय के अन्तःस्तल तक नहीं पहुँचते और पुरानी लकीर के ही फकीर बने ____मीमांसा–प्रतिमापूजा और जिनमन्दिर आदि जैनधर्म के विषयों के अन्तःस्तल तक प्राचार्य प्रादि स्वयं क्यों नहीं पहुँचते ? वे स्वयं
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________________ [ 130 ] क्यों सत्य का पक्ष छोड़कर असत्य और झूठ का सहारा लेकर पुरानी लकीर के ही फकीर बन बैठे हैं ? सत्य के पक्षधर बनने में उनको कौन बाधा दे रहा है ? पुरानी लकीर के फकीर बनकर ही प्राचार्य ने एक विषेला सूत्र प्रचार करवाया है, यथा गुरु हस्ती के दो फरमान / सामायिक स्वाध्याय महान / / यद्यपि देखने में यह सूत्र निर्दोष लगे किन्तु इसके पीछे एकान्तवाद समाया हुआ है अतः उनका यह सूत्र गलत है। क्या सामायिक और स्वाध्याय ही महान हैं ? क्या तप, त्याग, ज्ञान-ध्यान, ब्रह्मचर्य, प्रभुभक्ति, गुरुसेवा, अहिंसा आदि धर्मकार्य महान नहीं हैं ? सच तो यह है कि फरमान करने वाले गुरु हस्तीमलजी है ही कौन ? किन्तु उनको पूछने वाला भी कौन है ? पूर्वजन्म के दीक्षादाता उपकारी गुरु प्रार्य श्री सुहस्ति महाराज को देखकर राजा संप्रति को पूर्वजन्म का स्मृतिज्ञान हो गया था। "पूर्वजन्म में गुरु ने दीक्षा देकर उपकार किया था, इसके कारण मैंने इस जन्म में राजऋद्धि पायी है" ऐसा सोचकर उपकारी गुरु के उपकार के बदले में गुरु की प्रेरणा से राजा संप्रति ने सवालाख जिन मन्दिर और सवा करोड़ जिनप्रतिमा बनवायी थीं। इस विषय में "जिन प्रतिमा मंडन" नामक सुप्रसिद्ध स्तवन में न्यायविशारद श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय लिखते हैं कि वीर पंछी बसे नेवु वरसे, संप्रति राय सुजाण / सवा लाख प्रसाद कराव्या, सवा कोड़ी बिंब स्थाप्या,
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________________ [ 131 ] हो कुमति क्यों प्रतिमा उत्थापी ? ये जिन वचम से स्थापी / जैनागम को प्रमाण करके आर्य श्री सुहस्ति महाराज ने संप्रति राजा को जैन संस्कृति के प्रचार प्रसार हेतु जिनमंदिर एवं जिनप्रतिमा बनवाने की प्रेरणा दी थी, इस सत्य की "तपागच्छ पट्टावली" नामक प्राचीन ग्रन्थ भी पुष्टि करता है / इस ग्रन्थ के आधार पर स्वयं प्राचार्य हस्तीमलजी भी खंड 2, पृ० 456 पर लिखते हैं कि 444 सम्प्रति के विषय में कतिपय जैन ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है कि उसने भारत के आर्य एवं अनार्य प्रदेशों में इतने जैन मंदिरों का निर्माण करवाया था कि वे सारे प्रदेश जिनमन्दिरों से सुशोभित हो गये। [ तपागच्छ पट्टावली ] xxx मीमांसा-'कतिपय' शब्द से प्राचार्य का क्या तात्पर्य है यह अस्पष्ट ही है / स्थानकपंथ के पाद्यप्रणेता जैन गृहस्थी लोकाशाह ने दीक्षा ली थी (?) ऐसा कहीं से अल्पविराम सा सहारा मिलने पर पूर्णविराम तक लिखने के कलाकार प्राचार्य हस्तीमलजी कतिपय ग्रन्थों का प्रामाणिक सहारा होने पर भी जिनप्रतिमा जैसे ऐतिहासिक सत्य तथ्य को क्यों नहीं मानते हैं ? वृत्ति, चरिण, भाष्य और टीकादि शास्त्र भी इस तथ्य से सहमत हैं, फिर भी प्राचार्य अप्रमाणिक वर्तन क्यों करते हैं ? क्योंकि उसी पृष्ठ पर प्राचार्य स्वयं लिखते हैं कि xxx चूणि और नियुक्तियों में यह भी सूचित किया गया है कि सम्प्रति ने प्रचुरमात्रा में जिनमूतियों को मंदिर एवं देवशालाओं में स्थापना करवा कर जैन संस्कृति और सभ्यता को स्थान-स्थान पर फैलाया था।xxx
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________________ [ 132 ] मीमांसा- उक्त कथनानुसार वृत्ति, चूणि, नियुक्ति आदि शास्त्रों का प्रामाणिक सहारा होते हुए भी एवं प्राचीन मंदिर, मूर्ति, शिलालेख आदि का तथ्य होते हुए भी प्राचार्य हस्तीमलजी सम्प्रदायवाद के व्यामोह में मूलपथ से विचलित होकर मृषावाद का प्राश्रय खंड 2, पृ० 456 पर इस प्रकार करते हैं कि xx4 जहाँ तक जैन मूर्ति-विधान एवं उपलब्ध पुरातन अवशेषों का प्रश्न है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मंदिर या मूर्तियाँ भारतवर्ष के किसी भी भाग में आजतक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। 8xx मीमांसा-अचार्य पदारूढ़ व्यक्ति का यह एक सफदे झूठ है / मूर्ति में मूर्तिमान के दशर्न करने के ज्ञान से जो अनभिज्ञ हैं एवं जो मंदिर में जाना पाप समझते हैं और अपने अनुयायियों को मन्दिर में नहीं जाने की सौगन्ध दिलाते हैं, उन्हें सम्प्रति राजा द्वारा बनवायी गयी प्रतिमा देखी ही क्या होगी ? अगर प्राचार्य निष्पक्ष होकर खोज करते तो जयपुर, आमेर, जैसलमेर, पाली आदि में ही सम्प्रति कालीन मूर्तियों के उन्हें दर्शन हो जाते। "बिना संकोच कहा जा सकता है कि संप्रति निर्मित मूर्तियाँ कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं"-बिना प्रमाण ऐसा लिखने की प्राचार्य हस्तीमलजी जब धृष्टता और बेईमानी ही करते हैं तब तो उनको यह अवश्य खोज निकालना चाहिए कि सम्प्रति द्वारा निर्मित जिनप्रतिमा के रूप में जो प्रतिमाएं हजारों वर्षों से प्रसिद्धि पाई हुई आज विधमान हैं, वे प्रतिमाएं किसके द्वारा निर्मित हैं ? प्राचार्य अगर यह कहें कि हम ऐसी खोज करने को बेकार नहीं बैठे हैं, तब तो वे झूठे इतिहासकार बन बैठे हैं, यह सिद्ध होता है।
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________________ [ 133 ] अपरंच ऐतिहासिक तथ्यों से संप्रतिराजा द्वारा निर्मित प्रतिमा का प्रामाणिक सत्य सिद्ध होते हुए भी "तुष्यतु दर्जन न्यायेन" मान भी लिया जाए कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मूर्तियां भारतवर्ष के किसी भी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं, फिर भी जैनागम, वृत्ति, नियुक्ति प्रादि शास्त्र क्या झूठे हो सकते हैं ? धर्मास्तिकाय, अर्धामस्तिकाय आदि शास्त्र कथित शूक्ष्म तत्वों को हम देख-समझ न पाएं इस से क्या शास्त्रों की प्रामाणिकता नष्ट हो सकती है ? अनंतकाय के एक शरीर में अनंतजीवों की बात शास्त्र करते हैं, तो क्या उसके विषय में भी पागम निरपेक्ष शंका कुशंका करके पालू का बड़ा, लहसुन की चटनी, और गाजर का हलुवा आदि अनन्तकाय (जमीकन्द] के भक्षण को क्या प्राचार्य एवं स्थानकपंथी उचित समझेंगे? फिर तो पागम कथित एक भी बात श्रद्धा करने योग्य नहीं रहेगी। जिनप्रतिमा के विषय में पट्टावलियां आदि शास्त्रों के उपरांत ध्वंसावशेषों का ऐतिहासिक सत्य तथ्य होते हुए भी प्राचार्य अंधेरे में ही रहना पसन्द करते हैं / वे खंड 2, पृ० 456 पर लिखते हैं कि xxx श्वेत पाषाण की कोहनी के समीप गांठ के आकार के चिन्हवाली प्रतिमाएँ जैन समाज में प्रसिद्ध रही हैं और उन सभी का सम्बन्ध राजा संप्रति से स्थापित किया जाता है। ऐसी प्रतिमाओं के अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित होने का उल्लेख किया गया है। मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्यकाल की तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकती।xxx ___ मीमांसा- श्वेतपाषाण की कोहनी के समीप गांठ के प्राकार के चिन्हवाली प्रतिमाएं “जैन समाज" में प्रसिद्ध रही हैं / " ऐसा प्राचार्य लिखते हैं तो जैनसमाज से उन्हें यहाँ क्या अभिप्रेत है ? क्योंकि
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________________ [ 134 ] श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन समाज प्रतिमा और प्रतिमापूजा में विश्वास करते हैं और स्थानकपंथी नहीं करते हैं, ऐसी दशा में प्राचार्य हस्तीमलजी के "जैन समाज" ऐसा कथनानुसार क्या स्थानकपंथी समाज स्वतः ही “जैनाभास" सिद्ध नहीं हो जाता है ? "ऐसी प्रतिमा अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित की गयी हैं" इस प्रकार का शास्त्रोक्त कथन होते हुए भी धृष्टता का अवलंबन लेकर लिखना कि-"मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्यकालिन तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकती।" किन्तु प्राचार्य का ऐसा लिखना सर्वथा कपटपूर्ण है, क्योंकि फिर ये प्रतिमाएं कौनसे काल की हैं यह तो उनको बताना ही चाहिए एवं प्राचार्य की नम्र सम्मति प्रमाणभूत आधार पर है या निराधार ? शास्त्र सापेक्ष है या निरपेक्ष ? आगमानुसार ही है या प्रागम विपरीत ? तत्त्वानुसारी है या तत्त्वविनाशक ? ये प्रश्न विचारणीय हैं / जैसे “व्याघ्री अपने बच्चे को सौम्य और अक्रूर मानती है" इसी प्रकार प्राचार्य की सम्मति अगर कल्पित मात्र है तो अकिंचित्कर है / शास्त्र में ऐसी सम्मति को मिथ्याभिमान कहा है। ऐसी अप्रमाणिक मिथ्या सम्मति इतिहास की सच्चाई में मूल्यहीन मानी गई है, क्योंकि प्रामाणिकता की कसौटी पर ऐसी मनमानी सम्मति झूठी ही ठहरती है। जिनप्रतिमा के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी का द्वेष कितना है, इस विषय में राजा सम्प्रति का एक ही दृष्टांत बहुत कुछ प्रकाश डालता है।
