________________ [ 42 ] व्याख्या-[ यदुक्त श्री सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कन्धे षष्ठाध्ययने ] अन्यदा कपित्रा जनहस्तेन राजगृहे श्रेणिकराज्ञः प्राभृतं प्रेषितम् / आद्र ककुमारेण श्रेणिकसुतायाभयकुमाराय स्नेहकरणार्थ प्राभृतं तस्येव हस्तेन प्रेषितम् / जनो राजगृहे गत्वा श्रेणिकराज्ञः प्राभृतानि निवेदितवान् सम्मानितश्च राज्ञा आक प्रहितानि प्राभृतानि चाभयकुमाराय दत्तवान्, कथितानि स्नेहोत्पाद. कानि वचनानि / अभयेनाचिति नूनमसौ भव्यः स्यादासन्नसिद्धिको, यो मया साद्ध प्रीतिमिच्छतीति / ततोऽभयेन प्रथमजिनप्रतिमा बहुप्राभृतयुताऽऽद्भककुमाराय प्रहिता, इदं प्राभूतमेकान्ते निरूपणीयमित्युक्त जनस्य / सोप्या कपुरं गत्वा यथोक्त कथयित्वा प्राभृतमार्पयत् / प्रतिमां निरूपयतः कुमारस्य जातिस्मरणमुत्पन्न, धर्मे प्रतिबद्ध मनः अभयं स्मरन् वैराग्यात्कामभोगेष्वनासक्तस्तिष्ठति / पित्राज्ञातं माक्वचिदसौ यायादिति पंचशत सुभटनित्यं रक्ष्यते इत्यादि / अर्थात्-एक दिन प्रार्द्रकुमार के पिता ने दूत के साथ राजगृह नगरी में श्रेणिक राजा को उपहार भेजा / पार्द्रकुमार ने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के साथ मैत्री करने हेतु उसी दूत के हाथ उपहार भेजा / दूतने राजगृह में जाकर श्रेणिक राजा को उपहार दिये / श्रेणिक राजा ने भी दूत का यथायोग्य सन्मान किया और आर्द्रकुमार द्वारा भेजे गये उपहार को अभयकुमार को दिया तथा स्नेहवचन कहे / अभयकुमार ने सोचा कि निश्चय यह भव्य है और निकट मोक्षगामी है, जो मेरे साथ प्रीति चाहता है / तब अभयकुमार ने बहुत प्राभूत सहित प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की प्रतिमा-मूर्ति आर्द्रकुमार को भेंट भेजी और दूत को संदेश दिया कि यह भेंट प्रार्द्रकुमार को एकान्त में दिखाना। दूतने भी आर्द्रकपुर में जाकर यथोक्त संदेश कहकर भेंट दे दी / जिनप्रतिमा को देखते देखते आर्द्रकुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया एवं उसका मन धर्म में प्रतिबोधित हुआ / अभयकुमार को याद करता हुआ, वैराग्य से काम-भोगों में पासक्त नहीं होता हुआ आर्द्रकुमार वहाँ रहा है। प्रार्द्रकुमार के पिता