________________ - मीमांसा–प्राचार्य ने अपनी कल्पित कल्पना परम्परागत, जीताचार, अपनी अपनी मर्यादा और शाश्वत नियम इन चार शब्दों से की है। खंड-१ पृ 15 से 16 में तीर्थंकरों का जन्माभिषेक महोत्सव मेरुपर्वत पर देव-देवेन्द्र कैसे मनाते हैं आदि का वर्णन किया है। किन्तु सत्य तथ्य को विपरीत करके यह तो 'जीताचार' है या 'परंपरागत' है ऐसा लिखना नितान्त असत्य एवं एकपक्षी होने के कारण सर्वथा गलत भी है / जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति शास्त्र के तीसरे अधिकार में लिखा है कि जन्माभिषेक महोत्सव में आनेवाले देव कोई स्वतः अपार भक्तिवश, कोई प्रियतमा देवी की प्रेरणा से, कोई मित्र के वचन से, कोई कौतुक से, कोई इन्द्र की प्राज्ञा से, तो कोई अपना प्राचार कर्तव्य समझकर प्रभुजन्म महोत्सव में शामिल होते हैं। 808 श्री जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति कथित शास्त्रपाठ इस प्रकार है, यथाः-अप्पेगइया बंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कार सम्माण दंसण कोउहल्ल अप्पे सक्कस्स बयनुयसमाणा अप्पे अण्णमणु यत्तमाणा अप्पेजीयमेयं एवमादि / xxx अतः मात्र शाश्वत आचार से या परम्परागत रीति से देव-देवेन्द्र मेरुपर्वत पर जन्माभिषेक महोत्सव मनाते हैं, ऐसा लिखने में प्राचार्य का अनेकान्त दृष्टि एवं प्राचीन जैनागमों के प्रति कृतज्ञता तथा परमात्मा के प्रति भक्ति भाव का सर्वथा अभाव ही व्यक्त होता है। परम्परा से आने का अर्थ तो यही हुआ कि देव-देवेन्द्र बेचारे लाचारी से, मजबूरी से, अनिच्छा से या उदासीनता से पाते हैं। किन्तु प्राचार्य का ऐसा लिखना उन देवों की भक्ति की महिमा पर लांछन लगाना है। देव-देवेन्द्र नन्दीश्वर द्वीप में जाकर "बड़े हर्षोल्लास के साथ" लगातार आठ दिन तक प्रभुभक्ति महोत्सव मनाते हैं। इस विषय में खंड-१, पृ० 555 पर प्राचार्य लिखते हैं कि