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________________ [ प्रकरण-२६] प्रति सुकुमाल और जिनमंदिर एक बार पूज्य आर्य श्री सुहस्ति महाराज अपने शिष्य समुदाय सहित अश्वशाला में ठहरे / स्वाध्याय के अवसर पर साधुओं के मुंह से देवलोक स्थित नलिनी गुल्म विमान का वर्णन सुनकर अवंति सुकुमाल को पूर्वजन्म का जाति स्मरण ज्ञान हो गया। उसने देवलोक के नलिनी गुल्म विमान से यहाँ मनुष्य जन्म लिया था, ऐसा जानकर उसने प्राचार्य प्रार्य सुहस्तिजी के पास चारित्र लिया और रात्रि में श्मशान में ध्यानस्थ रहा। वहां लोमड़ी और इसके बच्चों ने उपसर्गकर श्री अवंतिसुकुमाल मुनि को मरणान्त कष्ट दिया। समभाव मौर समाधि से मरण के बाद पुनः वे उसी नलिनी गुल्म विमान में उत्पन्न हुए। गुरु महाराज का उपदेश सुनकर माता और बत्तीस पत्नियों ने अपना शोक दूर किया और एक सगर्भा स्त्री को छोड़कर सभी ने वैराग्य पूर्वक चारित्र ग्रहण किया। समय पाकर सगर्भा स्त्री को पुत्र जन्म हुआ जिसका नाम महाकाल था। जिसने बड़े होकर अपने सांसारिक पिता की स्मृति में अवंति सुकुमाल मुनि के अग्निसंस्कार स्थान पर "अवंति पार्श्वनाथ" का मंदिर बनवाया। जो बाद में “महाकाल मंदिर" के नाम से महान तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज द्वारा रचित "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष" नामक इतिहास में यह भी सूचित किया है कि
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________________ [ 136 ] भगवान श्री महावीर स्वामी के निर्वाण से 250 वर्ष बाद प्राचार्य श्री आर्य सुहस्ति महाराज द्वारा प्रतिष्ठित और श्री अवंतिसुकुमाल मुनि की स्मृति में उनके पुत्र द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा "श्री अवंति पार्श्वनाथ" के नाम से आज भी उज्जैन में बिराजित हैं। कालक्रम से अन्य धर्मियों द्वारा शिवलिंग स्थापित कर इस प्रतिमा को ढक दिया था / जिसको विक्रम संवत् प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य के समय में प्रभावक प्राचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी ने कल्याण मंदिर स्तोत्र की रचना द्वारा पुनः प्रगट किया था। उनके द्वारा रचित "कल्याण मंदिर स्तोत्र" आज भी जैन समाज में अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिस स्तोत्र के पीछे “अवंति पार्श्वनाथ" की प्रतिमा का रहस्य छीपा हुआ है। __ श्री अवंति सुकुमाल के चरित्र में "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" का उल्लेख पूर्वक खंड 2, पृ० 462 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि xxx आचार्य हेमचन्द्र द्वारा परिशिष्ट पर्व में किये गये उल्लेख के अनुसार अवंति सुकुमाल के पुत्र ने अपने पिता की स्मृति में उनके मरण स्थल पर एक विशाल देवकुल का निर्माण करवाया जो आगे चलकर महाकाल के नाम से विख्यात हुआ। [परिशिष्ट पर्व, सर्ग-११] Xxx मीमांसा–प्राचीन, ज्ञानवन्त, धुरंधर विद्वान् पूज्पपाद् कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज साहब को सिर्फ प्राचार्य हेमचन्द्र इतना अबहुमान सूचक शब्द प्रयोग प्राचार्य ने किया है जिसका हमें खेद है। अपरंच “देवकुल" ऐसा क्लिष्ट और संदिग्ध प्रयोग
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________________ [ 137 ] प्राचार्य द्वारा अनावश्यक किया गया है, प्रामाणिकता पूर्वक जिनमन्दिर ऐसा लिख देते तो क्या होता? यहां जिन मन्दिर के विषय में "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" के रचयिता प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि महाराज का नाम देकर प्राचार्य ने स्वयं को मन्दिर के मामले में भैलिप्त रखना चाहा है, चूकि स्थानकपंथी भक्तगण उनसे चौंक न उठे। किन्तु मंदिर की बात पूज्यपाद हेमचन्द्राचार्य महाराज के नाम पर लिखकर भी प्राचार्य बच नहीं सकते, सत्य तो स्वीकारना ही चाहिए, क्योंकि "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" को स्वयं उन्होंने ही प्रामाणिक ग्रंथ बताया है / यथा xxx यह है आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा विरचित त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र का उल्लेख जो पिछली आठ शताब्दियों से भी अधिक समय से लोकप्रिय रहा है। [ खंड 2, पृ० 56 ] 800 मीमांसा-उक्त बातों से जिन प्रतिमा और जिन मंदिर की प्रामाणिकता सिद्ध होते हुए भी प्राचार्य अंधकार में रहना क्यों पसन्द करते हैं ? यह उनकी प्राचार्य पद की गरिमा के बिलकुल प्रतिकूल है। पिछले चार पांच सौ वर्षों में जितना भी मूर्ति का विरोध हुआ है, उसमें इस तथ्य की ओर ध्यान नहीं दिया गया कि मूर्ति-मूर्तिमान का स्मारक है, न कि जिस धातु की बनी है उसका। स्वयं के फोटो बड़े चाव से खिचवाने वाले यदि वे अपने अन्दर झाँककर एक बार देखें तो सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा। -डा० श्री हुकमचन्द भारिल्ल
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________________ [प्रकरण-३० ] पूज्य श्री देवद्धिंगणि क्षमाश्रमण भगवान श्री महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात करीब 980 वर्ष बाद वल्लभीपुर में जिन महापुरुष ने श्रमणों को इकट्ठा करके आगम वाचना करवायी थी और जैनागमों को तालपत्रों पर लिखवाकर सुरक्षित करवाया एवं हमारे तक पहुंचाया उन महोपकारी श्री देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण का जीवन कवन इस प्रकार है। देवद्धिगणि पूर्वजन्म में हरिणगमेषी देव थे। प्राकाशगामिनी विद्याधारक चारणमुनि से उसने ऐसी बात जानी कि-"वह दुर्लभ बोधि है किन्तु वे भगवान श्री महावीर देव के शासन की महासेवा जैनागमों को पुस्तकारूढ़ करवाकर करेंगे।" अपने भावि जीवन का वृत्तान्त सुनकर हरिणगमेषी देव ने ऐसी व्यवस्था की कि उसकी मौत के बाद, उसके स्थान पर आने वाला उत्तरवर्ती (अन्य ) हरिणगमेषी देव इसको बोधिलाभ की प्राप्ति करावे / नवोत्पन्न हरिणगमेषी देव ने देवद्धि को बोधिलाभ की प्राप्ति हेतु अनेकों प्रयास किये, किन्तु वह असफल रहा। शिकार खेलने का व्यसनी देवद्धि एक बार शिकार खेलते समय खड्डे में गिर गया / देव ने इसे इस प्रतिज्ञा से बचाया कि वह चारित्र ले। बाद में देवद्धि ने बोधिलाभ पूर्वक चारित्र लिया / आपके सुन्दर चारित्र के पालन से प्रभावित होकर कपर्दियक्ष, चक्रेश्वरी देवी तथा गोमुख यक्ष पापको प्रत्यक्ष थे और आपकी सेवा हेतु सदा तत्पर रहते थे। आपने
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________________ [ 136 ] वल्लभीपुर में श्रमण संघ को इकट्ठा करवाकर प्रागमिक वाचना करवायी थी और जैनागमों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य को चिर स्थायी बनाकर अपार उपकार किया था। खंड 2, पृ० 676 पर आचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि XXXआप पूर्व जन्म में हरिणगमेषी देव थे। नवोत्पन्न हरिणेगमेषी देव देवद्धि को सन्मार्ग पर लाने हेतु विभिन्न उपायों से समझाने का प्रयास करने लगा।xxx xxx उस समय सहसा देवद्धि के कानों में ये शब्द पड़े"अब भी समझ जाओ, अन्यथा तेरी मृत्यु तेरे सन्मुख खड़ी है।" भय विह्वल देवद्धि ने गिड़गिड़ाकर कहा-"जैसे भी हो सके मुझे बचाओ, तुम जैसा कहोगे वही मैं करने के लिये तैयार हूँ।xxx 888 देव ने तत्काल उसे उठाकर आचार्य लोहित्य सूरि के पास पहुँचा दिया और देवद्धि भी आचार्य लोहित्य का उपदेश सुनकर उनके पास श्रमण धर्म में दीक्षित हो गये।xxx ४४४बाद में वीर निर्वाण पश्चात् 980 साल बाद आपने बल्लभीपुर में आगम वाचना करके शास्त्र पुस्तकारूढ करवाके वर्णनातीत उपकार किया। 8xx मीमांसा-यहां तक पूज्य देवद्धि गरिण के विषय में सही सही लिखने वाले प्राचार्य ने जैसे ही शासन रक्षक देव-देवियाँ एवं यक्ष आदि की बात आयी कि वहां उन्होंने झूठ का सहारा ले लिया। खंड 2, 10 677 पर प्राचार्य लिखते हैं कि 888 श्रद्धालुओं द्वारा परम्परा से यह मान्यता अभिव्यक्त वडा Veer in की जा रही है कि आपके तप-संयम की विशिष्ट साधना एवं आराधना से
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________________ [ 140 ] कपदियक्ष, चक्रेश्वरी देवी तथा गोमुख यक्ष आपकी सेवा में उपस्थित रहते थे। 888 मीमांसा-मापने दिल में रहा हुआ पाप प्राचार्य ने "श्रद्धालुओं द्वारा परम्परा से यह मान्यता अभिव्यक्त की जा रही है"इन शब्दों में प्रकाशित किया है, क्योंकि यहां श्रद्धालु और परम्परा जैसे घटिया शब्दों की आवश्यकता ही क्या थी ? प्राचार्य ने यहां श्रद्धालुओं' शब्द का तात्पर्यार्थ नहीं लिखा है किन्तु प्राचार्य का तात्पर्य ऐसे लोगों से हो सकता है जो कि किंवदन्ती या अंधश्रद्धा में विश्वास रखते हों, परन्तु "श्रद्धालुओं" ऐसा शब्द लिखना अनुचित इसलिये है कि तो क्या प्राचार्य स्वयं 'प्रश्रद्धालु' हैं ? तथा 'परम्परा से' ऐसा लिखने के पीछे प्राचार्य की जघन्य भावना यह रही होगी कि परम्परा से यानी रूढ़ि से यानी गतानुगतिकता से श्रद्धालुभक्त ऐसी भावना व्यक्त करते हैं यानी स्वयं प्राचार्य का इसमें अविश्वास है। प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य में कहा है साथ साथ प्राचार्य ने खंड 2, पृ० 676 पर लिखा है, किन्तु यहां परम्परा से' एवं 'श्रद्धालभक्त' ये दो शब्द लिखना उनका अनुचित ही है। पूज्य देवद्धि गणि की सेवा में कपर्दियक्ष, चक्रेश्वरी देवी तथा गौमुखयक्ष रहते थे, तो इस बात में प्राचार्य को क्या नाराजी है ? "देवा वि तं नमसंति" इस प्रागम वचनानुसार संयमी पुरुषों को देव नमस्कार करते हैं यह सत्य तथ्य होते हुए भी 'परम्परा से" "श्रद्धालु" आदि शब्दों के लिखने की आवश्यकता ही क्या है ? प्रागमिक तथ्य होते हुए भी देव-देवियों के तथ्य का प्राचार्य अपलाप क्यों करते हैं ?
