________________ [ 67 ] 4 4 फक्त अरिहंत और अरिहंत के [ चैत्य यानी ] साधु को ( ? ) ही वन्दन करना-नमस्कार करना यावत् सेवा भक्ति करना कल्पता है / [ उववाई सूत्र पृ० 163 ] xxx मीमांसा-यहां अमोलक ऋषि ने “अरिहंत घेइयाणि" सूत्र पाठ का कल्पित एवं झूठा अर्थ "अरिहंत के साधु" ऐसा किया है, जो उनके श्री अमृतचन्द्र आदि लौंकागच्छीय प्राचार्य ने किये अर्थ से भी विपरीत एवं विरुद्ध है तथा कोष और व्याकरण निरपेक्ष भी है। लोंकागच्छ के प्राचार्यों ने भी मन्दिर में जिन प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवायी है, ऐसी दशा में जो स्वयं के प्राचार्यों के विरुद्ध चलते हैं वे अगर उनसे भी प्राचीन प्राचार्यों एवं शास्त्रों को मान्य न करें और उनसे विपरीत या विरुद्ध चलें, तो इसमें आश्चर्य की बात ही क्या है ? अंबड सन्यासी के अधिकार में सम्यग्दर्शन की बात ही प्राचार्य हस्तीमलजी ने अपने इतिहास में छिपाई है और उनके पूर्ववर्ति अमोलक ऋषि ने मनमाना कल्पित अर्थ किया है, उनके आदि पुरुष लौंकाशाह से इस स्थानकपंथ परम्परा की यही विशेषता रही है। __स्थानकपंथियों में कोई "बृहत् शांति स्तोत्र" को मूर्तिपूजा समर्थक पाठों की कांट-छांट करके संक्षिप्त कर रहा है, तो कोई विद्यावन्त चारणमुनियों का नंदोश्वर प्रादि द्वीप में सैर-सफर हेतु जाने का लिख रहा है, तो कोई पागम सूत्रों का मनचाहा अंट-शंट अर्थ कर रहा है, तो कोई परमार्थ नहीं जानते हुए भी "घंटाकर्ण महावीर"