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* जिनसहस्रनाम टीका - ६ * विश्व भवति व्याप्नोति केवलज्ञानापेक्षया इति विश्वभूः = सम्पूर्ण विश्व में प्रभु का केवलज्ञान फैल गया इसलिए विश्वभू कहलाते हैं। सर्वे गत्यर्था धातवो ज्ञानार्थाः' इति । अर्थात् जो-जो गत्यर्थक धातु हैं वे ज्ञान के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं।
अपुनर्भवः = न पुनर्भवति संसारे अपुनर्भवः अथवा न विद्यते पुनर्भवः संसारो यस्येति अपुनर्भवः = संसार में प्रभु पुनः उत्पन्न नहीं होते, भव धारण नहीं करते अत: वे अपुनर्भव हैं।
विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चक्षुरक्षरः । विश्वविद्विश्वविद्येशो विश्वयोनिरनश्वरः॥३॥
विश्वात्मा = यथा चक्षुषि स्थितं कज्जलं चक्षुरिति, प्रस्थप्रमितं धान्यं प्रस्थ इत्युपचर्यते तथा विश्वस्थितः प्राणिगणो विश्वशब्देनोच्यते। विश्वं आत्मा निजसदृशो यस्येति स विश्वात्मा जैसे चक्षु में लगा हुआ काजल चक्षु कहलाता है। प्रस्थ से नापा हुआ धान्य प्रस्थ कहा जाता है, वैसे विश्व में स्थित प्राणी समूह को भी विश्व कहते हैं, अत: प्रभु विश्व को अपने समान मानते हैं इसलिए वे विश्वात्मा कहे जाते हैं, या विश्व का अर्थ केवलज्ञान है वह केवलज्ञान जिनेश्वर का स्वरूप है अत: वे विश्वात्मा हैं।
विश्वलोकेशः = विश्वलोकस्य त्रैलोक्यस्थितप्राणिगणस्य ईशः प्रभुः स विश्वलोकेशः = तीन लोक में रहने वाले प्राणिसमूह के प्रभु ईश स्वामी हैं अत: उन्हें विश्वलोकेश कहा जाता है।
विश्वतश्चक्षुः = विश्वत; विश्वस्मिन् चक्षुः केवलदर्शनं यस्येति विश्वतश्चक्षुः । सार्वविभक्तिकं तसित्येके = सारे लोक में चक्षु यानी केवलदर्शन रूप नेत्र जिनका फैला हुआ है वे विश्वतश्चक्ष हैं। __अक्षरः = 'क्षर संचलने' न क्षरति न चलति प्रधानत्वादिति अक्षरः = जो प्रधानगुण ज्ञानादि उनसे कभी भी चलित या रहित, च्युत नहीं होते अतः वे अक्षर हैं, या अश् धातु का अर्थ भोजन करना है, जो अनन्तज्ञानादि सुधा का भोजन करते हैं अतः उन्हें इसलिए भी अक्षर कहते हैं। अक्षाणि इंद्रियाणि