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जैन दर्शन में प्रमाण मीमांस
अर्थ का शब्द में आरोप ' " अप्रस्तुत अर्थ को दूर रख कर प्रस्तुत अर्थ का बोध कराना इसका फल है। यह संशय और विपर्यय को दूर किये देता है। विस्तार में जाएं तो कहना होगा कि वस्तु-विन्यास के जितने क्रम हैं, उतने ही निक्षेप हैं। संक्षेप में कम से कम चार तो अवश्य होते हैं-(१) नाम (२) स्थापना (३) द्रव्य (1) माव । नाम निक्षेप
वस्तु का इच्छानुमार नाम रखा जाता है, वह नाम निक्षेप है । नाम सार्थक (जैसे 'इन्द्र') या निरर्थक (जैसे 'डित्य'), मूल अर्थ से सापेक्ष या निरपेक्ष दोनों प्रकार का हो सकता है। किन्तु जो नामकरण सिर्फ संक्तमात्र से होता है, जिसमें जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया आदि की अपेक्षा नहीं होती, वही 'नाम निक्षेप है । एक अनक्षर व्यक्ति का नाम 'अध्यापक रख दिया। एक गरीब आदमी का नाम 'इन्द्र' रख दिया। अध्यापक और इन्द्र का जो अर्थ होना चाहिए, वह उनमें नहीं मिलता, इसलिए ये नाम निक्षिप्त कहलाते हैं। उन दोनों में इन दोनों का आरोप किया जाता है। 'अध्यापक' का अर्थ है-पढ़ाने वाला। 'इन्द्र' का अर्थ है-परम ऐश्वर्यशाली। जो अध्यापक है, जो अध्यापन कराता है, उसे 'अध्यापक कहा जाए, यह नाम-निक्षेप नहीं। जो परम ऐश्वर्य सम्पन्न है, उसे 'इन्द्र' कहा जाए-यह नाम-निक्षेप नहीं। किन्तु जो ऐसे नहीं, उनका ऐसा नामकरण करना नाम निक्षेप है। 'नाम-अध्यापक' और 'नाम-इन्द्र ऐसी शब्द रचना हमें बताती है कि ये व्यक्ति नाम से 'अध्यापक' और 'इन्द्र है। नो अध्यापन कराते हैं और जो परम ऐश्वर्य-सम्पन्न हैं और उनका नाम भी अध्यापक और इन्द्र हैं तो हम उनको 'भाव-अध्यापक' और 'भाव इन्द्र' कहेगे। यदि नाम-निक्षेप नहीं होता तो हम 'अध्यापक' और 'इन्द्र ऐसा नाम सुनते ही यह समझ लेने को वाध्य होते कि अमुक व्यक्ति पढ़ाता है और अमुक व्यक्ति ऐश्वर्य सम्पन्न है। किन्तु संज्ञासूचक शब्द के पीछे नाम विशेषण लगते ही सही स्थिति सामने श्रा जाती है। स्थापना-निक्षेप
बो अर्थ तद्प नहीं है, उसे तद्प मान लेना स्थापना-निक्षेप है ।