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________________ [ 141 ] इतने महान उपकारक मागम-संरक्षक श्री देवद्धिगणि महाराज के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी प्रशंसा के दो शब्द तो न लिख सके किन्तु उपकार का बदला 'परम्परा' और 'श्रद्धालु' जैसे घटिया शब्द लिखकर अपकार से चुकाया है, जिसका हमें खेद है / जिसके दिल में सूत्राभ्यास द्वारा सद्बोध का प्रादुर्भाव होता है, उसके दिल में ही पागम सूत्र की तात्त्विक स्पर्शना होती है। -न्यायविशारद पूज्य यशोविजयजी उपाध्यायजी
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________________ [प्रकरण-३] मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई इतिहास की सत्यता के लिये हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथ की तरह प्राचीन शिलालेख, सिक्के, मूर्तियाँ, ताम्रपत्र, ध्वंसावशेष एवं पट्टे आदि को भी प्रामाणिक सामग्री माना गया है / ___जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने के लिये एवं प्रागम शास्त्रों की सच्चाई को सिद्ध करने वाली जमीन में से निकाली हुई प्राचीन जिन प्रतिमा और प्रतिमा की चौकियों पर लिखे हुए लेख प्रामाणिक पुरावा (सबूद) है / तक्षशिला के पास 'मोहन-जो-दरो' में प्राचीन जिन प्रतिमा निकली है / उड़ीसा में उदयगिरि तथा खंडगिरि पर्वत पर खुदाई करने से जिनमूर्तियां आदि मिली हैं। ऐसे तो सैंकड़ों उदाहरण हैं, जहाँ जमीन में से प्राचीन जिन प्रतिमा आदि मिली हों। इन सबसे जिन मंदिर, जिन प्रतिमा एवं प्रतिमा पूजा प्राचीन काल में भी थी इस तथ्य पर विशद् प्रकाश पड़ता है। प्रागमशास्त्र और प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चणि, भाष्य और टीकादि भी जिन मंदिर, जिन प्रतिमा एवं जिन पूजा के तथ्यों के समर्थक रहे हैं। ऐसी दशा में अगर स्थानकपंथी स्वयं को प्रामाणिक करते हैं तो उन्हें उक्त सत्य को स्वीकार करना ही चाहिए। मथुरा के कंकाली नामक एक प्राचीन टीले की खुदाई भारत सरकार द्वारा करने पर सैंकड़ों प्राचीन मूर्तियाँ, सिक्के, चरण पादुकाएं,
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________________ [ 143 ] पबासन एवं एक स्तूप आदि मिले हैं, उनमें करीब 110 की संख्या में प्राचीन शिलालेख और अनेक मूर्तियां एवं श्री सुपार्श्वनाथ का प्राचीन स्तूप जैनों से सम्बन्धित हैं ऐसा इतिहासज्ञों का निश्चयात्मक रूप से कहना है / इन मूर्तियों के शिलालेखों में मौर्यकाल, गुप्तकाल और कुशागवंशी राजाओं का समय 2000 या 2200 वर्ष पूर्व का कहा जा सकता है / अतः इन अवशेषों को भी इतना ही प्राचीन कहना चाहिए / हमारे जैन पूर्वाचार्यों ने उपकार करके इन राजामों को जैनधर्म प्रेमी बनाया था और जैन शासनोन्नति हेतु इनसे जैन मंदिर बनवाकर श्री अरिहंत, सिद्ध प्रादि की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवायी थीं। इन सब तथ्यों से इतना तो अवश्य स्पष्ट होता ही है कि नय दृष्टि का अभ्यासी एक तटस्थ व्यक्ति कभी भी जिनप्रतिमादि विषयों का विरोध या अनादर नहीं कर सकता है। "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" खंड 2, टिप्पणी पृ० 32 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि xxx मथुरा के कंकाली टोले की खुदाई का कार्य सर्व प्रथम ई० सन् 1871 में जनरल कनिंघम के तत्त्वावधान में, दूसरी बार सन् 1888 से 1891 में डा० फ्यूरर के तत्त्वावधान में तथा तीसरी बार पं० राधाकृष्ण के तत्त्वावधान में करवाया गया। इन तीनों खुदाईयों में जैन इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण विपुल सामग्री उपलब्ध हुई। वह सामग्री आज से 1891 से लेकर 1798 वर्ष तक की प्राचीन एवं प्रामाणिक होने के कारण बड़ी विश्वसनीय है। Xxx - मीमांसा-ये सामग्री "इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है" ऐसा प्राचार्य का लिखना धोखा मात्र ही है / क्योंकि इन खुदाई में से निकले जिनप्रतिमादि प्राचीन अवशेष सिर्फ इतिहास की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है, किन्तु प्रात्मा में भरे पड़े मिथ्यात्व अंधकार को दूर
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________________ [ 144 ] करने और सत्य का प्रकाश करने की दृष्टि से भी बड़ी महत्वपूर्ण है, इस तथ्य को प्राचार्य क्यों भूल जाते हैं ? तथा “यह सामग्री प्राचीन एवं प्रामाणिक होने के कारण बड़ी विश्वसनीय है।" ऐसा लिखने में भी वे कपट ही कर रहे हैं क्योंकि आगम एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूर्णि, भाष्य एवं टीकादि ग्रन्थ जिनप्रतिमापूजा की पुष्टि करते हैं और ध्वंसावशेष से इस तथ्य की सत्यता में चार चांद लग गये हैं, फिर भी स्थानकपंथी और प्राचार्य हस्तीमलजी इस तथ्य की ओर आँखें बन्द कर बैठे हुए हैं सत्य कहा है कि उल्लू को प्रकाश भी बुरा लगता है / जैन इतिहास की सत्यता का सुन्दरतम वर्णन तो एक अभव्य व्यक्ति भी कर सकता है किन्तु सच्ची श्रद्धा पूर्वक अपने दिल में सत्य की स्थापना नहीं करने के कारण उनकी ऐसी सत्य प्ररूपणा की कीमत फटी कौड़ी की भी नहीं रह जाती है, क्या इस तथ्य से प्राचार्य अनभिज्ञ नहीं हैं ? इतिहास लेखन द्वारा सत्य गवेषणा करके जिनप्रतिमा और जिनमंदिरादि का सत्य तथ्य यदि आचार्य अपने दिल में श्रद्धा और भक्ति पूर्वक स्थापन नहीं करेंगे तो उनका इतिहास का लेखन उनके लिये आत्मवंचना ही होगा, क्योंकि प्रश्रद्धा पूर्वक की गई सब सत् चेष्टाएँ भी जैनागमों में संसार वर्धक ही मानी गई हैं। कंकाली टीले में से निकले हुए प्राचीन अवशेषों से प्राचार्य हस्तीमलजी ने कल्पसूत्र एवं नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों को प्रामाणिक और विश्वसनीय सिद्ध किया है, किन्तु मूर्तिमान्यता के विषय में एक शब्द भी लिखना उन्हें अभिष्ट नहीं है, जिसका हमें खेद है / एक प्राचार्य पदारूढ़ इतिहासकार प्रामाणिकता और तटस्थता की प्रतिज्ञा करने पर भी इतनी धृष्टता करे क्या यह खेद की बात नहीं है ? खंड 2, पृ० 32 पर टिप्पणी नोंध में प्राचार्य की कपट वचन रचना इस प्रकार है
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________________ Proeante विश्ववंद्य भगवान श्री महावीर स्वामी कंकाल टोला, मथुरा से प्राप्त ईसा की 1-2 शताब्दी वर्तमान में मथुरा म्यूजियम में है।
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________________ [ 145 ] xxx मथुरा के कंकाली टोले की खुदाई से निकले ई० सन् 83 से 176 तक के आयोग पट्टों, ध्वजस्तम्भों, तोरणों, हरिणगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, सर्वतोभद्र प्रतिमाओं, प्रतिमा पट्टों एवं “मूर्तियों की चौकियों" पर उकित शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वस्तुतः ये दोनों स्थविरावलियां अति प्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी हैं। 80x मीमांसा–प्राचार्य का हरिणेगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती को मूर्ति ऐसा लिखने के बाद “मूर्तियों की चौकियों" ऐसा लिखना मायाचार ही है, क्योंकि परिशेष न्याय से "मूर्तियों की चौकियों" का अर्थ तो 'तीर्थकर भगवान की मूर्तियों की चौकियों" ही होता है, जो छलकपट पूर्वक न लिखकर प्राचार्य ने पक्षपातपूर्ण वर्तन किया है। फिर खंड 2, पृ० 36 पर टिप्पणी नोंध में 4 हमारी चेष्टा पक्षपात विहीन एवं केवल यह रही है कि वस्तुस्थिति प्रकाश में लायी जार XXX मीमांसा-ऐसा लिखना धोखेबाजी ही है। क्योंकि हरिणैगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति प्रादि लिखना और तीर्थंकर की मूर्ति लिखने का जहाँ अवसर प्राया वहां "तीर्थंकर भगवान की मूर्तियों की चौकियाँ" ऐसा न लिखकर सिर्फ "मूर्तियों की चौकियाँ" ऐसा लिखना क्या अनूठा मिथ्याचार नहीं है ? / __भगवान का गर्भापहार बालक वर्धमान द्वारा सुमेरु कम्पन आदि के विषय में अन्यों को सत्य वस्तुस्थिति समझाने का प्रयास प्राचार्य ने किया है, ऐसा प्रयास जिन प्रतिमा के विषय में क्यों नहीं किया ? श्री महावीर स्वामी के विषय में 'मांसभक्षण' का भ्रम दूर करने हेतु प्राचार्य ने आगम, प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकादि तथा कोष एवं व्याकरण द्वारा स्पष्टीकरण किया है / वैसा ही प्रयास आगमशास्त्र, प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य,
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________________ [ 146 ] प्रागमों पर रचित वृत्ति, चूणि, भाष्य टोकादि साहित्य एवं व्याकरण पौर शब्दकोष तथा प्राचीन प्रतिमा पर उट्ट कित शिलालेखों आदि सामग्री आदि का सहारा लेकर जिनप्रतिमा, जिनमंदिर और जिनपूजा आदि विषयों में गवेषणा और तथ्य का अन्वेषण करना अत्यन्त पावश्यक था जिस पर प्राचार्य ने पर्दा ही डाल दिया, इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचार्य को अंधकार ही पसन्द है / प्राचार्य का जैनधर्म विषयक मूर्तियों की चौकियों पर उकित लेखों से श्रीनन्दीसूत्र और श्री कल्पसूत्र की स्थविरावलियों को प्रमाणित करना और स्वयं मूर्तियों को प्रमाणित नहीं करना यह अर्धजरतीय न्याय सर्वथा अनुचित ही माना जाएगा। निक्खमण नाण निव्वाण, जम्म भूमीउ वंदई जिणाणं // -जिस भूमि से तीर्थकर भगवान ने जन्म लिया हो, दीक्षा ली हो, केवलज्ञान पाया हो एवं निर्वाण ( मोक्ष ) प्राप्त किया हो, उस पवित्र कल्याणक भूमि की ( जैनियों को ) वंदना-स्पर्शना करनी चाहिए। -प्रागमेतर जैन साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ श्री उपदेशमाला [श्लोक-२३६]
