________________ [ 124 ] वे सत्य बोलने की प्रतिज्ञा वाले भी नहीं होंगे, अतः प्राचार्य हस्तीमलजी के विषय में उनका कथन अतिशयोक्ति से भरपूर हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या ? रही बात पूर्वाचार्यों की, सो वे तो भवभीरु और पंचमहाव्रतों के धारक सत्यप्रतिज्ञ थे, झूठ और अतिशयोक्तिपूर्ण लिखने का जिनको कोई प्रयोजन ही नहीं था / ऐसे सत्यप्रिय जैन पूर्वाचार्य कथाग्रन्थ के चरित्रचित्रण में अतिशयोक्ति क्यों करेंगे ? तथा छद्मस्थ होने के कारण पूर्वाचार्यों के कथन को अतिशयोक्तिपूर्ण कहने पर तो तीर्थंकर और केवलज्ञानियों को छोड़कर अन्य सब झूठे ही ठहरेंगे, फिर तो स्वयं छद्मस्थ प्राचार्य हस्तीमलजी का साहित्य सर्वथा झूठा और अप्रमाणिक सिद्ध हो जाता है / खैर ! प्राचार्य द्वारा रचित इस इतिहास में ऐसी तो अनेक गलतियां भरी पड़ी हैं, जो गजसिंहजी राठौड़ द्वारा कथित उनकी क्षीर-नीर विवेकमयी तीव्र बुद्धि पर बड़ा प्रश्नार्थचिह्न लगाने वाली है। प्राचार्य हस्तीमलजी के विषय में ऐसी ही अतिशयोक्ति पूर्ण बात पंडित श्री दलसुखजी मालवणिया ने भी लिखी है। खंड-१, पृ० 6 पर "प्रकाशकीय नोंध" में पंडित दलसुखजी मालवणिया के प्रशंसा सूचक वचन को आकर्षक रूप में प्रगट किया गया है / वे प्राचार्य के इतिहास के विषय में अनुचित खुशामद करते हैं कि 880 बहुत काल तक आपका यह इतिहास ग्रंथ प्रामाणिक इतिहास के रूप में कायम रहेगा। नये तथ्यों की संभावना अब कम मीमांसा-ऐसा लगता है श्री मालवणियाजी को संपूर्ण इतिहास ध्यान से पढ़ने का समय ही न मिला हो, संभव है सिर्फ ऊपरऊपर से देखकर ही जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास और साहस के