________________ 20 श्री कल्पसूत्र में भी सिद्धार्थ राजा ने हजारों की संख्या में जिन प्रतिमा पूजन करवाने का "याग" शब्द से उल्लेख है। श्री व्यवहार सूत्र में जिन प्रतिमा के सन्मुख पालोचना ( प्रायश्चित ) करने का उल्लेख है। श्री प्रश्न व्याकरण सूत्र में निर्जरार्थी को चैत्यहेतुक वैयावच्च करने का आदेश है-"चेइय? ....." इत्यादि" अर्थात् प्रतिमा की हिलना, अवर्णवाद और अन्य प्राशातनाओं का उपदेश के माध्यम से निवारण करने का साधु को कहा है। श्री द्वीप सागर पन्नति सूत्र में कहा है कि स्वयंभूरमण समुद्र में जिन प्रतिमा के प्राकार वाले मत्स्य होते हैं, जिनको देखकर जाति स्मरण होने से तिर्यंच जलचरों को सम्यक्त्व प्राप्ति होती है। __ श्री भगवती सूत्र के प्रारम्भ में ही ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार किया है। - इस प्रकार अनेक शास्त्र-पागम सूत्रों से मूर्तिपूजा सिद्ध होती है। मूर्तिपूजा से लाभ होता है या नहीं-यह तो करनेवाला ही जान सकता है, न करनेवाले को क्या पता? हां! कोई इक्षुरस की मधुरता का चाहे कितना भी अपलाप करे किन्तु उसका प्रास्वाद करने वाला तो उसके मधुर रस का साक्षात् ही अनुभव करता है। स्थानकवासी और तेरापंथी बन्धु और साधु-संतों से यह अनुरोध है कि वे सब समुदाय में या अकेले एक मास स्वयं जिनमूर्ति की उपासना करके अनुभव करलें कि उसमें लाभ होता है या नहीं ? हस्त कंकण को कभी दर्पण की जरूरत नहीं होती। ..