________________ गौतमस्वामी तथा प्रथम पट्टधर श्री सुधर्मास्वामी से लेकर पूज्य देवद्धि गणि क्षमाश्रमण तक का एक हजार वर्ष का इतिहास दिया गया है / जिसमें प्राचार्य ने जैनधर्म के इतिहास को अप्रमाणिक एवं झूठा लिखकर अन्याय ही किया है / एक तटस्थ इतिहासकार के कथन में जो सत्यता, विचार में जो निष्पक्षता, सत्य कथन कहने में जो निडरता होनी चाहिए उनका प्राचार्य में सर्वथा अभाव ही पाया जाता है / जैन धर्म के प्राचार्य, जैनधर्म विषयक इतिहास में तोड़-मरोड़ करें, झूठ लिखें, अप्रामाणिक वचन प्रस्तुत करें, अन्याय पूर्ण वचन कहें, सत्य तथ्य को छिपाने का जघन्य प्रयास करें या सत्य को अर्धसत्य के रूप में बतायें इससे बड़ा खेद का विषय अन्य क्या हो सकता है ? यह बात कहते हुए हमको अपार दुःख है कि प्राचार्य हस्तीमलजी ने अपने "जैनधर्म का मौलिक इतिहास" ग्रन्थ में कई ऐसी बातें लिखी हैं जो असंगत हैं। वे उनको कहाँ से लाये इनका कुछ आधार-प्रमाण भी उन्होंने नहीं दिया है / इसीलिये यह इतिहास नितांत कल्पित एवं अन्याय पूर्ण ही है और खोज-संशोधन करने वाले को कुछ भो प्रेरणा और मार्गदर्शन देने में असमर्थ है। जिनप्रतिमादि विषयक तथ्यों को छिपाकर प्राचार्य ने केवल सम्प्रदायवाद और एकान्तवाद का ही प्राश्रय लिया है, जो इतिहास-लेखक के नाते सर्वथा अनुचित है। प्राचार्य यह बात सर्वथा भूल गये हैं कि स्वोत्प्रेक्षित तर्क और अनुमान के प्राधार पर प्रामाणिक इतिहास कभी भी नहीं लिखा जाता है। और यदि कोई ऐसा इतिहास लिखे तो ऐसे इतिहास को कौन उचित मानेगा ? इतिहास सत्य पर आधारित होता है, जबकि प्राचार्य द्वारा लिखित इतिहास को समिति द्वारा स्वमान्यतानुसार निर्माण करवाया गया है / जो स्थानकपंथ को छोड़कर अन्य जैन समाज इससे सहमत नहीं हो सकता, और न इसको जैन धर्म का मौलिक इतिहास कहा जा सकता है।