Book Title: Jain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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अनुभूति की सरगम
व्यक्तित्व विकास एवं आत्मिक उत्थान के लिए साधना और उपासना-ये दो आवश्यक तत्त्व हैं। साधना बीजारोपण है और उपासना खाद-पानी देने से लेकर देख-रेख की समग्र व्यवस्था जुटाने की प्रक्रिया है। बीजारोपण तभी सफल और सार्थक परिणाम देता है, जब उसके अंकुरित, पुष्पित एवं पल्लवित होने के लिए खाद, पानी एवं देख-रेख की प्रक्रिया का क्रम सम्यक् रूप से चलता रहे। उसी प्रकार उपासना भी तभी सार्थक एवं फलवती होती है जब मन, मस्तिष्क एवं अन्त:करण में सद्विचारों एवं सत्प्रवृत्तियों की प्रतिष्ठापना का क्रम सतत चलता रहे।
उपासना का अर्थ है उप + आसन अर्थात स्वयं के निकट बैठना, समीपता। स्वयं के निकट बैठने से तात्पर्य है स्वयं को सुपात्र एवं पवित्र बनाकर अरिहंत के उपदेशों को अन्त:स्थल में उतारने का प्रयास करना। साधना का अर्थ है-स्वयं को साध लेना। स्वयं के भीतर विद्यमान भगवद् स्वरूप को प्रकट करने के लिए प्रयत्न करना।
हमारा जीवन कल्पवृक्ष की तरह असंख्य सद्गुणों से परिपूर्ण हैं, परन्तु इसके सुपरिणाम तभी संभव है जब उन गुणों का सही दिशा में उपयोग किया जाए, उन्हें सम्यक् रूप से साधा जाए। इस ओर किया गया प्रयत्न साधना है।
किसी भी व्रत को धारण करने की भावना उत्पन्न होना, तद्हेतु प्रयत्नशील बनना एवं भावना को साकार रूप देते हुए व्रतों को स्वीकार कर लेना साधना है तथा गृहीत व्रत का जीवनपर्यन्त या निश्चित अवधिपर्यन्त निर्दोष पालन करना, व्रत संबंधी नियमों में अडिग रहना इत्यादि उपासना है। साधना व्रत का प्रारम्भ है और उपासना उसकी पूर्णता है। साधना नियतकालिक होती है और उपासना अनियतकालिक होती है। साधना आत्मा की संस्कृति है और उपासना आत्मा की प्रकृति है। साधना का स्वरूप बुद्धिगम्य है और उपासना का स्वरूप अनुभवगम्य है। साधना की आधारशिला प्रयोग है जबकि उपासना की आधारशिला योग है। व्रत-ग्रहण उपासना और साधना का सम्मिश्रित रूप है।