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* जिनसहस्रनाम टीका - ५ आत्मा भू: अभिप्रायो यस्य स आत्मभूः = आत्मा ही जिनका अभिप्राय स्वरूप है।
आत्मनि भवति प्रादुर्भवति ध्यानेन योगिनां प्रत्यक्षीभवति आत्मभूःनिर्मल 'या के द्वारा गोगियों को सिरोपर प्रत्यक्ष दिखते हैं इसलिए आत्मभू
आत्मना भवति गच्छति भुवनस्वरूपं द्रव्यपर्यायसहितं उत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं जानाति करणक्रमव्यवधानरहिततया स्फुटं पश्यति च आत्मभूः = जो आत्मा के द्वारा ही त्रिभुवन के स्वरूप को जानते हैं, अत: यह त्रिलोक द्रव्य तथा पर्याय सहित है, उत्पाद व्यय तथा ध्रौव्य स्वरूप है, ऐसा जानते हैं इसलिए आत्मभू कहते हैं।
स्वयंप्रभः = स्वयं प्रभाति शोभते स्वयंप्रभः = प्रभु स्वयं शोभा युक्त हैं, अलंकार वस्त्रादि के बिना भी सुन्दर हैं -
'अनलंकारसुभगा पान्तु युष्माञ्जिनेश्वराः' अलंकारों के बिना भी सुन्दर ऐसे जिनेश्वर आपकी रक्षा करें।
प्रभुः = 'प्रभवति समर्थो भवति सर्वेषां स्वामित्वात् प्रभुः ‘भुवो डुर्विशंप्रेषु च' - जिनका प्रभाव या स्वामित्व सब इन्द्रों पर भी है। इसलिए प्रभु हैं।
भोक्ताः = 'भुङ्क्ते परमानन्दसुखमिति भोक्ता' = परमानन्द सुखों का प्रतिसमय अनुभव करने वाले होने से प्रभु भोक्ता हैं।
विश्वभूः = विश्वस्मिन् भवति केवलज्ञानापेक्षया निवसति इति विश्वभूः । केवलज्ञान की अपेक्षा प्रभु सम्पूर्ण विश्व में निवास करते हैं इसलिए विश्वभू
विश्वस्य मंगलं करोति इति विश्वभूः = विश्व का मंगल करते हैं. इसलिए विश्वभू हैं।
विश्वस्य भवति वृद्धिं करोतीति विश्वभूः = विश्व की वृद्धि-उन्नति करते हैं इसलिए विश्वभू हैं। १. विश्वकोश, हेमचन्द्र कोश में