________________ [ 126 ] मुनि कान्तिसागरजी के वचनों का कल्पित सहारा लिया है। प्राचार्य हस्तीमलजी ने यह तो लिखा ही नहीं है कि श्री कान्तिसागरजी कब हुए ? और वे कौनसे प्रामाणिक इतिहासकार थे ? कौनसे ग्रन्थ के किस पृष्ठ पर उन्होंने ऐसा लिखा है कि-"इतिहास के प्रकाशन में इस प्रकार के उल्लेखों की सच्चाई संदिग्ध मानी गई है।" इस प्रकार के यानी कौन से प्रकार के ? श्री कान्तिसागरजी के इस विषय में कौनसी न्यायसंगत युक्ति दी है ? इन सब प्रश्नों का सत्यप्रतिज्ञ प्राचार्य को प्रमाणिक उत्तर देना चाहिए और स्वर्गीय कान्तिसागरजी ने क्या ऐसा लिखा है कि-"अजमेर और स्वर्णगिरि में प्रद्योतनसूरि ने प्रतिष्ठा नहीं करवायी है ?" इसका भी उत्तर प्राचार्य दें। बात तो यह है कि नंदीसूत्र और कल्पसूत्र की प्रामाणिक एवं प्राचीन पट्टावलियों का तथ्यपूर्ण सहारा लेना छोड़कर स्वर्गीय कान्तिसागरजी के नाम से प्रतात्विक, ऊटपटांग और इधर-उधर को किंवदन्ती स्वरूप तथ्यहीन बात का सहारा प्राचार्य ने क्यों लिया? इन सब बातों से प्राचार्य की स्वेच्छाचारिता सिद्ध होती है, अतः हमारा यही कहना है कि प्राचार्य हस्तीमलजी द्वारा रचित इतिहास सच्चाई से सर्वथा रहित ही है / पाश्चर्य तो तब होता है कि सत्य तथ्य को तोड़-मरोड़ कर विपरीत रूप से लिखने वाले खंड-१ ( पुरानी प्रावृत्ति ) पृ० 70 पर इतिहासज्ञों को हितशिक्षा देते हैं कि वस्तुस्थिति के अन्तःस्तल तक पहुँचकर सत्य का अन्वेषक बनना चाहिए / यथा 80 खेद है कि हम अपनी दृष्टि से किसी भी विषय के अन्तःस्तल तक नहीं पहुँचते और पुरानी लकीर के ही फकीर बने ____मीमांसा–प्रतिमापूजा और जिनमन्दिर आदि जैनधर्म के विषयों के अन्तःस्तल तक प्राचार्य प्रादि स्वयं क्यों नहीं पहुँचते ? वे स्वयं