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________________ [प्रकरण-३२ ] भक्तामर प्रौर कल्याणमंदिर स्तोत्र पूज्य सिद्धसेन सूरिज़ी ने आगमिक शास्त्रों को प्राकृत भाषा में से विद्वद्भोग्य संस्कृत भाषा में करने के विचार मात्र को गुरु के आगे वाणी द्वारा प्रगट करने पर गुरु ने उन्हें पारांचित प्रायश्चित दिया था। क्योंकि सर्वज्ञ वचनों पर एवं सर्वज्ञों की एक भी क्रिया पर प्रश्रद्धा प्रगट करना महा अपराध है / सर्वज्ञों ने प्राकृत भाषा में जो वाणी कही है वह पाबाल गोपाल के हित के लिये ही कही है, फिर भी उस वाणी को पंडित भोग्य संस्कृत भाषा में परिवर्तन करने का स्वतन्त्र, जिनाज्ञानिरपेक्ष विचार मात्र प्रगट करने पर धुरंधर विद्वान श्री सिद्धसेनसूरि दिवाकर को पारांचित प्रायश्चित गुरु ने दिया था। इस प्रायश्चित में बारह साल तक वेष छिपाकर रहना होता है और अपने ज्ञानादि गुणों से किसी राजा आदि को जैनधर्म में प्रतिबोध करने पर इसकी समाप्ति होती है। पारांचित प्रायश्चित वहन करने के काल में पूज्य सिद्धसेनसूरिजी ने राजा विक्रम को प्रतिबोधित किया था। इस विषय में कथानक इस प्रकार है। गुप्तवेष में पारांचित प्रायश्चित वहन करते करते सूरिजी एक बार शिवमन्दिर में ठहरे / पुजारी के निषेध करमे पर भी प्राचार्य श्री सिद्धसेनजी शिवलिंग के सामने पैर करके सो गये। राजा विक्रम
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________________ [ 148 ] को बुलाया गया। उस समय श्री सिद्धसेनसूरिजी शिवलिंग के सामने पैर किये ही भगवान की स्तुति बोलने लगे / वे कुछ ही श्लोक बोल पाये थे कि शिवलिंग फटा और उसमें से अद्भुत तेज के साथ श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा प्रगट हुई थी। जिससे राजा विक्रम भी पूज्य सूरिजी की अपार विद्वत्ता से प्रभावित होकर जैनधर्मी बन गया था। भगवान की स्तुति स्वरूप इस स्तोत्र का नाम “कल्याण मन्दिर स्तोत्र" है / जो आज भी जैन समाज में सुप्रसिद्ध है। पागम एवं प्रागमेतर प्राचीन शास्त्र लिखित बातों को आमूलचूल बदलने पर भी ये बातें अाधुनिक चिंतकों के मन में भायेंगी या नहीं यह विचारणीय प्रश्न है, फिर भी आचार्य हस्तीमलजी जैनागमों की बातों को बदलने के समर्थक रहे हैं, क्योंकि खंड 2, पृ० 38-36 प्राक्कथन में वे लिखते हैं कि 444 इस प्रकार बहुत सी चमत्कारिक रूप से चित्रित घटनाओं को भी इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किया गया है। मध्ययुगीन अनेक विद्वान ग्रन्थकारों ने सिद्धसेन प्रभृति कतिपय प्रभावक आचार्यों के जीवन चरित्र का आलेखन करते हुए उनके जीवन की कुछ ऐसी चमत्कार पूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है, जिन पर आज के युग के अधिकांश चिंतक किसी भी दशा में विश्वास करने को उद्यत नहीं होते।xxx __ मीमांसा–प्राधुनिक चिंतकों के पक्षधर बनकर प्राचार्य हस्तीमलजी ने पूर्वाचार्यों को जो कि पंचमहाव्रत धारी और सत्य प्रतिज्ञ थे उनको झूठा करने की बगावत की है और आधुनिक चिन्तकों की तुष्टिकरण के लिये सुधारवादी विषेला दृष्टिकोण अपनाया है, फिर भी खंड 2, पृ० 26 प्राक्कथन में प्राचार्य लिखते हैं कि
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________________ [ 146 ] xxx यदि प्रत्येक जिन शासनानुयायी में इस प्रकार की जागरूकता उत्पन्न हो जाए तो आज जैनागमों के सम्बन्ध में तथाकथित सुधारवादियों द्वारा जो विषेला प्रचार किया जा रहा है, उसके कुप्रभाव और कुप्रवाह को रोका जा सकता है। Xxx मीमांसा हमारा भी यही कहना है कि तथा कथित सुधारवादी प्राचार्य स्वयं ही हैं, जिन्होंने नामधारी समिति रचकर, स्थानकपंथी स्वमान्यतानुसार "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" लिखकर जैन धर्म के इतिहास के नाम पर काला कलंक लगाया है और जैन समाज में भ्रम एवं विघटन फैलाने का असद् कार्य किया है / उसके कुप्रभाव और कुप्रवाह को रोकने हेतु ही गुरुकृपा से हमने यह मीमांसा रचकर जागरूकता दिखाने का प्रयत्न किया है / जैनागमों, आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य, पूर्वाचार्यों के कथनों और जैनधर्म बिषयक प्राप्त प्राचीन शिलालेखों, मूर्तियों प्रादि ध्वंसावशेष पर जिनको विश्वास हो उन जिन शासनानुयायियों से हमारा निवेदन है कि वे तथाकथित सुधारवादियों की प्रवृत्ति से सतर्क रहें। स्थानकपंथ के कर्णधार प्राचार्य हस्तीमलजी ने पट्टावली प्रबन्ध संग्रह. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, सैद्धान्तिक प्रश्नोत्तरी, जैन प्राचार्य चरितावली आदि किताबें लिखकर स्वार्थवश या और भी किसी कारणवश जैन समाज में द्वेष विष फैलाया है। हमने इस विषय में यत् किंचित् प्रयास किया है, लेकिन इस विषय में शास्त्रमर्मज्ञों को अधिक प्रयास करना चाहिए / अन्यथा ऐसे कल्पित इतिहास आदि विषैले साहित्य का प्रचार रुकना असंभव ही है। "सुधारवादी प्राधुनिक चिंतकों को नहीं जचे" इसका बहाना बाजी कर प्राचार्य कह रहे हैं कि श्री सिद्धसेन सूरिजी आदि का चरित्र हमने इस इतिहास में नहीं दिया है, किन्तु यह सर्वथा गलत है, इसका
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________________ [ 150 ] मुख्य कारण जिन प्रतिमा विरोष ही है अन्यथा श्री मानतुगसूरिजी के विषय में भी श्री सिद्धसेनसूरिजी के सदृश ही चमत्कारिक घटना घटी है, जिसका वर्णन खंड 2, पृ. 646 पर प्राचार्य स्वयं ने अपनी ओर से ही किया है। यथा Xxx कमरों के द्वार स्वतः ही खुल गये, आचार्य मानतुग के सभी बंधन कट गये।xxx मैं उनके द्वारा निर्मित भक्तामर स्तोत्र आज भी जैन समाज में बड़ी ही श्रद्धा-भक्ति के साथ घर-घर में गाया जाता है। आचार्य श्री मानतुग सूरिजी को 44 कमरों में 44 बेड़ियों से जकड़ कर बन्द करना और एक एक श्लोक के प्रभाव से एक एक बेड़ी का टूटना और कमरे के द्वार स्वतः ही खुल जाना क्या इसको चमत्कारिक घटना नहीं कह सकते ? क्या तथाकथित आधुनिक चिंतक इस पर विश्वास करेंगे ? प्राचार्य का छल कपट तो देखो कि श्री आदिनाथ भगवान के भक्तामर स्तोत्र के विषय में श्री मानतुंगसूरिजी की चमत्कार पूर्ण घटना का अपनी ही ओर से उल्लेख करते हैं, जब कि श्री पार्श्वनाथ भगवान के "कल्याण मंदिर स्तोत्र" के विषय में श्री सिद्धसेनसूरिजी की चमस्कार पूर्ण घटना में-शिवलिंग फटना और पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा निकलना, यह बात खंड 2, पृ० 528 पर प्राचार्य ने कतिपय कथाग्रन्थों के नाम से लिखकर अप्रमाणिकता की है / यथा 444 राजा द्वारा बारबार आग्रह किये जाने पर सिद्धसेन ने महादेव के सच्चे स्वरूप की स्तुति प्रारम्भ की। कतिपय कथाग्रन्थों में बताया गया है कि सिद्धसेन, स्तुति के कुछ ही श्लोक का उच्चारण कर पाये थे कि अद्भुत तेज के साथ वहां भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हो गई।
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________________ [ 151 ] राजा विक्रमादित्य अचिन्त्य आत्म शक्ति के अनेक चमत्कारों को देखकर सिद्धसेन के परम भक्त बन गये।xxx मीमांसा–प्राचार्य एक ओर लिखते हैं कि अचिन्त्य प्रात्मशक्ति के चमत्कार ऐसे होते हैं, किन्तु प्रतिमा द्वेष के कारण दूसरी ओर वे लिखते हैं कि आधुनिक चिंतक इस पर विश्वास नहीं करते हैं / लगता है मन के अनिश्चित एवं चल विचलित परिणाम के कारण ही ऐसी परस्पर विरोध पूर्ण बातें प्राचार्य ने लिखी हैं। सच ही कहा है"विवेक भ्रष्ट का पतन अनेकशः होता है।" पापभीरु एक सामान्य जन भूल से भी झूठ बोलने से कांपता है, मगर भाचार्य होकर भी जानबूझ कर झूठ बोले तो उनकी दीक्षा निरर्थक है। -प्रागमैतर सबसे प्राचीन ग्रन्थ उपदेशमाला [ श्लोक-५०८ ]
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________________ [ प्रकरण-३३ ] जैन धर्म में मूर्तिपूजा और प्राचीन शिलालेख जिनागम और जिनप्रतिमा-मंदिर ये दो ही श्रेष्ठ साधन जैनधर्म की संस्कृति के प्रचार प्रसार के आधार रहे हैं। इन दोनों श्रेष्ठ मार्गों से ही पूर्वाचार्यों ने जैनधर्म की संस्कृति को आजतक टिकाया है / भूमि की खुदाई द्वारा मिले प्राचीन ध्वंसावशेष मूर्तियां और शिलालेखों ने जैनागम और पागमेतर प्राचीन जैन शास्त्रों कथित जिन मन्दिर और प्रतिमापूजा के सत्य तथ्य को चार चांद लगा दिये हैं / निष्पक्ष इतिहासकार और पुरातत्त्वविद् इन ऐतिहासिक तथ्यों से पूर्णतः सहमत हैं कि जिनमूर्तियां, पादुका एवं स्तूपादि भगवान महावीर से भी बहुत पहिले पूजे जाते थे। __ मथुरा के कंकाली टीले में से मिले प्राचीन ध्वंसावशेष से यह तथ्य भली भांति सिद्ध हो चुका है कि महान सम्राट अशोक (अपरनाम सम्प्रति), बिन्दुसार और चन्द्रगुप्त आदि राजा भी जिनप्रतिमा प्रादि में विश्वास करते थे। खंड 2, पृ० 451 पर प्राचार्य लिखते हैं कि ..... . ................... जिन शिलालेखों को आजतक अशोक के शिलालेखों के नाम से बौद्धधर्म से सम्बन्धित शिलालेख समझा जाता रहा था,
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________________ [ 153 ] उनमें कतिपय शिलालेख सम्प्रति, बिन्दुसार और चन्द्रगुप्त के एवं जैनधर्म से सम्बन्धित भी हैं। मीमांसा-ध्वंसावशेष के रूप में मिले प्राचीन शिलालेखों, जिनमूर्तियां और जिनमूर्ति पर उट्ट कित शिलालेखों से इस तथ्य की भलीभांति पुष्टि होती है कि पूर्वाचार्यों ने इन राजा महाराजाओं को प्रतिबोध करके जैन संस्कृति के प्रचार प्रसार हेतु आगम कथित मार्ग से जिनमन्दिरों का निर्माण करवाया था एवं उनमें तीर्थंकर परमात्मा की मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवायी थी तथा इनके द्वारा जैनधर्म को लोकहृदय में आजतक सुरक्षित रखा है। जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर के विरोध के कारण ही ध्वंसावशेष के विषय में प्राचार्य अपनी कलम चोरी-चोरी चला रहे हैं, उनकी सावधानी का यही कारण है कि कहीं उनके हाथों प्रतिमा की सत्यता जाहिर न होने पाये। किन्तु एक सच्चा इतिहासकार सच्चे तथ्यों पर कभी भी अभिनिवेश या दुराग्रह नहीं रख सकता। जैनागम तथा प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य एवं ऐतिहासिक शिलालेखों आदि के तथ्य होते हुए भी मूर्तिपूजा जैसे विषय को विवादास्पद बनाकर इनके ऐतिहासिक तथ्यों से इन्कार करना सूर्य के प्रकाश को हाथ से रोकने सदृश बालिश प्रयास मात्र है और अपने अनुगामियों को गलत और अप्रमाणिक मार्ग पर भटकाये रखने का घृणास्पद कृत्य भी है। जिनप्रतिमा और जिनमन्दिर के विषय में पूर्वग्रह प्रसित मानस के कारण खंड 2, प० 451 पर प्राचार्य कैसी अस्पष्ट, गोल-मोल एवं हास्यास्पद बात लिखते हैं कि xxx सिंह का सम्बन्ध बुद्ध के साथ उतना संगत नहीं बैठता जितना कि भगवान महावीर के साथ / भगवान महावीर का चिन्ह ( लांछन ) सिंह था और केवलज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् भगवान महावीर के साथ-साथ
