________________ प्रतिमा पूजा की यथार्थता दो शब्द जगत के अधिकांश व्यवहारों में जड़पदार्थ में चैतन्य का आरोप कर उनसे प्रीति-अप्रीति होने की सार्वत्रिक स्वीकृति होने और जैनागम में जगह जगह पर परम उपादेय श्री जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा (बिम्ब) से शुभ अध्यवसाय की बात प्रत्यक्ष लिखी होने पर भी "स्थापनाजिम" को स्वीकार न करने की अपनी विपरीत धुन में एकान्तवाद का प्राश्रय लेकर स्थानकपंथी स्थापना सत्य का सर्वथा निषेध करते हैं उनका यह दृष्टिकोण सर्वया 'अशोभनीय है और एकान्तवादी होने के कारण मिथ्यात्व स्वरूप भी है। आज से करीब 400 वर्ष पहिले श्वेताम्बर जैन समाज से मूर्तिपूना के विरोध के कारण अलग हुए इन लोगों ने सर्वप्रथम प्रतिमा एवं तस्वीर मात्र का ही विरोध किया था। किन्तु बाद में तस्वीर को उपयोगिता समझकर ये लोग अपनी तस्वीर छपवाने-बँटवाने लगे यावत् श्री महावीरस्वामी की मुंहपत्ती बंधी हुई तस्वीर छपवाकर कल्पित स्थानकपंथ का प्रचार करने लगे। इसीप्रकार धन्नाजी, शालिभद्रजी, मेघ कुमारजी प्रादि मुनियों की मुंहपसी बंधी हुई तस्वीर भी वे लोग छपवाने-बंटवाने लगे और अपनी प्रतिष्ठा रखने के लिये "नोचे पड़े की ऊंची टांग" वाली कहावत की तरह तस्वीर के नीचे लिखवाते हैं कि"तस्वीर सिर्फ परिचय के लिये" / परमोपकारी तीर्थंकर परमात्मा की