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________________ [ 31 ] यथा थुभसय भाउगाणं चउविसं चेव जिणघरेकासि / सव्व जिणाणे पडिमा, वण्ण पमाणेहिं नियएहि / / अर्थात्-एक सौ भाईयों के एक सौ स्तूप और चौबीस तीर्थंकर के जिनमन्दिर बनवाकर उसमें सर्व तीर्थंकर की प्रतिमा अपने वर्ण तथा शरीर के प्रमाण सहित ( श्री अष्टापद पर्वत ऊपर भरत चक्रवर्ती ने ) बनवायी। अष्टापदजी पर्वत पर भरतचक्रवर्ती ने मंदिर बनवाये थे इस विषष में दो प्राचीन इतिहास भी साक्षी देते हैं। एक "त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" नामका इतिहास जो महाधुरंधर विद्वान कलिकाल सर्वज्ञ पूज्य श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज ने रचा है और दूसरा "चउवन महापुरिस चरियम्" जो महान जैनाचार्य श्रीमद् शीलांकाचार्य द्वारा रचित है। उपरोक्त दोनों महान् ग्रन्थों में भी अष्टापदगिरि पर भरतचक्रवर्ती द्वारा जिनमंदिर बनवाने का उल्लेख है। यह दोनों महान् ग्रन्थ ऐसा भी कहते हैं कि दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवान के चाचा सगरचक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों ने इस अष्टापद तीर्थ की रक्षा में प्राण मंवाये थे / इस बात का उल्लेख प्राचार्य हस्तीमलजी ने "जैन धर्म का मौलिक इतिहास" पुस्तक में खंड 1 पृ० 165 पर किया है। यथा 044 सहस्रांशु आदि सगर के 60 हजार पुत्र चक्रवर्ती सगर की आज्ञा प्राप्त कर सेनापति रत्न, दण्ड रत्न आदि रत्नों और एक बड़ी सेना के साथ भरत क्षेत्र के भ्रमण के लिये प्रस्थित हुए / अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए जब वे अष्टापद पर्वत के पास आये तब उन्होंने अष्टापद पर जिन मंदिरों को देखा और उनकी सुरक्षा के लिये पर्वत के चारों ओर एक खाई खोदनेका विचार
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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