________________ [ 134 ] श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों जैन समाज प्रतिमा और प्रतिमापूजा में विश्वास करते हैं और स्थानकपंथी नहीं करते हैं, ऐसी दशा में प्राचार्य हस्तीमलजी के "जैन समाज" ऐसा कथनानुसार क्या स्थानकपंथी समाज स्वतः ही “जैनाभास" सिद्ध नहीं हो जाता है ? "ऐसी प्रतिमा अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित की गयी हैं" इस प्रकार का शास्त्रोक्त कथन होते हुए भी धृष्टता का अवलंबन लेकर लिखना कि-"मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्यकालिन तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकती।" किन्तु प्राचार्य का ऐसा लिखना सर्वथा कपटपूर्ण है, क्योंकि फिर ये प्रतिमाएं कौनसे काल की हैं यह तो उनको बताना ही चाहिए एवं प्राचार्य की नम्र सम्मति प्रमाणभूत आधार पर है या निराधार ? शास्त्र सापेक्ष है या निरपेक्ष ? आगमानुसार ही है या प्रागम विपरीत ? तत्त्वानुसारी है या तत्त्वविनाशक ? ये प्रश्न विचारणीय हैं / जैसे “व्याघ्री अपने बच्चे को सौम्य और अक्रूर मानती है" इसी प्रकार प्राचार्य की सम्मति अगर कल्पित मात्र है तो अकिंचित्कर है / शास्त्र में ऐसी सम्मति को मिथ्याभिमान कहा है। ऐसी अप्रमाणिक मिथ्या सम्मति इतिहास की सच्चाई में मूल्यहीन मानी गई है, क्योंकि प्रामाणिकता की कसौटी पर ऐसी मनमानी सम्मति झूठी ही ठहरती है। जिनप्रतिमा के विषय में प्राचार्य हस्तीमलजी का द्वेष कितना है, इस विषय में राजा सम्प्रति का एक ही दृष्टांत बहुत कुछ प्रकाश डालता है।