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________________ [ 154 ] सिंह का चिन्ह भी चतुर्मुखी दृष्टिगोचर होने लगा था। सिंहचतुष्टय पर धर्मचक्र इस बात का प्रतीक है कि जिस समय तीर्थकर विहार करते हैं, उस समय धर्मचक्र नभमण्डल में उनके आगे आगे चलता है / इस प्रकार के अनेक गहन तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है / 8xx मीमांसा–प्राचार्य हस्तीमलजी ने उक्त बात बौद्धधर्मचक्र पौर चतुर्मुख सिंहाकृति वाले सारनाथ का स्तम्भ के विषय में कही है। किन्तुं समवसरण में भगवान का चतुर्मुखी दिखना और तीनों प्रोर देवों द्वारा भगवान के शरीर प्रमाण-प्रतिकृति यानी प्रतिमा की स्थापना करना आदि विषय में स्वमान्यता विरोध के कारण विशद स्पष्टीकरण वे नहीं करपाये हैं जो खेद का विषय है / "इस प्रकार के अनेक गहन तथ्य हैं, जिनके सम्बन्ध में गहन शोध की आवश्यकता है" प्राचार्य का ऐसा लिखना अनुचित है क्योंकि घोर परिश्रमी (!) और वस्तु के अन्तःस्तल तक पहुंचने की प्रज्ञाधारक (! ) प्राचार्य स्वयं इस प्रकार के तथ्यों पर गहन शोध क्यों नहीं करते हैं ? प्रागमसूत्रों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य में भी जिनमन्दिर, मूर्तिपूजा का वर्णन पाता है / पुरातन अवशेष विशेष भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं / आबू, राणकपुर, गिरनारजी. शत्रुजय, कदम्बगिरि, सम्मेतशिखरजी, पावापुरी, राजगिरि, केसरियाजी, तारंगाजी आदि तीर्थों पर पूर्वाचार्यों के प्रागमानुसारी कथन पर ही जिनेश्वर भगवान के भक्तों ने विशाल जिन मंदिर बनवाये हैं और मंदिर में जिन मूर्तियों की उन प्राचार्यों द्वारा प्रतिष्ठा करवा कर वे जैन श्रावकों जिन मूर्ति से मूर्तिमान अरिहंत का वंदन-पूजन-सत्कार-सम्मान कर कृतार्थ हो रहे हैं / एकान्तवादी दृष्टि के कारण ही खंड 1, पृ० 423 पर प्राचार्य विशाल जिन मन्दिरों को मात्र कलाकृति के ही प्रतीक कहते हैं, जो अन्यायपूर्ण है / यथा
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________________ [ 155 ] xxx भगवान पार्श्वनाथ की भक्ति से ओत-प्रोत अनेक महात्माओं एवं विद्वानों द्वारा रचित प्रभु पार्श्वनाथ की महिमा से पूर्ण कई महाकाव्य, काव्य, चरित्र, अगणित स्तोत्र और देश के विभिन्न भागों में "भव्य कलाकृतियों के प्रतीक" विशाल मंदिरों का बाहुल्य, ये सब इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि भगवान पार्श्वनाथ के प्रति धर्मनिष्ठ मानव समाज पीढ़ियों से कृतज्ञ और श्रद्धावनत है। मीमांसा-विशाल जिन मन्दिरों को मात्र भव्यकला कृतियों के प्रतीक कहना प्राचार्य की बहुत गहरी गलती है। ये मंदिर भगवान को प्रतिदिन वंदन-पूजन-सत्कार-सन्मान करके उनके प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा का भाव प्रगट करने हेतु हैं / मन्दिरों को "भव्य कलाकृतियों के प्रतीक" कहने की अपनी धुन में प्राचार्य यह भूल गये कि फिर तो पूर्वाचार्यों द्वारा रचित स्तोत्र, भजन, स्तवन, चरित्रग्रन्थों आदि भव्य रचनात्रों को भी वाणीविलास या काव्य विनोद हेतु ही पूर्वाचार्यों ने रचा है, ऐसा अनुचित मानने की भी प्रापत्ति आजायगी। जिनमन्दिर और स्तोत्र मादि साहित्य तीर्थकर परमात्मा की भक्ति, उपकारी के उपकार के बदले में कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु और श्रद्धा तथा ज्ञान प्राप्ति हेतु एवं जिनेश्वर देव को नित्य वंदन, पूजन, सत्कार सम्मान हेतु है, यह बात प्राचार्य को भूलना नहीं चाहिए। प्रभु पार्श्वनाथ की भक्ति के विषय में प्राचार्य खंड 1, पृ० 523 पर लिखते हैं कि xxxजैन साहित्य के अन्तर्गत स्तुति-स्तोत्र और मंत्रपदों से भी ज्ञात होता है कि वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थंकरों में से भगवान् पार्श्वनाथ की स्तुति के रूप में जितने मंत्र या स्तोत्र उपलब्ध हैं, उतने अन्य के नहीं हैं।xxx ___मीमांसा-पार्श्वनाथ भगवान के जितने स्तोत्र हैं, उतने ही जिनमन्दिर हैं, यह किसी को भूलना नहीं चाहिए। श्री पार्श्वनाथ
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________________ [ 156 ] भगवान को कल्पसूत्र प्रादि शास्त्रों में पुरुषादानीय कहा है। प्राचीन स्तोत्रों में आपके 108 नाम प्रसिद्ध हैं / इन नामों से सम्बन्धित विशाल तीर्थ आज भी मौजूद हैं और भविक लोग उन तीर्थों की यात्रा करके पावन होते हैं। चिंतामणि पार्श्वनाथजी, अंतरिक्ष पार्श्वनाथजी, अवंति पार्श्वनाथजी, शंखेश्वर पार्श्वनाथजी, जिरावला पार्श्वनाथजी वरकाणा पार्श्वनाथजी, नवखंडा पार्श्वनाथजी, नाकोडा पार्श्वनाथजी, सम्मेतशिखर पर श्री शामलिया पार्श्वनाथजी, पंचासरा पार्श्वनाथजी आदि अनेक नामों से भगवान श्री पार्श्वनाथजी अनेक तीर्थों में पूजे जाते हैं / इन सब तथ्यों को इतिहास लेखक प्राचार्य जानें और माने तथा सत्य को प्रात्मसात् करें, यही हमारी शुभेच्छा है / अगर मूर्तिपूजा को मैं बहुत प्राचीन और परमोपयोगी मानता हूं। जैनधर्म को अब तक इस रूप में टिकाये रखने का प्रमुख श्रेय मैं मूर्तिपूजा को देता हूं। -श्री अगरचन्दजी नाहटा, इतिहासवेत्ता एवं पुरातत्त्वविद्
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________________ [प्रकरण-३४] स्थानकपंथी समाज में इतिहास को कमी आगम शास्त्र, प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य भाष्य, वृत्ति, चूणि, टीकादि रूप प्रागमिक सामग्री एवं जमीन में से निकले प्राचीन अवशेष विशेष रूप ऐतिहासिक तथ्यों से यह सर्वथा सत्य सिद्ध हो गया है कि जिन मूर्तियां, चरण पादुका एवं स्तूपादि भगवान महावीर से भी बहुत पहले पूजे जाते थे। जिन मंदिर एवं जिन प्रतिमा विषयक इसी प्रकार प्राचीन प्रामाणिक आधार होते हुए भी प्राचार्य हस्तीमलजी ने कैसा कल्पित, गलत एवं अप्रमाणिक इतिहास लिखा है इसकी मीमांसा पिछले 33 प्रकरणों में हम कर आये हैं / एक माने हुए जैनाचार्य ने पंथमोह में फंसकर अप्रमाणिकता और झूठ का सहारा लेकर जैनधर्म के इतिहास को कलंकित किया है और प्राचार्य पद की गरिमा को कालिमा लगायी है। फिर भी उल्टा चोर कोटवाल को डांटे इस भांति खंड 1 ( पुरानी प्रावृत्ति) अपनी बात पृ० 25 पर प्राचार्य लिखते हैं कि xxx जैन इतिहास के इस प्रकार के प्रामाणिक आधार होने पर भी आधुनिक विद्वान इसको बिना देखे जैनधर्म और तीर्थंकरों के विषय में धान्तिपूर्ण लेख लिख डालते हैं, यह आश्चर्य एवं खेद की बात है। इतिहासज्ञ
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________________ [ 158 ] को प्रामाणिक ग्रन्थों का अध्ययन कर जिस धर्म या सम्प्रदाय के विषय में लिखना हो प्रामाणिकता से लिखना चाहिए / साम्प्रदायिक अभिनिवेश या बिना पूरे अध्ययन मनन के सुनी सुनाई बात पर लिख डालना उचित नहीं।४४४ .. मीमांसा-यही बात हमें प्राचार्य के लिये ही कहनी है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों जैन सम्प्रदाय मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं, फिर मूर्तिपूजा के विषय में प्राचार्य ने विरुद्ध क्यों लिखा ? आगमग्रन्थों, पागमेतर प्राचीन जैन साहित्य एवं ऐतिहासिक शिलालेखों आदि की प्रामाणिक सामग्री होते हुए भी विपरीत मार्ग पर चलना और अपने अनुयायियों को भी विपरीत मार्ग पर भटकाये रखना क्या उचित है ? अगर प्राचार्य को जैनधर्म के विषय में इतिहास लिखना था तो दोनों दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन परम्परा के प्राचीन साहित्य और ऐतिहासिक सामग्री के सहारे से मूर्तिपूजा विषयक तथ्य को सत्य लिखना था। इससे विपरीत अगर प्राचार्य को कल्पना पूर्वक मनगढंत इतिहास का एक समिति द्वारा निर्माण करवाना ही था तो जैन समाज को ऐसे कल्पित इतिहास की आवश्यकता ही क्या थी ? अगर प्राचार्य को स्थानकपंथी मान्यता पूर्ण ही इतिहास लिखना था और जिनमन्दिर प्रादि विषयों को अंधेरे में ही रखना था तो अच्छा यह था कि पाप "स्थानकपंथी जैन इतिहास" ऐसा कुछ नाम देकर श्रीमान् लोकाशाह से ही उसका प्रारम्भ करते और किसी भी इतिहास समिति द्वारा चाहे जैसा लिखवाते-छपवाते इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं होती और "स्थानकपंथी जैन इतिहास" ऐसा कुछ नाम पूर्वक उनके पाद्य पूर्वपुरुष वृद्ध जैन गृहस्थी लोकाशाह से इतिहास प्रारम्भ करने पर प्राचार्य को किसी भी झूठ का सहारा लेने की नौबत न आती एवं कम से कम जैन इतिहास को कलंकित करने के पाप से भी आप बच जाते / स्थानकपंथी मान्यता के अनुकूल इतिहास लिखना
