________________ [ 160 ] होती है। प्रामाणिक पूर्वाचार्यों कथित सत्य इतिहास मौजूद होते हुए भी कल्पित एवं किंवदन्ती स्वरूप, असत्य एवं स्थानकपंथी मान्यता से पूर्ण, नामधारी एक समिति द्वारा प्रकाशित किया गया और नामधारी एक प्राचार्य द्वारा रचा गया "जैनधर्म का मौलिक इतिहास” नामक पुस्तक को कौन सज्जन सत्य मान सकता है ? अतः जिन मन्दिर एवं जिनमूर्तिपूजा में विश्वास करने वाले सुज्ञों से मेरा अनुरोध है कि जितनी संभव हो सके उतनी ताकत से इतिहास लेखन की ऐसी कुप्रवृत्तियों की आलोचना करनी चाहिए। रही बात स्थानकपंथी समाज की सो वे अपने इतिहास का नाम "स्थानकपंथी समाज का मौलिक (!) इतिहास" रखकर, फिर चाहे जैसा मनमाना अपना इतिहास रचें, तो हमें कोई विवाद नहीं है / भरतचक्रवर्ती ने अष्टापद पर जिनमंदिर बनवाये इस विषय में कल्पित पौराणिक किंवदन्ती को सामने कर श्री सिद्धसेनसूरिजी की घटना को प्रतिमा के कारण अप्रामाणिक लिखकर, श्री गौतमस्वामी का अष्टापदगिरि पर जाने का सत्य छिपाकर, दशपूर्वधर श्री वनस्वामी का विद्याबल से पुष्प लाने के सत्य को विपरीत कर प्राचार्य ने सत्य से वैमनस्य रखा है और ऐसी तो अनेक बातें हैं, जिनको प्राचार्य ने विपरीत लिखी है, फिर भी वे खंड-१, पृ० 31 पर लिखते हैं कि ४४४कहीं भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश वश कोई अप्रमाणिक बात नहीं आने पावे, इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है।xnx - मीमांसा-स्थानकपंथी कभी भी जैनधर्म विषयक इतिहास सत्य लिख ही नहीं सकते हैं / साम्प्रदायिक व्यमोह के कारण प्राचार्य ने अपने इतिहास से जिनप्रतिमा, जिनमन्दिर आदि विषयों में अनेक अप्रामाणिक बातें लिखी हैं, अत: उनका उक्त कथन सर्वथा असंगत ही है।