________________ [ 87 ] दृष्टिराग के पूर्वग्रह से ग्रसित एवं मिथ्यात्व के रंग से ऐसे रंगे हुए हैं कि वे सिद्धायतन, जिनचैत्य, जिनमंदिर आदि की बात माने पर सत्य का पक्ष छोड़कर जल्दी से झूठ का ही सहारा लेने पर उतारू हो जाते हैं / __ श्री महावीर स्वामी के शासन में वीर संवत् 882 से ऐसा समय पाया कि कितनेक जैन मुनि शिथिलाचारी बन गये, मंदिर संबंधित द्रव्य यानी "देवद्रव्य" का भक्षण करने लगे, उनकी विहार आदि की चर्या शिथिल हो गई ! वे जिनमन्दिर में ही रहने लगे इस कारण वे "चैत्यवासी" कहलाये। प्राचार्य हस्तीमलजी ने जैनधर्म का मौलिक इतिहास, खंड 2, पृ० 623 से 628 तक चैत्यवास के विषय में लम्बी-चौड़ी वार्ता की है, किन्तु 'चैत्य' का अर्थ उन्होंने अस्पष्ट और संदिग्ध ही रखा है / पृ० 624 पर वे लिखते हैं कि 444 इसका ( चैत्यवास का ) प्रारम्भ वीर संवत् 882 में हो गया। यद्यपि उस समय वन के बदले मुनि लोग वसति के चैत्य और उपाश्रय में उतरते थे, किन्तु वहां वे स्थानपति होकर नहीं रहते थे / चैत्यवसति में उतरने पर भी वे सतत विहारी होने के कारण विहरूक कहलाते थे। 88 मीमांसा-इतिहासकार प्राचार्य ने यहाँ कैसा उटपटांग और अस्पष्ट लिखा है ? एवं "चैत्य" तथा "चैत्यवसति" शब्द का अर्थ करना तो प्राचार्य ने टाल ही दिया है / जिन मंदिर के शत्रु चैत्य शब्द का अर्थ 'जिन मंदिर' क्यों करेंगे? परम सत्यप्रिय, 1444 ग्रन्थों के रचयिता पूज्यपाद हरिभद्रसूरिजी महाराज के कथन का उद्धरण करके खंड 2 पृ० 626 पर प्राचार्य हस्तीमलजी लिखते हैं कि