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* जिनसहननाम टीका - २ 2 निरपेक्षतया भवति, निर्वेदं प्राप्नोति = जो गुरु अपेक्षा के बिना स्वयं ही संवेग निर्वेद को प्राप्त होते हैं।
संवेगः परमा प्रीतिर्धर्मे धर्मफलेषु च। निर्वेदो देहभोगेषु संसारेषु विरक्तता ॥
धर्म में, धर्म के फल में परम प्रीति होना संवेग है तथा संसार, शरीर और भोगों से विरक्तता निर्वेद कहलाती है।
लोकालोकस्वरूपं जानातीति स्वयंभूः = जो लोकालोक के स्वरूप को स्वयं जानते हैं।
स्वयं भवति निजस्वभावे तिष्ठतीति स्वयंभूः = जो अपने स्वभाव में । रहते हैं। 'भू' धातु सत्ता अर्थ में प्रयुक्त की जाती है।
भत्र्यानां मंगलं करोतीति स्वयंभूः = भव्यों का जो मंगल करता है वह । 'भू' धातु मंगल अर्थ में भी आती है।
निजगुणैर्वृद्धि गच्छतीति स्वयंभूः = जो अपने गुणों के द्वारा स्वयं ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं। यहाँ वृद्धि अर्थ में 'भू' धातु प्रयुक्त है।
निवृतौ वसतीति स्वयंभूः = जो मोक्ष में बसते हैं। यहाँ 'भू' धातु का अर्थ 'निवास' है।
केवलज्ञानदर्शनद्वयेन लोकालोको व्याप्नोति इति स्वयंभूः = जो केवलज्ञान एवं दर्शन के द्वारा लोकालोक में व्याप्त है। 'भू' धातु 'व्याप्ति' अर्थ में प्रयुक्त
है।
__ संपत्तिं करोति भव्यानामिति स्वयंभूः = जो भव्यों को सम्पत्तियुक्त करते हैं। संपदा अर्थ में 'भू' धातु है।
जीवानां जीवनाभिप्रायं करोति इति स्वयंभूः = जो जीवों के जीवन अभिप्राय का स्वयं जानते हैं। यहाँ 'अभिप्राय' अर्थ में 'भू' धातु है।
द्रव्यपर्यायान् ज्ञातुं शक्नोतीति स्वयंभूः = जो द्रव्य एवं पर्यायों को जानने में समर्थ हैं। यहाँ 'भू' 'शक्ती' अर्थ में प्रयुक्त है।