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________________ [ 156 ] और उसका नाम "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" रखना यह एक मनीषी प्राचार्य का भ्रम फैलाने का अप्रमाणिक कृत्य ही है। खंड 1, पृ० 34 पर सम्पादकीय नोंध में गजसिंहजो राठौड़ लिखते हैं कि xxxजैन समाज, खासकर श्वेताम्बर स्थानकवासी समाज में जैनधर्म के प्रामाणिक इतिहास की कमी चिरकाल से खटक रही थी। 888 मीमांसा-"जैन समाज" में इतिहास की कमी है ही नहीं। वसुदेव हिण्डी, पउमचरियं, तिलोय पण्णत्ति, चउवन महापुरिस चरियं, त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र, हरिवंश पुराण आदि अनेक प्रामाणिक प्राचीन इतिहास एवं पागम तथा प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य, चरित्र अन्थों आदि में प्राचीन जैनाचार्यों द्वारा कथित जैन समाज का प्रमाणिक इतिहास सुव्यवस्थित रीत से सुरक्षित है और सम्मेतशिखर, पावापुरी, गिरनार, शत्रुजय, राणकपुर, आबू, केसरियाजी, कुम्भारियानी, तारंगाजी आदि हजारों तीर्थों एवं लगभग 80 हजार से भी अधिक जिन मन्दिरों के रूप में जैन समाज का इतिहास स्वयं व्यवस्थित है। अत: जैन समाज में इतिहास की कमी खटकने की सम्पादक श्री गजसिंहजी की कथित बात सर्वथा असत्य ही है। प्राचार्य स्वयं खंड-१ [पुरानी प्रावृत्ति] पृ० 6 पर अपनी बात में लिखते हैं कि 888 उपरोक्त पर्यालोचन के बाद यह कहना किंचित्मात्र भी अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि हमारा जैन इतिहास बहुत गहरी सुदृढ़ नीब पर खड़ा है / यह इधर-उधर की किंवदन्ती या कल्पना के आधार से नहीं पर प्रामाणिक पूर्वाचार्यों की अविरल परम्परा से प्राप्त है / अतः इसकी विश्वसनीयता में लेशमात्र भी शंका की गुंजाइश नहीं रहती।xxx मीमांसा–प्राचार्य के उक्त कथन से भी "जैन समाज में इतिहास की कमी" की गजसिंहजी द्वारा लिखित बात प्रसत्य ही सिद्ध
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________________ [ 160 ] होती है। प्रामाणिक पूर्वाचार्यों कथित सत्य इतिहास मौजूद होते हुए भी कल्पित एवं किंवदन्ती स्वरूप, असत्य एवं स्थानकपंथी मान्यता से पूर्ण, नामधारी एक समिति द्वारा प्रकाशित किया गया और नामधारी एक प्राचार्य द्वारा रचा गया "जैनधर्म का मौलिक इतिहास” नामक पुस्तक को कौन सज्जन सत्य मान सकता है ? अतः जिन मन्दिर एवं जिनमूर्तिपूजा में विश्वास करने वाले सुज्ञों से मेरा अनुरोध है कि जितनी संभव हो सके उतनी ताकत से इतिहास लेखन की ऐसी कुप्रवृत्तियों की आलोचना करनी चाहिए। रही बात स्थानकपंथी समाज की सो वे अपने इतिहास का नाम "स्थानकपंथी समाज का मौलिक (!) इतिहास" रखकर, फिर चाहे जैसा मनमाना अपना इतिहास रचें, तो हमें कोई विवाद नहीं है / भरतचक्रवर्ती ने अष्टापद पर जिनमंदिर बनवाये इस विषय में कल्पित पौराणिक किंवदन्ती को सामने कर श्री सिद्धसेनसूरिजी की घटना को प्रतिमा के कारण अप्रामाणिक लिखकर, श्री गौतमस्वामी का अष्टापदगिरि पर जाने का सत्य छिपाकर, दशपूर्वधर श्री वनस्वामी का विद्याबल से पुष्प लाने के सत्य को विपरीत कर प्राचार्य ने सत्य से वैमनस्य रखा है और ऐसी तो अनेक बातें हैं, जिनको प्राचार्य ने विपरीत लिखी है, फिर भी वे खंड-१, पृ० 31 पर लिखते हैं कि ४४४कहीं भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश वश कोई अप्रमाणिक बात नहीं आने पावे, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है।xnx - मीमांसा-स्थानकपंथी कभी भी जैनधर्म विषयक इतिहास सत्य लिख ही नहीं सकते हैं / साम्प्रदायिक व्यमोह के कारण प्राचार्य ने अपने इतिहास से जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर आदि विषयों में अनेक अप्रामाणिक बातें लिखी हैं, अत: उनका उक्त कथन सर्वथा असंगत ही है।
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________________ [ 161 ] मुख्य संपादक श्री गजसिंहजी राठौड़ को हमारा इतना ही कहना है कि इतिहास लेखन में आगम शास्त्र, प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य एवं प्राचीन जिनमंदिर-जिनमूर्तियां एवं शिलालेख प्रादि के विद्यमान होते हुए, अगर आप सत्य इतिहास लिखते-लिखवाते और सही मार्गदर्शन करते तो आपकी विद्वता से विज्ञजनों को अवश्य संतोष और आनन्द होता। प्राचार्य हस्तीमलजी से हमें आशा ही नहीं, विश्वास भी है कि वे प्राचार्य पद की गरिमा समझते हुए आगे प्रामाणिक एवं सत्य इतिहास लिखने का कष्ट करेंगे / यही शुभेच्छा है कि प्रागे के इतिहास में प्राचार्य हस्तीमलजी पूज्य हेमचन्द्राचार्य महाराज, पूज्य हरिभद्रसूरिजी, पूज्य अभयदेव सूरिजी, पूज्य हीरसूरीश्वरजी, पूज्य यशोविजयजी आदि अनेक महान पुरुषों के विषय में जो भी लिखें वह सत्य तथ्य पर प्राधारित होना चाहिए एवं कुभारपाल महाराजा, वस्तुपाल-तेजपाल, उदायन मंत्री, आम्रभट्ट-बाहड़भट्ट, धरणशाह, पेथड़शाह, जगडुशाह, विमलशाह, करमाशाह आदि महान जैन श्रावकों के विषय में भी लिखें तो सत्य लिखें / साथ ही साथ शत्रुजय, सम्मेतशिखरजी, पावापुरीजी, गिरनारजी, वैभारगिरि, राणकपुर, प्रांबू, तारंगाजी, कुम्भारियाजी, केसरियाजी, नाकोडाजी, शंखेश्वरजी आदि तीर्थों के विषय में लिखें तो सही सही सत्य लिखेंगे और मिली हई एवं बची हई समयादि शक्तियों का सदुपयोग कर जैन शासन की गरिमा को उन्नत करेंगे। . जैन समाज में विद्यमान सर्व प्रबुद्ध जनों से विनती है कि प्रकाश से अंधकार में ले जाने वाली गलत इतिहास प्रादि साहित्य लिखने वालों की बालिश कुचेष्टा से सावधान एवं सतर्क रहें। ___ मेरे द्वारा जिनाज्ञा के विरुद्ध यदि कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छामि दुक्कडम् देता हूँ। सुजैः मयि उपकृत्य शोध्यम्। जैनं शासनम् जयतु।
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________________ [ प्रकरण-३५ ] परिशिष्ट मूर्तिपूजा में शास्त्रों को सम्मति प्रथम प्रमाण श्री ज्ञाताधर्म कथा नामक प्रागमसूत्र के छठे अध्ययन में द्रौपदी ने जिन पूजा की थी, ऐसा स्पष्ट कथन है। जिससे श्री नेमिनाथ भगवान के काल में भी जिनमूर्ति पूजा थी, यह बात सिद्ध होती है / श्री ज्ञाताधर्म कथा सूत्र कथित पाठ इस प्रकार है xxx तएणं सा दोवई रायवर कन्ना जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता मज्जणघरमणुप्पविसइ, अणुपविसइत्ता व्हाया कयनलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धपावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिया मज्जणघराओ पडिमिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव जिणघरे तेणेव उवापच्छइ, उवागच्छइत्ता जिणघरं अणुपबिसइ, अणुपविसइत्ता आलोए जिणपडिमाणं पणाम करेइ, पणामं करेइत्ता लोमहत्थयं परामुसइ, एवं जहा सूरियाभो जिणपडिमाओ अच्चेइ तहेव भाणियव्वं जाव धूवं डहइ, धूवं डहइत्ता वामं जाणु अंचेइ, अंचेइत्ता दाहिणं जाणुधरणीतलंसि णिवेसेइ, णिवेसित्ता तिखुत्तो मुद्धाण धराणीतलंसि, नमेइ, नमयित्ता इसि पच्चुणमइ करयल जाव कट्ट एवं वयासि नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं बंदइ नमसइ जिणघराओ पडिणिक्खमइ / [ सूत्र 11-9 ] xxx
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________________ [ 163 ] अर्थ-इसके बाद वह द्रौपदी राजकन्या स्नानघर में प्राई, स्नान घर में माकर स्नान किया, बलिकर्म-कौतुक मंगल प्रायच्छित्त करके शुद्ध प्रवेश योग्य श्रेष्ठ वस्त्रों को पहिनकर स्नान घर में से बाहर निकली और जहाँ जिन मन्दिर है वहाँ पाई, प्राकर के जिन मन्दिर में प्रवेश किया, प्रवेश करके जिनप्रतिमा के दर्शन किये, प्रणाम किया, प्रणाम करके मोरपींछ ( मोरपंख ) से जिस प्रकार सूर्याभदेव जिन प्रतिमा को पूजता है, उसी प्रकार ( विस्तार से ) पूजा-अर्चना की, यावत् धूप करके बायां घुटना खड़ा करके दायां घुटना को जमीन पर स्थापन करती है, स्थापन करके तीन बार मस्तक झुकाकर नमस्कार करती है, नमस्कार करके सिर झुकाकर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोलती है नमस्कार हो अरिहंत भगवंतों को यावत् जो (सिद्धिगति को) प्राप्त हुए हैं उनको वंदन करती है, नमस्कार करती है, वंदन और नमस्कार करके जिनमन्दिर में से बाहर निकलती है। [नोंध-यह आगमिक शैली है कि आगम शास्त्रों [ भगवान की वाणी ] को ग्रंथारूढ़ करते वक्त ग्रन्थ-विस्तार के भय से ग्रन्थकर्ता महर्षियों ने समान वर्णन वाले प्रसंगों को जहाँ विस्तार से वर्णन मिलता हो ( लिखा हो ) उसी पागम सूत्र का निर्देश ( सूचन ) कर दिया है कि-'वहाँ से इस विषयक वर्णन देख लेना।" -- जैसे श्री ज्ञाताधर्म कथा नामक अंगसूत्र में श्री मल्लिनाथ स्वामी का जन्म महोत्सव विषयक वर्णन का निर्देश शास्त्रकार महर्षि पूज्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण महाराज ने "जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र'' में से देखलेने का कह दिया है . "जहा जम्बूद्दीब पण्णत्तिए सव्वं जम्मरणं भारिणयन्वं"
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________________ [ 164 ] तथा ज्ञातासूत्र में ही श्री मल्लिनाथ स्वामी के दीक्षा विषयक वर्णन को जमालि के अधिकार में से जान लेना ऐसा सूत्रकार महर्षि श्री देवद्धिगणि महाराज ने कहा है। यथा 888 एवं विणिग्गमो जहा जमालीस्स / 288 ठीक उसी प्रकार राजकुमारी द्रौपदी ने विस्तार से जिन पूजा की थी, इस विषय में शास्त्रकार महर्षि "रायपसेणी" नामक उपांगसूत्र का निर्देश करके कहते हैं कि- "द्रौपदी ने विस्तार से जिन पूजा की थी वह "रायपसेणी सूत्र" में से देख लेना।" श्री ज्ञाताधर्म कथा नामक छट्ठा अंगसूत्र के कर्ता 1 पूर्वधर महर्षि पूज्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण भी द्रौपदी विषयक जिनपूजा के अधिकार को सूर्याभदेवका अधिकार जिस “रायप्रश्नीय" नामक उपांग सूत्र में है, उसमें से देखलेने का निर्देश [ सूचन ] करते हैं. यह इसबात का सूचक है कि 1 पूर्वधर महर्षि श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण महाराज भी अंगसूत्र के समान ही उपांग सूत्र का भी महिमा-महत्व करते हैं / यानी उपांगसूत्र भी अंगसूत्र जितना ही महत्वपूर्ण और प्रामाणिक है / ] द्वितीय प्रमाण श्री रायपसेणीय नामक उपांग सूत्र में सूर्याभदेव ने जिनमूर्तिपूजा की थी, इस विषयक पाठ xxx तएणं से सूरियाभे देवे चहिं सामाणिय सहस्सीहिं जाव अन्नेहि य बहुहिं य सूरियाभ जाव देवेहि य देवीहिं सद्धि संपरिवुडे सव्वढ्ढिए जाव णा (व) निय-रवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सिद्धायतणं पुरथिमिल्लेणं वारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेरणेव देवच्छंदए,
