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________________ [ 163 ] अर्थ-इसके बाद वह द्रौपदी राजकन्या स्नानघर में प्राई, स्नान घर में माकर स्नान किया, बलिकर्म-कौतुक मंगल प्रायच्छित्त करके शुद्ध प्रवेश योग्य श्रेष्ठ वस्त्रों को पहिनकर स्नान घर में से बाहर निकली और जहाँ जिन मन्दिर है वहाँ पाई, प्राकर के जिन मन्दिर में प्रवेश किया, प्रवेश करके जिनप्रतिमा के दर्शन किये, प्रणाम किया, प्रणाम करके मोरपींछ ( मोरपंख ) से जिस प्रकार सूर्याभदेव जिन प्रतिमा को पूजता है, उसी प्रकार ( विस्तार से ) पूजा-अर्चना की, यावत् धूप करके बायां घुटना खड़ा करके दायां घुटना को जमीन पर स्थापन करती है, स्थापन करके तीन बार मस्तक झुकाकर नमस्कार करती है, नमस्कार करके सिर झुकाकर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोलती है नमस्कार हो अरिहंत भगवंतों को यावत् जो (सिद्धिगति को) प्राप्त हुए हैं उनको वंदन करती है, नमस्कार करती है, वंदन और नमस्कार करके जिनमन्दिर में से बाहर निकलती है। [नोंध-यह आगमिक शैली है कि आगम शास्त्रों [ भगवान की वाणी ] को ग्रंथारूढ़ करते वक्त ग्रन्थ-विस्तार के भय से ग्रन्थकर्ता महर्षियों ने समान वर्णन वाले प्रसंगों को जहाँ विस्तार से वर्णन मिलता हो ( लिखा हो ) उसी पागम सूत्र का निर्देश ( सूचन ) कर दिया है कि-'वहाँ से इस विषयक वर्णन देख लेना।" -- जैसे श्री ज्ञाताधर्म कथा नामक अंगसूत्र में श्री मल्लिनाथ स्वामी का जन्म महोत्सव विषयक वर्णन का निर्देश शास्त्रकार महर्षि पूज्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण महाराज ने "जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र'' में से देखलेने का कह दिया है . "जहा जम्बूद्दीब पण्णत्तिए सव्वं जम्मरणं भारिणयन्वं"
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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