________________ - 10 पूर्वधर महर्षि तत्त्वार्थ सूत्र रचयिता भगवान श्री उमास्वाति महाराज "तत्त्वार्थ सूत्र कारिका" में लिखते हैं किxxx अभ्यर्चनादर्हतां मनः प्रसादस्ततः समाधिश्च / / तस्मादपि निःश्रेयसमतो हि तत्पूजनं न्याय्यम् // xx अर्थात्-श्री अरिहंत परमात्मा की अभ्यर्चना करने से मन की प्रसन्नता, मन के प्रसाद से समाधि और समाधि से निःश्रेयस मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिये सभी मुमुक्षु आत्माओं को अरिहंत की पूजा अवश्य करनी चाहिए, यह न्याय संगत एवं उचित है। - शास्त्रों में इतनी स्पष्ट बात होते हुए भी प्राचार्य श्री ने स्वयं को अज्ञान ही रखना चाहा है। उनके द्वारा रचित इतिहास को सबसे निर्बल कड़ी यह रही है कि उन्होंने सारे इतिहास में कहीं भी " चैत्य" ( यानी जिनमन्दिर या जिन प्रतिमा ) शब्द का शास्त्र या कोष-व्याकरण से अर्थ ही नहीं किया है। फिर भी उन्होंने "चैत्यवास" प्रादि की चर्चा चलायी है, जो सर्वथा निरर्थक ही है। . मूर्तिपूजा में मानम्बर एवं हिंसा कहने वाले ये 'लोम स्वयं भारी प्राडम्बर रचते और अपने गुरुत्रों के पगलिया एवं स्मृति मन्दिर प्रादि बनवाने की हिंसा भी करते हैं। अपनी तस्वीर छपवाकर पौर बटवाकर ये गृहस्थों के घर में भी अपना स्थान सुरक्षित रखने लगे हैं। तीर्थङ्कर भगवान के जन्म कल्याणक प्रादि महोत्सवों को ठाठ से मनवाने में प्राडम्बर मानने वाले ये मुनिगण स्वयं की जन्म जयंति दिल और दिमाग पूर्वक बड़े आडम्बर के साथ मनवाते हैं, स्वयं की तस्वीर युक्त बड़ी बड़ी पत्रिकाएँ छपवाते हैं, गुरुके जन्म दिन पर हजारों लोग इकट्ठ होते हैं, सरस माल मिलता है और मौज मजा उड़ाते हैं। मूर्तिपूजा विरोधी ये लोग स्वयं के गुरु की तस्वीर वाले लोकेट और चांदी के सिषके प्रादि भी बांटते हैं, निज गुरु को निम्रन्थ परम्परा के विरुद्ध