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________________ [ 165 ] जेणेव जिणपडिमाओ तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेंति, करित्ता लोमहत्थएणं गिहंति, गिहित्ता जिणपडिमाणं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएण व्हाणेइ, हाणित्ता सुरभिगंधकासाइएणं गायाई लूहेति, लूहित्ता जिणपडिमाणं सरस गोसीस चंदणेणं गायाइं अणुलिपइ, अणुलिपइत्ता अहयाई देवदूस जुयलाई नियंसेइ, नियंसित्ता पुप्फारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणं चुण्णरुहणं वन्नारुहणं वत्थारुहणं आमरणारहणं करेइ, करित्ता आसतोसत्त विउलवट्टवग्धारिय मल्लदामकलावं करेइ, मल्लदामकलावं करित्ता कयग्गह गहिय करयल पन्भट्ठ विप्पमुक्केणं दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्क पुप्फ-पुजोवयार कलियं करेंति, करित्ता जिणपडिमाणं पुरतो अच्छेहि सण्हेहि रययामएहि अच्छरसा तंदुलएहिं अठ्ठ मंगले आलिहइ, तं जहा-सोत्थिय जाव दप्पणं / तयाणंतरं च णं चंदप्पभरयण वइर वेरुलिय विमलदंड कंचण मणिरयण भत्तिचित्तं कालागुरु-पवर कुदरुक्क तुरुक्क पूव मघमघंत गंधुत्तमाणुविद्ध च धूवट्टि विणिम्मुयत्तवेरुलियमयं कडुच्छुय पग्गहियपयत्तेणं "पूर्व दाउणं जिणवराणं" अठ्ठसय विसुद्ध गंथजुत्तेहिं अत्यजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहिं संथुणइ, संथुणईत्ता सत्तठ्ठ-पयाई पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कईत्ता वामं जाणु अंचेइ, अंचईत्ता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहट्ट, तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणीतलंसि निवाडेइ, निवाडित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमईत्ता करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट, एवं वयासि-नमोत्थुणं अरिहंतागं जाव संपत्ताणं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ / [ रायप्पसेणी सूत्तं ] 444 अर्थ-उसके बाद सूर्याभदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत अन्य भी अनेक सूर्याभविमान में निवास करने वाले देव तथा देवियों के साथ सपरिवार सर्वऋद्धि से सहित ( युक्त ) यावत् वाजिंत्रनाद के साथ जहाँ सिद्धायतन ( जिन मंदिर ) है वहाँ प्राता है, आकर पूर्वद्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है, प्रवेश करके जहाँ देव
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________________ [ 166 ] छंदक है और जहाँ जिनप्रतिमाएं हैं वहां जाता है, जाकर जिनप्रतिमा का दर्शन करता है, दर्शन करके प्रणाम करता है, प्रणाम करके मोरपीछ ( मोरपंख ) लेता है, लेकर प्रतिमाओं का मोरपींछ से प्रमार्जन करता है। प्रमार्जन करने के बाद जिनप्रतिमाओं को सुगन्धित गंधोदक से स्नान कराता है, अभिषेक करके सुरभिगन्ध युक्त काषायिक वस्त्रों से ( अंगलुहना से ) भगवान के गात्रों को स्वच्छ करता ( पोंछता ) है, स्वच्छ करके सरस गोशीर्ष चंदन से गात्रों का विलेपन करता है, विलेपन करके अखंडित देवदूष्य ( वस्त्रयुगल ) रखता है, रखकर पुष्प चढ़ाता है, माला अर्पण करता है, गंध और सुगंधी अर्पण करता है, तथा वर्णक अर्पण करता है, वस्त्र अर्पण करता है, आभूषण चढ़ाता है, आभूषण चढाकर चारों ओर लम्बी पुष्पमालाएं लटकाता है, पुष्पमाला लटकाकर खुले हुए पंचवर्ण पुष्प हाथमें लेकर चारों ओर बिखेरता है, इस प्रकार पुष्पों द्वारा पूजोपचार ( पूजा द्वारा भक्ति से ) पूर्वक सिद्धायतन ( जिन मन्दिर ) को सजाता है, सजाने के बाद में जिनप्रतिमाके सामने अप्सराएं स्वच्छ चिकना रजतमय अक्षतों से अष्ट मंगल का प्रालेखन करती हैं, जिनके नाम स्वस्तिक यावत् दर्पण हैं। उसके बाद चन्द्रप्रभ रत्न, होरा और वैडूर्यरत्नों युक्त जिसका दंड उज्ज्वल है एवं सुवर्ण और मणिरत्नों की रचना से मनोहर, कृष्णागरु श्रेष्ठ कुन्दुरूप तुरुष्क धूप से मघमघायमान उत्तम गंध से युक्त धूपबत्ती जैसी सुगंधिको फैलानेवाला वैडूर्यरत्नमय धूपधाना ( धूपदानी ) को लेकर प्रयत्न पूर्वक (सावधानी से ) जिनवरों को धूप करता है. बाद में 108 विशुद्ध रचनावाला अर्थयुक्त अपुनरुक्त ( विविध ) महान श्लोकों से स्तुति करता है। स्तुति करके सात-पाठ कदम पीछे हटता है, पीछे हटकर बायाँ घुटना ऊँचा करता है और दाहिनां घुटना जमीन पर टिकाकर जमीन पर तीन बार सिर झुकाता है, मस्तक को जमीन पर लगाकर थोड़ा ऊँचा उठाता है, ऊंचा उठाकर दोनों हाथ जोड़कर अंजलीबद्ध करसंपुट करके इस प्रकार स्तुति करता है
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________________ [ 167 ] "नमस्कार हो अरिहंत भगवन्तों को यावत् जो सिद्धिगति को प्राप्त किये हुए हैं उनको" इत्यादि चंदन नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार करके जहाँ देवछंदक है, जहाँ सिद्धायतन का मध्यभाग है वहाँ जाता है। [ श्री राजप्रश्नीय सूत्र] - तृतीय प्रमाणश्री अंगचूलिया नामक कालिक सूत्र [ जिसका उल्लेख श्री नंदीसूत्र कथित 73 सूत्र में है ] में कहा है कि सर्वसावद्य त्याग रूप दीक्षा जिनमन्दिर में देनी चाहिए / यथा 888 तिहि नखस मुहूता रविजोगाइयं पसन्न दिवसे अप्पा वोसिरामि / “जिणभवणाइ" पहाणखित गुरु वंदिता भणइ इच्छकारि तुम्हे अन्हं पंच महाव्बयाई राइनोयन वेरमणं छट्ठाई आरोवावणिया। .. [श्री अंगचूलिया सूत्तं ] 80x अर्थ-तिथि, नक्षत्र, मुहूर्त, रवियोग प्रादि योग युक्त प्रशस्त शुभदिन को ( मुमुक्षु ) अपनी प्रात्मा को पाप से वोसिरावे ( त्यागे ), सो जिनभवन ( जिनमन्दिर ) आदि प्रधान ( श्रेष्ठ ) क्षेत्र में गुरु को वंदना करके कहे- 'प्रसाद करके पाप मुझको पंच महाव्रत और छटा रात्रिभोजन विरमणव्रत प्रारोपण करो ( देवो)। चतुर्थ प्रमाण श्री भगवतीसूत्र में नियुक्ति, टीका आदि को मानने का निर्देश किया है / यथाxxx सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्ति मिस्सओ भणिओ, तइओय निरविसेसो / एस विहि होई अणुओगो। -श्री भगवती सूत्र, 25 वां शतक, तीसरा उद्देशाxxx
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________________ [ 168 ] अर्थ-प्रथम (सामान्य से) सूत्र और अर्थ का कथन करना, दूसरा नियुक्ति के साथ अर्थ देना (अर्थ करना ) और तीसरी बार निविशेष अर्थात् सम्पूर्ण (पूरा पूरा ) अर्थ देना (करना)। .. [ इस पागम पाठ में तीसरे प्रकार की व्याख्या में भाष्य, चूणि, टीका मादि के सहारे से सूत्रार्थ करना ऐसा साफ लिखा हुप्रा है। पञ्चम प्रमाण श्री महाकल्पसूत्र नामक उत्कालिक सूत्र में [ जिस सूत्र का नाम कथन श्री नन्दीसूत्र में भी है ] लिखा है कि-साधु और श्रावक जिन मन्दिर में नित्य जावें / अगर नहीं जावें तो प्रायच्छित लगता है, ऐसा श्री महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी गणधर महाराज के प्रश्न के उत्तर में कहा है / यथा xxx से भयवं ! 'तहाएवं समणं वा माहणं वा चेइयघरे गच्छेज्जा ? हंता गोयमा ! दिरणे दिणे गच्छेज्जा। से भयवं! जत्थ दिणे ण गच्छेज्जा तओ किं पायच्छित् हवेज्जा ? गोयमा ! पमायं पडुच्च तहारुवं समणं वा माहणं वा जो जिणघरं न गच्छेज्जा तओ छठु अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेज्जा / से भयवं ! समणोवासगस्स पोसहसालाए पोसहिए पोसह वंभयारि कि जिणघरं गच्छेज्जा? हंता, गोयमा ! गच्छेज्जा। से भयवं! केणगं गच्छेज्जा ? गोयमा ! गाण दंसण चरणट्ठाए गच्छेज्जा / जे कोई पोसहसालाए पोसह बंभयारी जओ जिघहरे न गच्छेज्जा तओ कि पायच्छित्तं हवेज्जा ? गोयमा ! जहा साहू तहा भाणियग्वं, छ8 अहवा दुवालसमं पायच्छित्तं हवेज्जा। .... ...[श्री महाकल्पसूत्र शास्त्र ] xxx
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________________ - [ 166 ] - अर्थ- गौतम स्वामी का प्रश्न:- ( साधु और श्रावक नित्य जिनमन्दिर में जावें ) हे भगवंत् ! अगर नहीं जावें लो क्या प्रायच्छित ( दण्ड ) लगता है ? महावीर स्वामी:-हे गौतम ! यदि प्रमाद (पालस्य ) के कारण वे जिन मंदिर न जावें तो दो व्रत या तीन व्रत ( उपवास ) का प्रायच्छित लगता है। गौतम स्वामी हे भगवंत्. ! पौषध ब्रह्मचारी श्रावक पौषध में रहा हुअा क्या जिन मन्दिर जावे ? महावीर स्वामी- हाँ गौतम ! जावे। गौतम स्वामी-भगवन् ! मंदिर में वह किसलिये जावे ? महावीर स्वामी-हे गौतम ! ज्ञान-दर्शन-चारित्र निमित्त जावे। गौतम स्वामी-पौषधशाला में रहा हुमा पौषध-ब्रह्मचारी धावक जिनमन्दिर में नहीं जावे, तो प्रायच्छित क्या होता है ? . महावीर स्वामी हे गौतम ! साधु को जितना प्रायच्छित होता है उतना प्रायच्छित लगता है यानी छ8 ( बेला ) अथवा उसके समान तप का प्रायच्छित लगता है। _ [ श्री महा कल्पसूत्र शास्त्र का हिन्दी अनुवाद ] षष्ठ प्रमाण श्री महा निशीथ सूत्र में लिखा है कि जो पुरुष जिन मन्दिर बनावे, उसको बारहवां देवलोक तक की प्राप्ति होती है / यथा काउंपि जिणाययणेहि, मंडियं सव्वमेयणीवट्ट / दाणाइ चउक्केरणं, सढ्ढो गच्छेज्ज अच्चुयं जावनपरं / /
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________________ [ 170 ] अर्थ-जिन मंदिरों से पृथ्वी को मंडित ( सुशोभित ) करके, दानादिक चारों ( दान, शील, तप और भावना ) धर्म करके श्रावक यावत् बारहवें देवलोक तक जावें। सप्तम प्रमाण श्री पावश्यक सूत्र में वग्गुर नामक श्रावक ने श्री पुरिमताल नगर में श्री मल्लिनाथजी का जिनमंदिर बनवाकर, सम्पूर्ण परिवार सहित जिनपूजा की ऐसा अधिकार प्राता है / यथा तत्तोय पुरिमेताल, वग्गुर-इसाण प्रच्चए पडिमं / मल्लिजिणाययण पडिमा, अन्नाएवंसिवहुगोठी / / अष्टम प्रमाण मागमेतर साहित्य में सबसे प्राचीन जैन ग्रन्थ "उपदेशमाला", जो श्री महावीर भगवान के हस्त दीक्षित श्री धर्मदासगणि महाराज विरचित है, उसमें लिखा है कि Xxx निक्खमण - नाण - निव्वाण, जम्मभूमीउ वंदइ जिणाणं // 236 // xxx मर्थः-श्रावक को ( जैनों को ) तीर्थङ्कर भगवान सम्बन्धि जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान पौर निर्वाण ( मोक्ष ) प्रादि पवित्र कल्याणक भूमि की वंदना-स्पर्शना करनी चाहिए / इसी उपदेशमाला के श्लोक 242 में लिखा है किxxx साहूर्ण चेइयाग य, पडणीयं तह य अवयवायं च / ____ निणपवयनस्स अहियं, सव्वत्थामेण बारेई 1000
