________________ [प्रकरण-१६ ] अरिहंत पर प्रभक्ति एवं पूर्वाचार्यों पर प्रबहुमान "जैनधर्म का मौलिक इतिहास-खंड 1" पर चौबीसों भगवान के परिचायक भिन्न भिन्न लांछन चित्रों की तस्वीर एवं भीतर में दानदाता गृहस्थ की तस्वीर छपाने वाले प्राचार्य हस्तीमलजी ने ज्ञानदाता तीर्थकर परमात्मा की तस्वीर अपने इतिहास में न छपवाकर अरिहंत परमात्मा पर अपनी प्रभक्ति का परिचय दिया है। यानी आचार्य को गृहस्थ की तस्वीर से कोई पक्षपात नहीं है और तीर्थंकरों की लांछन तस्वीर से भी उन्हें कोई विरोध नहीं है, पक्षपात और विरोध है तो केवल ज्ञानदाता जिनेश्वर श्री तीर्थंकर भगवान की तस्वीर से है, जो सर्वथा अनुचित ही है / भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियों की पहचान करानेवाले लांछनों को मानना और उन मूर्तियों के प्रति प्रांखें मूद लेना यह कौनसा रोग होगा ? ज्ञानी जाने ! किन्तु इसके मूल में प्राचार्य की तीर्थंकरों के प्रति भक्ति एवं बहुमान का प्रभाव ही प्रगट होता है। . इसी तरह प्राचार्य में महा धुरंधर पूर्वाचार्यों पर भी प्रभक्ति. एवं प्रबहुमान प्रतीत होता है क्योंकि मूर्ति और मंदिर की बात माने पर प्राचार्य हस्तीमलजी वृत्ति, चूर्णि, भाष्य, टीकादि के रचयिता पूर्वाचार्यों को झूठा करने में तनिक भी लज्जा नहीं करते हैं / आश्चर्य