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आध्यात्मिक साधना का मूल केन्द्र: सम्यग्दर्शन
Xxx आचार्यप्रवर श्री देवेन्द्र मुनि जी म.सा.
अध्यात्म जगत् के एक महान् तत्त्वचिन्तक ने कहा है कि जैन धर्म, दर्शन, आचार व संस्कृति का मूल है सम्यग्दर्शन- 'दंसणमूलो धम्मो ।' जैन आचार का प्राण सम्यक् दर्शन है, उसका हृदय श्रद्धा में रहा हुआ है । जितनी हमारी निष्ठा, सद्भावनाएं पवित्र आचरण के प्रति होंगी, लक्ष्य के प्रति होंगी, उतना ही जीवन चमक उठेगा, साधना खिल उठेगी ।
सम्यग्दर्शन में सत्य तत्त्व का बोध भी रहता है और उस पर आस्था भी । बोध विचार है, विचार परिपक्व होने पर आचार का रूप लेता है, इसलिए सत्योन्मुख विश्वास को आचार का आधार मानना दर्शन और मनोविज्ञान की दृष्टि से सर्वथा संगत है । आगे हम इसी तथ्य का चिन्तन करेंगे ।
जैन साधना का लक्ष्य
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आज का युग वैज्ञानिक युग है । भौतिकवाद की चकाचौंध में मानव सुख-शांति और सन्तोष को प्राप्त करने के लिए लक्ष्यहीन व्यक्ति की तरह भटक रहा है वैभव-विलास में अटक रहा है। जैन-साधना का लक्ष्य भोग नहीं त्याग है, संघर्ष नहीं शांति है, विषमता नहीं समता है, विषाद नहीं आनन्द है, और वह तभी प्राप्त हो सकता है जब जीवन में विमल विचार हों, पवित्र आचार हो । अध्यात्म के अभाव में भौतिक उन्नति वरदान के रूप में न होकर प्रलयंकारी अभिशाप बन जाती है। सत्ता और संपत्ति के स्थान पर यदि मानवता से प्रेम किया जाय तो विश्व में अपूर्व शांति हो सकती है।
विश्वास की आवश्यकता
. यह सत्य है कि विज्ञान एक महान् शक्ति है पर उसका उपयोग किस तरह से किया जाय इसका समाधान अध्यात्म और दर्शन ही दे सकता है। विज्ञान ने भौतिक तत्त्वों का विश्लेषण तो किया है, किन्तु आन्तरिक सत्य की उपेक्षा की है । अतः वह ज्ञान होते हुए भी सम्यग्ज्ञान नहीं है। जब तक ज्ञान को सम्यग्दर्शन का वरदान प्राप्त न हो, वहां तक उसमें परिपूर्णता नहीं आती । सम्यग्दर्शन रहित ज्ञान और विज्ञान अमानवीय पाशविक प्रवृत्तियों को बढ़ाता है । घृणा, प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा की भावना को उभारता है । रूढिवाद, परंपरावाद और अन्धविश्वास का पोषण करता है 1 वह अनास्था, अनाचार और अशान्ति से जन-जीवन को पीड़ित करता है । ज्यों ही सम्यग्दर्शन का संस्पर्श होता है त्यों ही अज्ञान ज्ञान के रूप में असदाचार सदाचार के रूप में और मिथ्याचार सम्यक् आचार के रूप में परिवर्तित हो जाता है ।
आज आवश्यकता है आध्यात्मिक सत्य को उजागर करने की, भौतिकवादी अविवेक के घने कुहरे को हटाने की । वह कुहरा हटते ही ज्ञात होगा कि जीवन क्या है ? जगत् क्या है ? बंध और मुक्ति क्या है ? क्यों आत्मा इस विराट् विश्व में परिभ्रमण कर रहा है? सबसे पहले आवश्यकता है- विश्वास की । उसके बाद विचार की, और उसके पश्चात् आचार की। बिना सम्यक् विश्वास के विचारों में निर्मलता व दृढ़ता नहीं आ सकती, विचारों के निर्मल बने बिना आचार में पवित्रता
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