________________ [ 132 ] मीमांसा- उक्त कथनानुसार वृत्ति, चूणि, नियुक्ति आदि शास्त्रों का प्रामाणिक सहारा होते हुए भी एवं प्राचीन मंदिर, मूर्ति, शिलालेख आदि का तथ्य होते हुए भी प्राचार्य हस्तीमलजी सम्प्रदायवाद के व्यामोह में मूलपथ से विचलित होकर मृषावाद का प्राश्रय खंड 2, पृ० 456 पर इस प्रकार करते हैं कि xx4 जहाँ तक जैन मूर्ति-विधान एवं उपलब्ध पुरातन अवशेषों का प्रश्न है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि राजा सम्प्रति द्वारा निर्मित मंदिर या मूर्तियाँ भारतवर्ष के किसी भी भाग में आजतक उपलब्ध नहीं हो पाई हैं। 8xx मीमांसा-अचार्य पदारूढ़ व्यक्ति का यह एक सफदे झूठ है / मूर्ति में मूर्तिमान के दशर्न करने के ज्ञान से जो अनभिज्ञ हैं एवं जो मंदिर में जाना पाप समझते हैं और अपने अनुयायियों को मन्दिर में नहीं जाने की सौगन्ध दिलाते हैं, उन्हें सम्प्रति राजा द्वारा बनवायी गयी प्रतिमा देखी ही क्या होगी ? अगर प्राचार्य निष्पक्ष होकर खोज करते तो जयपुर, आमेर, जैसलमेर, पाली आदि में ही सम्प्रति कालीन मूर्तियों के उन्हें दर्शन हो जाते। "बिना संकोच कहा जा सकता है कि संप्रति निर्मित मूर्तियाँ कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं"-बिना प्रमाण ऐसा लिखने की प्राचार्य हस्तीमलजी जब धृष्टता और बेईमानी ही करते हैं तब तो उनको यह अवश्य खोज निकालना चाहिए कि सम्प्रति द्वारा निर्मित जिनप्रतिमा के रूप में जो प्रतिमाएं हजारों वर्षों से प्रसिद्धि पाई हुई आज विधमान हैं, वे प्रतिमाएं किसके द्वारा निर्मित हैं ? प्राचार्य अगर यह कहें कि हम ऐसी खोज करने को बेकार नहीं बैठे हैं, तब तो वे झूठे इतिहासकार बन बैठे हैं, यह सिद्ध होता है।