Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक.... ...xivii
गुरू के द्वारा प्रतिज्ञा से आबद्ध हो जाना व्रतारोपण कहलाता है।
व्रत का शाब्दिक अर्थ है- नियम या प्रतिज्ञा। आरोपण का अर्थ हैस्थापन करना, स्थित होना। सुस्पष्ट है कि गुरू द्वारा दी गई प्रतिज्ञा स्वीकार करना व्रतारोपण है। ___ तत्त्वत: धर्म या नीतिपूर्वक जीवन जीने की प्रतिज्ञा करना व्रतारोपण है। किसी व्रत का पालन करने पर उससे उत्पन्न होने वाले गुणों का आविर्भाव होता है। इससे साधना का श्रेष्ठ मार्ग फलवान बनता है।
सभी परम्पराओं में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को एकमत से स्वीकार किया गया है। एक सुव्यवस्थित जीवन हेतु चारों पुरुषार्थों का आचरण अनिवार्य है, फिर भी इन चारों में धर्म प्रमुख है। कारण कि धर्म ही व्यक्ति को जीवन जीने का सही निर्देश देता है एवं उसे अधोपतन से बचाता है। वह अर्थ और काम पुरुषार्थों का नियामक भी है एवं मोक्ष पुरुषार्थ का साधन है। इसके अभाव में व्यक्ति का जीवन स्वेच्छाचारी एवं दुर्गुणों का संकुल बन जाता है। अत: उन्मार्गगामी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए तथा व्यक्ति के चहुंमुखी विकास के लिए सम्यक्त्व आदि व्रत स्वीकार करना अत्यन्त अनिवार्य है।
प्रस्तुत कृति में सर्वप्रथम जैन गृहस्थ की धर्माराधना विधि और उसके प्रकारों का उल्लेख किया गया है जिससे श्रावक जीवन के दैनिक कर्तव्यों, मार्मिक आचारों एवं आवश्यक गुणों से परिचित हो सकें तथा उन्हें हृदयंगम करते हुए श्रावक धर्म की मुख्य भूमिका पर आरूढ़ हो सकें।
उसके पश्चात सम्यक्त्व व्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। इसका मुख्य हेतु यह है कि सम्यग्दर्शन अध्यात्म-साधना का मूल आधार एवं मुख्य केन्द्र है। वह मुक्ति महल का प्रथम सोपान है तथा श्रुतधर्म
और चारित्रधर्म की आधार शिला है। जिस प्रकार उच्च एवं भव्य प्रासाद का निर्माण द्रढ़ आधार वाली शिला पर ही संभव हो सकता है इसी तरह सम्यग्दर्शन की नींव पर ही श्रुत-चारित्र धर्म का भव्य प्रासाद खड़ा हो सकता है। सम्यग्दर्शन के सद्भाव में ही यम, नियम, तप, जप आदि सार्थक होते हैं। सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र निरर्थक हैं। जैसे-अंक के बिना शून्य का कोई मूल्य नहीं होता, वैसे ही सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र का कोई अर्थ नहीं रहता। सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्त्व