Book Title: Jain Darshan me Praman Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

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Page 230
________________ २२२ ] जैन दर्शन में प्रमाण मीमासा ४८–माओय मुणि देहि, मणिनी अहमेयो। अन्नाण संसली चेव, मिच्छानाण तहे व ॥ राग दोसो मइन्मंसो, धम्मम्मिय अणायरो। जोगाणं दुप्पणिहाणं, अट्टहा वज्जियलो॥ ४६-अज्ञानं खलु कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा, न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ ५०-"संशयात्मा विनश्यति”—यह मन की दोलायमान दशा के लिए है। जिज्ञासात्मक सशय विनाशकर नही किन्तु विकासकर होता है। इसीलिए कहा जाता है-"न संशयमनारुह्य, नरो भद्राणि पश्यति...।" ५१-स्था० १० ५२-विद्यमान पदार्थ की अनुपलब्धि के २१ कारण हैं। इनसे पदार्थ की उपलब्धि होती ही नहीं अथवा वह यथार्थ नहीं होती। (१) अति दूर (२) अति समीप (३) अति सूक्ष्म (४) मन की अस्थिरता (५) इन्द्रिय का अपाटव (६) बुद्धिमान्य (७) अशक्य ग्रहण (८) आवरण (६) अभिभूत (१०) समानजातीय (११) अनुपयोग दशा (१२) उचित उपाय का अभाव (१३) विस्मरण (१४) दुरागम-मिथ्या उपदेश (१५) मोह (१६) दृष्टि-शक्ति का अभाव (१७) विकार (१८) क्रिया का अभाव (१६) अनधिगम-शास्त्र सुने विना (२०) काल-व्यवधान (२१) स्वभाव से इन्द्रिय-अगोचर -(वि० मा वृ०) : सात: १-अनेकान्तात्मकत्वेन, व्याप्तावत्र क्रमाक्रमौ । ताभ्यामर्थक्रिया व्याता, तयास्तित्व चतुष्टये ॥ १-बन्ध, बन्ध-कारण, मोक्ष, मोक्ष-कारण । -

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