________________ [ 116 ] पुकारे जाते थे, उन्होंने ही मंदिर बनवाकर जिनमूर्तियों की प्रतिष्ठा करवायी थी। एक तथ्य अोर भी है जिससे विद्यमान प्राचीन साहित्य और करीब करीब सभी स्थानकपंथी विद्वान सहमत हैं कि लोंकाशाह ने स्वमति कल्पना से केवल जिनमंदिर और जिनप्रतिमा का ही विरोध किया था, किन्तु बाद में “लवजी" नामक स्थानकपंथी साधु ने सूरत (गुजरात) में वि० सं० 1706 ( ई० सं० 1652 ) में मुंह पर मुंहपत्ती बाँधकर इस मत का प्रवर्तन किया था, न कि लोंकाशाह ने। यानी प्राजके स्थानकपंथी लोंकाशाह के नहीं किन्तु लवजीऋषि की परम्परा (संतानीय) के हैं / स्थानकपंथी पंडित लिख रहे हैं कि Xxx मुख बन्धन श्री लोकाशाह के समय से शुरु नहीं हुआ है, किन्तु उसके बाद हुए स्वामी लवजी के समय से शुरु हुआ है और वह [ मुख पर मुहपत्ती बांधना ] आवश्यक भी नहीं है। [ जैन ज्योति, दिनांक 18-7-36, पृ० 172, लेखकराजपाल मगनलाल बोहरा, गुजराती पर से हिन्दी ] श्वेताम्बर जैन श्रावक श्री रणजीतसिंहजी भण्डारी [जयपुर ] "सत्यसंदेश" किताब पृ० (ख) पर लिखते हैं कि 808 मुहपत्ती रात दिन मुह पर बांधने से बार बार थूक की चिपचिपी, चतुरस्पर्शी जीवों का ताड़न प्रताड़न, बोलने में असुविधा तथा चेहरे के सही भाव व्यक्त करने की सुविधा से वंचित होना आदि / क्या यह वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतर सकेगी? 888 मीमांसा-एक मंदिर और मूर्ति के पीछे स्थानकवासियों को जैनागमों और प्राचीन जैन साहित्य को भी झूठा कहने की एवं पलटने की नौबत आती है और कुवेष रचकर वे हास्यास्पद भी बनते हैं।