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________________ [ 174 ] पूज्य श्री धर्मदास गणि महाराज द्वारा रचित है, उसमें जैन श्रावक को हरदिन जिनमन्दिर में जिन प्रतिमा की अष्टप्रकारी पूजा करने का विधान है। xxx वंदइ उभओ कालंपि, चेइयाई थइथुई परमो। जिणवर-पडिमा-घर, धूव-पुष्फ-गंधच्चणु ज्जुत्तो॥ [ श्लोक-२३० ] xxx अर्थ-स्तवन, स्तोत्र, स्तुति प्रादि से प्रधान (युक्त ) होकर श्रावक तीनकाल श्री जिनेश्वर भगवान के मंदिर में जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा को पुष्प, धूप, गंध अर्चनादि से पूजन करें। [उपदेशमाला शास्त्र] त्रयोदश प्रमारण परम सत्य प्रिय, तार्किक शिरोमणि, 1444 ग्रंथ के रचयिता पूज्य श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज जो विक्रम की आठवीं शताब्दि में हुए, आप "पंचाशक" शास्त्र में लिखते हैं कि xxx जिणभवण-बिबठावण-जत्ता-पूजाइ सुत्तो विहिणा। बम्वत्यमो ति नेयं, भावत्थय-कारणत्तेण // श्री पंचाशक शास्त्र-६-३ 888 उक्त गाथा का नवांगी टीकाकार पूज्यपाद श्री अभयदेव सूरिजी, जो विक्रम की बारहवीं शताब्दि में हुए, आप पर्थ-टीका करते हैं [ मूल संस्कृत का हिन्दी में ] कि- .. शास्त्रोक्त विधि पूर्वक किये हुए जिनमन्दिर निर्माण, जिन प्रतिमा निर्माण, जिन प्रतिमा की जिन मन्दिर में प्रतिष्ठा, अष्टाह्निक महोत्सव रूप यात्रा, पुष्पादि से पूजा और स्तवन-स्तुति आदि गुणगान
SR No.032834
Book TitleKalpit Itihas se Savdhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansundarvijay, Jaysundarvijay, Kapurchand Jain
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year1983
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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