________________ [ 30 ] xxx तथा भगवद्देहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपाः कृता, ततो लोकेपि ततः आरभ्य मृतकदाहस्थानेषु स्तूपाः प्रवर्तन्ते / [ आवश्यक मलयगिरि ] xxx अर्थात्-भगवान के शरीर का जहाँ दाह हुआ था, उसी स्थान पर भरत ने स्तुप बनवाया, तब से लोक में भी मृतक दाह स्थान पर स्तूप बनवाने की प्रवृत्ति शुरु हुई। मीमांसा-जिन चैत्य कहो या जिनस्तूप कहो या जिन मंदिर कहो एक ही बात है। अपने पूज्य उपकारी श्री तीर्थंकर परमात्मा की प्रतिकृति, प्रतिमा या पादुका मंदिर आदि. में विराजमान करके उनकी अनुपस्थिति में उनकी चरणपादुका, प्रतिमा आदि का वंदन, पूजन, सत्कार एवं सम्मान करके सम्यग्दर्शनवन्त भव्यजन प्रभुभक्ति करते हैं। आगम शास्त्र में भी भरत द्वारा जिन मंदिर बनवाने का उल्लेख है / यथा श्री आवश्यक सूत्रान्तर्गत जगचिन्तामणि चैत्यवंदन में "अट्ठावय संठविय रूव, कम्म? विणासण" / तथा सिद्धस्तव में "चत्तारि अट्ठ दस दोय, वंदिया जिणवरा चउविसं" इत्यादि। इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि चतुर्थ पारे की शुरुआत से ही जिनप्रतिमा, जिनपादुका और जिनमंदिर थे और जिन प्रतिमा पूजा भी थी यह प्रागमिक सत्य है / इस तथ्य को प्रामाणिक और तटस्थ व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता। आचार्य प्रतिमा पूजा और जिनमन्दिर के सत्य तथ्य को स्वीकार नहीं करते हैं, यह उनकी भयंकर भूल है। मूर्तिपूजा जैसे सत्य विषय को विवादास्पद बनाना और उसके ऐतिहासिक तथ्यों से इन्कार करना सूर्य के सामने धूलि फेंकने की बालिश चेष्टा मात्र ही है। श्री आवश्यक सूत्र में भरत चक्रवर्ती के बनवाये जिनमंदिर का अधिकार है।