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________________ [ 171 ] . .."श्री उपमिति भव प्रपञ्चा कथा" के कर्ता पूज्य सिद्धर्षि गणि महाराज उक्त श्लोक की टीका करते हैं कि xxx साधूनां मुनीनां चैत्यानां जिनप्रासाद-प्रतिमानां च प्रत्यनीकं क्षुद्रोपद्रवकारिणं तथा अवर्णवादिनं कुवचनभाषकं जिनशासनस्य अहित कारिणं शत्रुभूतं जनं, सः श्रावकः समस्त प्रारणेन स्वकीय सर्व शक्तया, प्राणव्ययेनापि वारयति / शासनोन्नतिकरणस्य महोदय हेतुत्वात् / 88x अर्थ-साधु तथा जिनमन्दिर एवं जिनप्रतिमा को तुच्छ उपद्रव करने वाले और उनका अनादर एवं कुवचन बोलकर अवर्णवाद करने वाले जैन शासन के शत्रुभूत व्यक्तिका जैन श्रावक सर्व सामर्थ्यशक्ति से यावत् प्राणत्याग पूर्वक भी सामना-विरोध करें, क्योंकि शासमोन्नति करने से महोदय होता है। नवम प्रमाण 14 पूर्वधर श्री भद्रबाहु स्वामी महाराज श्री मावश्यक सूत्र में कहते हैं किxxx अकसिण पवत्तगाणं विरया विरयाण एस खलु जुत्तो। संसार पयण करणे दव्वत्थए कूवदिटुंतो॥max अर्थ:-सर्वथा व्रत में प्रवृत्त न हुए विरता-विरति अर्थात् श्रावक को यह ( पुष्पादि से पूजा करण रूप द्रव्यस्तव ) निश्चय ही युक्त-उचित है / संसार को पतला करने में अर्थात् घटाने में-क्षय करने में कूप का दृष्टान्त जानना। 'दशम प्रमाण "जंघाचारण तथा विद्याचारण मुनियों ने जिन प्रतिमा वान्दी है" इस कथन का उल्लेख श्री भगवती सूत्र शतक 20, उद्देश
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________________ [ 172 ] xxx जंघाचारणस्स गं भंते ! तिरियं केवइए गइ विसए पन्नता ? गोयमा से गं इत्तो एगेणं उप्पाएणं रुअगवरे दीवे समोसरणं करेइ, करइत्ता तहिं चेइआई वंदइ, वंदइत्ता इहमागच्छइ इहमागच्छइत्ता, इह चेइयाई वंबइ, जंघाचारणस्स गोयमा ! तिरियं एवइए गइविसए पन्नता। xx ...... अर्थ-हे भगवन् ! जंघाचारण मुनि का तिरछी गति का विषय कितना है ? हे गौतम ! वह यहाँ से एक उत्पात ( छलांग) में रुचकवर (नामक तेरहवा) द्वीप में समवसरण (विश्राम) करे, करके वहाँ के चैत्य अर्थात् जिनमन्दिर (शाश्वता जिन मंदिर-सिद्धायतन) को वांदे, वांदकर वहां से वापस लौटते दूसरे उत्पात में नन्दीश्वरद्वीप में समवसरण (विश्राम ) करे, विश्राम करके वहाँ के ( शाश्वत जिन ) चैत्य यानी जिन मन्दिर को वांदे, वांदकर यहाँ ( भरत क्षेत्र में ) प्रावे, यहां पाकर यहाँ के (प्रशाश्वत ) जिन चैत्य यानी जिनमंदिर वांदे / हे गौतम ! जंघाचारण मुनि का तिरछीगति का विषय इतना (जानना) है। विद्याचारण मुनि के जिन प्रतिमा वन्दन के विषय में श्री भगवती सूत्र में पाठ है कि 888 विजाचारणस्स ण भन्ते ! तिरियं केवइए गइ विसए पन्नतं ? गोयमा ! सेण इत्तो एगेण उप्पारण माणुसोत्तरे पव्वए समोसरण करेइ, करइत्ता तहिं चेइआई वन्दइ, वन्दइत्ता वीएणं उप्पाएणं गंदिसरवर दीवे समोसरण करेइ करइत्ता तहि चेइआई वन्दइ, वंदइत्ता तओ पडिनियत्तइ इहमागच्छह, इहमागच्छइत्ता इह चेइआई वंदइ। विज्जाचारणस्स ण गोयमा तिरियं एवइए गइ विसए पण्णत्ते / [भगवतीसूत्र, 20 शतक, 9 उद्देश] ...... अर्थ-हे भगवन् ! विद्याचारण मुनि का तिरछी गति का विषय कितना है ? हे गौतम ! वह महाँ से एक उत्पात (उड़ान ) में मानुषोत्तर पर्वत पर समवसरण (विश्राम ) करे, विश्राम करके वहां के
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________________ [ 173 ] चैत्य यानी जिनमन्दिर को जुहारे-वंदन करे, वान्द कर दूसरे उत्पात में नन्दीश्वर द्वीप में समवसरण ( विश्राम ) करे ( रुके ) / विश्राम कर के नन्दीश्वर द्वीप के चैत्य यानी जिनमन्दिर को वान्दे, जिनमन्दिर को वान्द कर यहाँ वापस लौटे / यहाँ प्राकर (मध्यलोक स्थित-भरत क्षेत्र के प्रशाश्वत ) जिन मन्दिर को वान्दे-जुहारे / हे गौतम ! विद्याचारण मुनि का तिरछी गति का इतना विषय है। एकादश प्रमाण . श्री पंचाशक प्रकरण में 1444 ग्रन्थ के रचयिता, परम सत्य प्रिय पूज्य हरिभद्रसूरिजी महाराज लिखते हैं कि "गृहस्थों के पास स्वयं के उपभोग की जो सामग्री है उनका सर्वश्रेष्ठ उपयोग भगवान श्री तीर्थकरों में विनियोग है यथा "न य अन्नो उवरोगो, एएसि सियाणं लट्ठयरो" इस गाथा [श्लोक] की टीका करते हुए नवांगी टीकाकार पूज्यपाद श्री अभयदेवसूरिजी महाराज लिखते हैं कि xxxन नैव, च समुच्चये अन्यो जिनपतिपूजातोऽपरः उपयोगो विनियोगस्थानम्, एतेषां प्रवरसाधनानां सतां विद्यमानानां लष्टतरः प्रधानतरो भवति........अतः प्रवर पुष्पादिभिः पूजा विधेया इति गाथार्यः।xxx अर्थ - विद्यमान् प्रवर [ श्रेष्ठ ] साधनों [वस्त्र-पुष्प-फलआदि] का जिनेन्द्र भगवान की पूजा से बढ़कर अन्य उत्तम उपयोग नहीं है / इसलिये पुष्पादि से जिनेश्वर भगवान की पूजा करनी चाहिए। द्वादश प्रमाण ____ प्रागमेतर जैन साहित्य में सबसे प्राचीन प्रामाणिक "उपदेशमाला" नामक ग्रन्थ, जो श्री महावीर भगवान के हस्त दीक्षित शिष्य
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________________ [ 174 ] पूज्य श्री धर्मदास गणि महाराज द्वारा रचित है, उसमें जैन श्रावक को हरदिन जिनमन्दिर में जिन प्रतिमा की अष्टप्रकारी पूजा करने का विधान है। xxx वंदइ उभओ कालंपि, चेइयाई थइथुई परमो। जिणवर-पडिमा-घर, धूव-पुष्फ-गंधच्चणु ज्जुत्तो॥ [ श्लोक-२३० ] xxx अर्थ-स्तवन, स्तोत्र, स्तुति प्रादि से प्रधान (युक्त ) होकर श्रावक तीनकाल श्री जिनेश्वर भगवान के मंदिर में जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा को पुष्प, धूप, गंध अर्चनादि से पूजन करें। [उपदेशमाला शास्त्र] त्रयोदश प्रमारण परम सत्य प्रिय, तार्किक शिरोमणि, 1444 ग्रंथ के रचयिता पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज जो विक्रम की आठवीं शताब्दि में हुए, आप "पंचाशक" शास्त्र में लिखते हैं कि xxx जिणभवण-बिबठावण-जत्ता-पूजाइ सुत्तो विहिणा। बम्वत्यमो ति नेयं, भावत्थय-कारणत्तेण // श्री पंचाशक शास्त्र-६-३ 888 उक्त गाथा का नवांगी टीकाकार पूज्यपाद श्री अभयदेव सूरिजी, जो विक्रम की बारहवीं शताब्दि में हुए, आप पर्थ-टीका करते हैं [ मूल संस्कृत का हिन्दी में ] कि- .. शास्त्रोक्त विधि पूर्वक किये हुए जिनमन्दिर निर्माण, जिन प्रतिमा निर्माण, जिन प्रतिमा की जिन मन्दिर में प्रतिष्ठा, अष्टाह्निक महोत्सव रूप यात्रा, पुष्पादि से पूजा और स्तवन-स्तुति आदि गुणगान
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________________ [ 175 ] . स्वरूप अनुष्ठान सर्व विरति ( चारित्र धर्म ) रूप भावस्तव के कारण होने से द्रव्य स्तव ( द्रव्य पूजा ) है / [ भावस्तव का कारण स्वरूप यह द्रव्यस्तव ( पूजा ) का तीर्थङ्कर भगवान ने भी काम-भोग की तरह निषेध नहीं किया है, प्रतः द्रव्य स्तव भगवान को अभिप्रेत-अनुमतइष्ट है ] - चतुर्दश प्रमाण चौदह पूर्वधर श्रुतकेवलज्ञानी श्री भद्रबाहु स्वामी महाराज "श्री प्रावश्यक सूत्र" में लिखते हैं कि-उदायन राजा की प्रभावती राणी ने जिन मन्दिर बनवाया और तीन काल भगवान की पूजा-अर्चना करती थी। यथा 888 अंतेउर चेइयघरं कारियं पभावईए हाताति / संझं अच्चेइ, अन्नया देवी गच्चइ राया वीणा वायेइ // 4 // भावार्थ-प्रभावती राणी ने अपने अंतेपुर ( रहने के महल ) में जिणघर यानी जिनमन्दिर बनवाया। प्रभावती राणी स्नान करके प्रभात-मध्यान्ह एवं सायंकाल तीन वक्त घर में रहा जिनमन्दिर में अर्चा-पूजा करती थी, एकदा राणी प्रभावतो ( भगवान के सामने ) नृत्य करती है और स्वयं राजा वीणा बजाता है पंचदश प्रमाण भगवान श्री महावीर स्वामी के ग्यारह श्रमणोपासक [श्रावक ने जिन प्रतिमा पूजी है / धावक प्रमुख श्री प्रानन्द श्रावक के विषय में श्री उपासक दशांग सूत्र में निम्न पाठ है xxx नो खलु मे भंते ! कम्पइ अज्जप्पभिइंचणं अन्न उत्थिपाका अन्न उस्थिय देवयाणि वा अन्न उत्थिय परिग्गहियाइं "अरिहंत चेइयाई" वा वित्तए वा नमंसित्तए वा। -उबासगदसांग सूतxxx
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________________ [ 176 ] उक्त सूत्र की टीका करते हुए नवांगी टीकाकार श्रीमद् मभयदेव सूरिजी महाराज लिखते हैं कि xxxनो खलु इत्यादि नो खलु मम भदंत ! हे भगवन् ! कल्पते युज्यते अद्य प्रभृति इतः सम्यक्त्व-प्रतिपत्ति-दिनादारभ्य निरतिचारसम्यक्त्व परिपालनार्थ तद्यतनामाश्रित्य अन्नउस्थिएत्ति जैनयूथाद्यन्यद्य थं संघान्तरं तीर्थान्तरमित्यर्थः तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिकाः चरकादि कुतीथिकाः तान् मन्ययूथिक दैवतानि हरि-हरादीनि अन्य यूथिक परिगृहितानि वा "अहंच्चत्यानि. अहंतुप्रतिमा-लक्षणानि" यथा मौत परिगृहितानि वीरभव-महाकालादिनि बन्चितुवा अभिवादनं कर्तुं नमस्यतु वा प्रगाम पूर्वक प्रयास्तध्वनिभिः गुणोत्कीर्तनं कर्तुम् / श्री उपासक दशांग सूत्र, प्रथमाध्ययनै 444 ____ भावार्थ-हे भगवन् ! मुझे माज में (सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद) निम्न कथित बातें न कल्पे, जिससे मैं (आनन्द प्रावक ) निरतिचार सम्यग्दर्शन का पालन कर सकू।माज से लेकर मुझे जैनसंघ के अन्तर्गत अरिहंत और अरिहंत की प्रतिमा को छोड़कर अन्य तीर्थी चरक प्रादि, अन्य तीर्थी के देव हरि-हरादि और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये अरिहंत के चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा को वंदन करना, नमस्कार करना नहीं कल्पे। [ शास्त्र पाठों में जिनाज्ञा विपरीत या शास्त्रकर्ता महर्षियों के अभिप्राय के विपरीत कुछ भी लिखा गया हो तो मिच्छा मि दुकडम् / ] VATI