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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा
प्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान का फल है संयम। दर्शनावरण के विलय से 'सुनना' मिलता है। श्रुत-अर्थ में शानावरण के विलय से अवग्रह, इहा, अवाय
और धारणा-ये होते हैं। इनसे ज्ञान होता है, अज्ञान की निवृत्ति होती है। अज्ञान की निवृत्ति होने पर विज्ञान होता है-हेय, उपादेय की बुद्धि बनती है। इसके बाद हेय का प्रत्याख्यान त्याग होता है । त्याग के पश्चात् संयम ।
आध्यात्मिक दृष्टि से यावन्मात्र पर-संयोग है, वह हेय है। पर-संयोग मिटने पर संयम आता है, अपनी स्थिति में रमण होता है । वह बाहर से नहीं आता, इसलिए उपादेय कुछ भी नही । लौकिक दृष्टि में हेय और उपादेय दोनो होते हैं। जो वस्तु न ग्राह्य होती है और न अग्राह्य, वहाँ मध्यस्थ बुद्धि वनती है अथवा हर्ष और शोक दोनों से बचे रहना, वह मध्यस्थ बुद्धि है ।
इनके अतिरिक्त व्यासि, अभाव, उपचार आदि के भी बीज मिलते हैं।
जैन प्रमाण और परीक्षा पद्धति का विकास इन्ही के आधार पर हुआ है। दूसरे दर्शनी के उपयोगी अंश अपनाने में जैनाचार्यों को कभी आपत्ति नहीं रही है। उन्होने अन्य-परम्परानो की नई सूकों का हमेशा आवर किया है
और अपनाया है। फिर भी यह निर्विवाद है कि उनकी न्याय-परम्परा सर्वथा स्वतन्त्र और मौलिक है और भारतीय न्याय-शास्त्र को उसकी एक बड़ी देन है। अनेकान्त व्यवस्था
आगम साहित्य में सिर्फ ज्ञान और जेय की प्रकीर्ण मीमांसा ही नही 'मिलती, उनकी व्यवस्था भी मिलती है।
सूत्र कृताङ्ग (२-५) में विचार और आचार, दोनों के बारे में अनेकान्त का तलस्पर्शी विवेचन मिलता है। भगवती और सूत्रकृताङ्ग में अनेक मतवादी का निराकरण कर स्वपक्ष की स्थापना की गई है।
इन विखरी मुक्ताओं को एक धागे में पिरोने का काम पहले-पहल आचार्य 'उमास्वाति' ने किया। उनका तत्त्वार्थ सूत्र जैन न्याय विकास की पहली रश्मि है। यों कहना चाहिए कि विक्रम पहली-चूसरी शताब्दी के लगभग जैनपरम्परा में 'प्रमाण नयैरधिमम्' सूत्र के रूप में स्वतन्त्र परीक्षा-शैली का शिलान्यास हु -