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* जिनसहस्रनाम टीका - ३ * ध्यानिनां योगिनां प्रत्यक्षतया प्रादुर्भवति इति स्वयंभूः = ध्यान करने वाले योगियों में जो प्रभु प्रत्यक्ष प्रगट होते हैं। यहाँ 'भू' धातु का प्रयोग 'प्रादुर्भाव' में है।
ऊर्ध्वव्रज्यास्वभावेन त्रैलोक्याने गच्छत्तीति स्वयंभूः = जो ऊर्ध्ववर्ती स्वभाव से सिद्धशिला में जाते हैं। 'गतो' अर्थ में भी 'भू' धातु होती है। व्याकरण ग्रन्ध में कहा है -
सत्तायां मंगले वृद्धौ निवासे व्याप्तिसंपदोः ।
अभिप्राये च शक्तौ च प्रादुर्भावे गतौ च भूः॥
वृषभः = पृषु वृषु उक्ष सेचने' = जो धर्म जल की वृष्टि करते हैं ऐसे प्रभु आदिजिन को वृषभ कहते हैं।
वृष – भर्म जो अस्मिा लक्षणा से पहनाना जाता है उससे जो शोभता है वह वृषभ है।
भक्तेषु कामानां वर्षणात् वृषभः = भक्तों की अभिलाषाओं की वृष्टि करने से भगवान वृषभ हैं।
वृषभोऽयं जगज्ज्येष्ठो वर्षिष्यति जगद्धितं। __ धर्मामृतमितीन्द्रास्तमकापुर्वृषभाह्वयं ।।।
त्रैलोक्य में सबसे ज्येष्ठ ऐसे ये प्रभु जगत के हित करने वाले धर्मामृत की वृष्टि करेंगे ऐसा मन में विचार कर इन्द्रों ने प्रभु को वृषभ नाम से बुलाया |
स्वर्गावतरणे दृष्टः स्वप्नेऽस्य वृषभो यतः। - जनन्या तदयं देवैराहतो वृषभाख्यया ।
स्वर्ग से अवतरण करने के समय माता मरुदेवी ने स्वप्न में वृषभ-बैल देखा था अतः वृषभ नाम से आदिप्रभु देवों से बोले गये।
वृषो हि भगवान् धर्मस्तेन यद्भाति तीर्थकृत्। ततोऽयं वृषभः स्वामीत्याह्वास्सैनं पुरन्दरः ।। स्वर्ग-मोक्षरूप ऐश्वर्य प्रदान करने वाले धर्म का वृष नाम है। ये आदिप्रभु