________________ [ प्रकरण-२६ ] जैन धर्म में सम्यक् श्रद्धा की व्यापकता वीर निर्वाण के करीब 980 साल बाद आगमों की वाचना करवाके पूर्वाचार्यों ने जैनागमों एवं प्रागमेतर प्राचीन जैन साहित्य को पुस्तकारूढ़ कर महान उपकार किया है / उत्सूत्र को वज्रपाप समझने वाले, भवभीरु उन पूर्वाचार्यों की प्रामाणिकता ऐसी रही कि जहाँ भी सूत्र-अर्थ विषयक मतभेद आये वहाँ ग्रन्थ में उन्होंने दोनों मतभेद लिख दिये और ऐसे तत्त्वों को विवादास्पद न बनाते हुए लिख दिया कि-"यदत्र तत्त्वं तत्तु केवलिनो विन्दन्ति" यानी यहाँ परमार्थ क्या है यह तत्त्वज्ञानी-केवली ही जानें / महाज्ञानी पूर्वाचार्यों की स्वच्छमति देखो कि उन्होंने तत्त्व विपरीत हो जाने के डर से आगम सूत्रों पर अपनी स्वतन्त्र राय प्रगट नहीं की है। उनको प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के कारण ही हमारे लिये पागम और आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य सत्य, मान्य और श्रद्धनीय हैं। क्योंकि "पुरुष विश्वास से वचन विश्वास" यह पागम वचन है। आचार्य हस्तीमलजी को प्रामाणिक पूर्वाचार्यों के कथन पर श्रद्धा और विश्वास प्रतीत नहीं होता है / अतः वे सगरचक्रवर्ती के 60 हजार पुत्रों की मौत पर प्राचीन ग्रंथों का सहारा छोड़कर पौराणिक गपोड़ों पर विश्वास कर रहे हैं एवं श्री सिद्धसेनसूरिजी के विषय में