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द्वितीय अध्याय राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थिति किसी भी देश की कला एवं स्थापत्य की नियामक होती है। कलात्मक अभिव्यक्ति अपनी विषय-वस्तु एवं निर्माण-विधा में समाज की धारणाओं एवं तकनीकों का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती है। ये धारणाएं एवं तकनीकें संस्कृति का अंग होती हैं । भारतीय कला, स्थापत्य एवं प्रतिमाविज्ञान के प्रेरक एवं पोषक तत्वों के रूप में भी इन पक्षों का महत्वपूर्ण स्थान है। समर्थ प्रतिभाशाली शासकों के काल में कला एवं स्थापत्य की नई शैलियाँ अस्तित्व में आती हैं, पुरानी नवीन रूप ग्रहण करती हैं तथा उनका दूसरे क्षेत्रों पर प्रभाव पड़ता है। राजा की धार्मिक आस्था अथवा अभिरुचि ने भी धर्म प्रधान भारतीय कला के इतिहास को प्रभावित किया है।
भारतीय कला लोगों की धार्मिक मान्यताओं का ही मूर्त रूप रही है। समाज और आर्थिक स्थिति ने भी विभिन्न
में भारतीय कला एवं स्थापत्य की धारा को प्रभावित किया है। एक निश्चित अर्थ एवं उद्देश्य से युक्त समस्त भारतीय कला पूर्व परम्पराओं के निश्चित निर्वाह के साथ ही साथ धर्म एवं सामाजिक धारणाओं में हए परिवर्तनों से भी सदैव प्रभावित होती रही है। भारतीय कला धार्मिक एवं सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति रही है । अनूकूल आर्थिक परिस्थितियों में ही कला की अबाध अभिव्यक्ति और फलतः उसका सम्यक विकास सम्भव होता है। यजमान एवं कलाकार के अहं एवं कल्पना की साकारता कलाकार की क्षमता से पूर्व यजमान के आर्थिक सामर्थ्य पर निर्भर करती है, यजमान चाहे राजा हो या साधारण जन । भारतीय कला को राजा से अधिक सामान्य लोगों से प्रश्रय मिला है। यह तथ्य जैन कला, स्थापत्य एवं प्रतिमाविज्ञान के विकास के सन्दर्भ में विशेष महत्वपूर्ण है।
उपयंक्त सन्दर्भ में इस अध्याय में जैन मूर्ति निर्माण एवं प्रतिमाविज्ञान की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का ऐतिहासिक विवेचन किया गया है । इसमें विभिन्न समयों में जैन धर्म एवं कला को प्राप्त होनेवाले राजकीय एवं राजेतर लोगों के संरक्षण, प्रश्रय अथवा प्रोत्साहन का इतिहास विवेचित है। काल और क्षेत्र के सन्दर्भ में धार्मिक एवं आर्थिक स्थितियों में होने वाले विकास या परिवर्तनों को समझने का भी प्रयास किया गया है, जिससे समय-समय पर उभरी उन नवीन सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का संकेत मिलता है, जिन्होंने समकालीन जैन कला और प्रतिमाविज्ञान के विकास को प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त जैन धर्म में मूर्ति निर्माण की प्राचीनता, इसकी आवश्यकता तथा इन सन्दर्भो में कलात्मक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की विवेचना भी की गई है।
उपरिनिर्दिष्ट अध्ययन प्रारम्भ से सातवीं शती ई० के अन्त तक कालक्रम से तथा आठवीं से बारहवीं शती ई० तक क्षेत्र के सन्दर्भ में किया गया है। गुप्त युग के अन्त (ल० ५५० ई०) तक जैन कलाकेन्द्रों की संख्या तथा उनसे प्राप्त सामग्री (मथरा के अतिरिक्त) स्वल्प है। राजनीतिक दृष्टि से मौर्यकाल से गुप्तकाल तक उत्तर भारत एक सूत्र में बंधा था। अतः अन्य धर्मों एवं उनसे सम्बद्ध कलाओं के समान हो जैन धर्म तथा कला का विकास इस क्षेत्र में समरूप रहा । गुप्त यग के बाद से सातवीं शती ई० के अन्त तक के संक्रमण काल में भी संस्कृति एवं विभिन्न धर्मों से सम्बद्ध कला के विकास में मूल धारा का ही परवर्ती अविभक्त प्रवाह दृष्टिगत होता है, जिसके कारण पूर्व परम्पराओं की सामर्थ्य तथा उत्तर भारत के एक बड़े भाग पर हर्षवर्धन के राज्य की स्थापना है। किन्तु आठवीं से बारहवीं शती ई० के मध्य उत्तर भारत के राजनीतिक मंच पर विभिन्न राजवंशों का उदय हुआ, जिनके सीमित राज्यों में विभिन्न आर्थिक एवं धार्मिक सन्दर्भो में जैन धर्म, कला, स्थापत्य एवं प्रतिमाविज्ञान के विकास की स्वतन्त्र जनपदीय या क्षेत्रीय धाराएं उद्भूत एवं विकसित हुई, जिनसे जैन
१ कुमारस्वामी, ए० के०, इण्ट्रोडक्शन टू इण्डियन आर्ट, दिल्ली, १९६९, प्रस्तावना
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