________________ [ 133 ] अपरंच ऐतिहासिक तथ्यों से संप्रतिराजा द्वारा निर्मित प्रतिमा का प्रामाणिक सत्य सिद्ध होते हुए भी "तुष्यतु दर्जन न्यायेन" मान भी लिया जाए कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मूर्तियां भारतवर्ष के किसी भी भाग में आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं, फिर भी जैनागम, वृत्ति, नियुक्ति प्रादि शास्त्र क्या झूठे हो सकते हैं ? धर्मास्तिकाय, अर्धामस्तिकाय आदि शास्त्र कथित शूक्ष्म तत्वों को हम देख-समझ न पाएं इस से क्या शास्त्रों की प्रामाणिकता नष्ट हो सकती है ? अनंतकाय के एक शरीर में अनंतजीवों की बात शास्त्र करते हैं, तो क्या उसके विषय में भी पागम निरपेक्ष शंका कुशंका करके पालू का बड़ा, लहसुन की चटनी, और गाजर का हलुवा आदि अनन्तकाय (जमीकन्द] के भक्षण को क्या प्राचार्य एवं स्थानकपंथी उचित समझेंगे? फिर तो पागम कथित एक भी बात श्रद्धा करने योग्य नहीं रहेगी। जिनप्रतिमा के विषय में पट्टावलियां आदि शास्त्रों के उपरांत ध्वंसावशेषों का ऐतिहासिक सत्य तथ्य होते हुए भी प्राचार्य अंधेरे में ही रहना पसन्द करते हैं / वे खंड 2, पृ० 456 पर लिखते हैं कि xxx श्वेत पाषाण की कोहनी के समीप गांठ के आकार के चिन्हवाली प्रतिमाएँ जैन समाज में प्रसिद्ध रही हैं और उन सभी का सम्बन्ध राजा संप्रति से स्थापित किया जाता है। ऐसी प्रतिमाओं के अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठापित होने का उल्लेख किया गया है। मेरी विनम्र सम्मति के अनुसार ये श्वेत पाषाण की प्रतिमाएं सम्प्रति अथवा मौर्यकाल की तो क्या तदुत्तरवर्ती काल की भी नहीं कही जा सकती।xxx ___ मीमांसा- श्वेतपाषाण की कोहनी के समीप गांठ के प्राकार के चिन्हवाली प्रतिमाएं “जैन समाज" में प्रसिद्ध रही हैं / " ऐसा प्राचार्य लिखते हैं तो जैनसमाज से उन्हें यहाँ क्या अभिप्रेत है ? क्योंकि