Book Title: Jain Darshan me Praman Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

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Page 220
________________ २१२] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा ११-मितु न्या० राश १२-व्यञ्जनावग्रहकालेऽपि शानमस्त्येव, सूक्ष्मान्यक्तत्वात्तु नोपलभ्यते - सुसान्यक्तविज्ञानवत्...| -स्था० वृत्ति० २-१-७१ । १३-(१) स्वरूप-रसना के द्वारा जो ग्रहण किया जाता है। वह 'रस' होता है। (२) नाम-रूप, रस आदि वाचक शब्द ! (३) जाति-रूपत्व, रसत्व आदि जाति। (४) क्रिया-सुखकर, हितकर आदि क्रिया। . (५) गुण-कोमल, कठोर, आदि गुण। (६) द्रव्य-पृथ्वी, पानी आदि द्रव्य । १४-अनध्यवसायस्तावत् सामान्यमात्र प्राहित्वेन अवग्रहे अन्तर्मवति । -वि० भा० वृ० पृ० ३१७ १५-न्याय० सू० १.१-२३ । १६-न्याय० सू० १-१-४०॥ १७-न्याय० सू० १-१-४१ । १८–त्रिकालगोचरस्तर्क, ईहा तु वार्तमानिकार्थविषया-जैन तर्क. १६-नं० २६ २०-नं० २०३० २१-० २६ २२-केई तु वजणोग्गहवज्जच्छोदण मेयम्मि ॥ ३०१॥ अस्सुय निस्यियमेवं अट्ठावीस विहं ति भासंति । जमवग्ग हो दुमेोऽवग्गह सामएणको गहिरो ॥ ३०२ ॥ -वि० मा० ० २३-चउवइरित्ता मावा, जम्हा न तमोग्गहाइओ। मिन्नं तेणोग्गहाइ, सामण्णी तयं तग्गयं चेव ॥ ३०३ ॥ -वि० मा० ० २४-[अर्थावग्रह-व्यञ्जनावग्रहमेदेनाभुत निश्रितमपि द्विधैवेति, इदञ्च श्रोत्रादिप्रभवमेव, यत्तु श्रौत्पत्तियाद्यश्रुतनिश्चितं तत्राविग्रहः सम्भवति,

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